सुधींद्र भदौरिया

उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर एक बार फिर दलित-मुस्लिम एकता की बात तेजी से उभरकर आई है। यह कहा जा सकता है कि पहली बार दलित-मुस्लिम एकता उत्तर प्रदेश के चुनावों में सैद्धांतिक स्वरूप लेती दिख रही है। इसे लेकर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि यह एकता सिर्फ चुनाव की फौरी जरूरत है या फिर इसका मकसद कोई स्थायी सामाजिक बदलाव है? हालांकि दलित-मुस्लिम एकता के विरोधी एका की इस पहल को महज चुनावी जीत का जरिया साबित करने की कोशिश कर रहे हैं,लेकिन सच यह है कि उसका जमीनी असर देखने को मिलने लगा है। अगर बहुजन समाज पार्टी की अगुआई में दलित-मुस्लिम एकता को राजनीतिक कामयाबी मिली तो इसका असर देशव्यापी हो सकता है। दलित-मुस्लिम एकता एक प्रकार से दो बड़े पिछड़े-वंचित समुदाय के हितों की रक्षा के लिए ऐतिहासिक महत्व की एक पहल है। यह जग जाहिर है कि दलित और मुस्लिम, दोनों समुदाय शैक्षणिक-सामाजिक-आर्थिक स्तर पर वंचित समुदाय हैं। आजादी के बाद से ही ये दोनों तबके साधन संपन्न वर्ग की उपेक्षा-अनदेखी का शिकार हुए हैं। केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद ये दोनों समुदाय अपने हितों की रक्षा को लेकर संशकित हैं। दलित-मुस्लिम एकता की पैरोकार बसपा एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए इन वंचित तबकों की एकता चाहती है ताकि एक ऐसे समाज का निर्माण हो जहां जाति धर्म या समुदाय के नाम पर किसी के साथ वैसा अन्याय न हो, जैसा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर रोहित वेमुला, दादरी के अखलाक और गुजरात में ऊना के दलित युवकों के साथ हुआ। इस क्रम में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जब जेएनयू परिसर से गायब हुए छात्र नजीब अहमद की बरामदगी की मांग को लेकर एएमयू में छात्र आंदोलित हुए तो सपा सरकार की पुलिस ने उन पर लाठी चार्ज किया।
इतिहास पर नजर डालें तो इन दोनों वंचित-पिछड़े समुदायों में पहले भी एकता रही है। इस देश की पहली महिला अध्यापिका सावित्री बाई फुले ने जब अपने स्कूल की बुनियाद रखी तो बीबी फातिमा शेख उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुईं। सुलेमान शेख ने उनके स्कूल के लिए अपनी जमीन दी। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने जब महाड़ सत्याग्रह शुरु किया तो किसी ने उन्हें शमियाना लगाने के लिए जमीन नहीं दी। वहां के मुसलमानों ने उन्हें न केवल जमीन दी, बल्कि उनके आंदोलन को आगे बढ़ाने में सहयोग भी किया। बाबा साहब ने 1930 में कहा था-वैसे मैं जानता हूं कि कुछ मामलों में दलित वर्गों की हालत भारत के बाकी अल्पसंख्यकों जैसी ही है। दलित वर्गों की तरह अन्य अल्पसंख्यक वर्गों को यह भय है कि भारत का भावी संविधान इस देश की सत्ता को जिन बहुसंख्यकों के हाथों में सौंपेगा वे और कोई नहीं रुढ़िवादी हिंदू ही होंगे। उन्हें आशंका है कि वे अपनी रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों को आसानी से नहीं छोड़ेंगे और जब तक वे अपनी रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों को नहीं छोड़ते, अल्पसंख्यकों के लिए न्याय, समानता और विवेक पर आधारित समाज एक सपना ही बना रहेगा। बाबा साहब की आशंकाएं आजादी के बाद सच निकलीं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट इस सच्चाई की तरफ साफ इशारा करती है कि दलितों और अल्पसंख्यकों और खासकर मुसलमानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति दयनीय है और प्रशासन के स्तर पर भी उन्हें उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। संयोग से पिछले दिनों एक कार्यक्रम के सिलसिले में जस्टिस सच्चर लखनऊ में थे। उन्होंने बताया कि मुजफ्फरनगर दंगे के वक्त जब उन्होंने, कुलदीप नैयर ने और कुछ अन्य लोगों ने मुलायम सिंह को पत्र लिख कर वहां के हालात पर चिंता जाहिर करते हुए उनसे मिलने का वक्त मांगा तो कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला। यह भूला नहीं जा सकता कि जब मुजफ्फरनगर दंगे के पीड़ितों के बच्चे राहत शिविरों में ठंड से मर रहे थे तब राज्य सरकार की प्राथमिकता सैफई महोत्सव थी। उसी दौरान सरकार की ओर से यह सुनने को मिला था कि राहत शिविरों में कोई पीड़ित नहीं, बल्कि विरोधी पार्टियों के एजेंट हैं और वे उन्हीं के इशारे पर शिविरों में रह रहे हैं।
यह कोई छिपी बात नहीं कि वंचित तबकों में से दलितों और मुसलमानों में खास तौर पर सबसे अधिक अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी है। इन वर्गों की इस स्थिति के लिए एक बड़ी हद तक कांग्र्रेस जिम्मेदार है, जो आजादी के बाद लंबे समय तक सत्ता में रही। कांग्रेस ने दोनों समुदायों को सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल किया। उसके शासन काल में दलितों का पिछड़ापन दूर नहीं हो सका तो इसीलिए, क्योंकि उसने दलितों को महज एक वोट बैंक की तरह देखा। कांग्र्रेस ने जैसा व्यवहार दलितों के साथ किया वैसा ही मुस्लिम समाज के साथ भी। वह मुसलमानों को भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हौवा दिखाकर डराने का काम करती रही। यही काम अन्य कई राजनीतिक दलों ने भी किया। यह ठीक है कि सच्चर कमेटी के जरिये मुस्लिम समाज का पिछड़ापन प्रकट हो गया, लेकिन उसे दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया। यह प्रश्न अनुत्तरित है कि आखिर संप्रग सरकार ने सत्ता में रहते समय मुसलमानों के आर्थिक उत्थान के लिए क्या किया? कांग्र्रेस जैसा काम वामपंथी दलों ने भी किया। वामपंथी दल दलितों और वंचितों के सबसे बड़े हितैषी बनते हैं और गैर बराबरी के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि पोलित ब्यूरो में आज तक एक भी दलित को स्थान नहीं मिल सका है। साफ है कि वामपंथी दल कहते कुछ रहे और करते कुछ और रहे। दलित-मुस्लिम एकता की पहल पहले भी हुई है और वह अगर कामयाब नहीं हुई तो इसका यह मतलब नहीं कि नए सिरे से ऐसी कोई पहल न की जाए। इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि दलित-मुस्लिम एकता की जैसी मजबूत राजनीतिक पहल मायावती ने की है वैसी पहले किसी ने नहीं की। दलितों में ऊर्जा का जो संचार हुआ और उन्हें अन्याय-उपेक्षा के खिलाफ तनकर खड़े होने का जो हौसला मिला उसका श्रेय मायावती को जाता है। वह अब दलितों और मुसलमानों की साझा ताकत को समाज परिवर्तन के लिए भी इस्तेमाल कर रही हैं। इस एकता से नई सामाजिक सृजनशीलता पैदा होगी, जिससे समतामूलक और शोषणमुक्त समाज बनेगा और संविधान के अनुसार समाज के आखिरी पायदान पर खड़े आदमी को भी इंसाफ मिल सकेगा।
[ लेखक बहुजन समाज पार्टी के सदस्य हैं ]