सामान्यत: तीर्थ अनेकार्थी शब्द है, जिसका केंद्रीय अर्थ है-पवित्र करने वाला। श्रीमद्भागवत में उल्लेख मिलता है कि संत और महापुरुष ईश्वरीय गुणों की परिपूर्णता के कारण ही परमतीर्थ कहे जाते हैं। इसी प्रकार स्कंद पुराण में भी कहा गया है कि तीर्थ करने का मुख्य प्रयोजन संत-महापुरुष और देव-दर्शन का लाभ प्राप्त करना ही होता है। यही कारण है जिस भू-भाग में संत-महात्मा निवास करते हैं वह तीर्थ कहलाता है। ऐसा कहा गया है कि संत-महापुरुष तीर्थ को सुतीर्थ, कर्म को सुकर्म और शास्त्रों को 'सत्शास्त्र' बना देते हैं, क्योंकि वे क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार की सभी वस्तुओं से प्राप्त होने वाले सुखों की अस्थिरता को समझकर मोह-वासनाओं से विरत और ईश्वरीय गुणों से युक्त होकर व सुखों की अस्थिरता को समझकर शांतचित्त होते हैं।

संतजन अपनी नैसर्गिक ऊर्जा से वास्तविक सत्संग के परिवेश का निर्माण करते हुए अपने सद्गुणों और सद्विचारों से हमारे मन में शुचिता का सृजन और संव‌र्द्धन करते हैं। यह मान्यता है कि जहां साधुजन सत्संग के माध्यम से श्रीहरि की कथा का गायन करते हैं, वहां सभी 'तीर्थ' आ जाते हैं। मानव-मन की चंचलता और स्वच्छंदता की नैसर्गिक विशेषता के कारण ही दर्शनशास्त्री 'मन' को उस जलाशय की भांति मानते हैं, जिसका स्थिर जल किंचित हवा से लहरों में परिवर्तित होकर गतिमान हो जाता है। मछली की भांति चंचल 'मन' को स्थिर और एकाग्र करते हुए संत-महापुरुष उसकी शुचिता पर विशेष बल देते हैं। मन को सप्तपुरियों की भांति सत्य, क्षमा, इंद्रिय-संयम, दया, प्रियवचन, ज्ञान और तप को भी 'सप्ततीर्थ' के रूप में 'मानस-तीर्थ' माना गया है। श्रीमद्भागवत में 'तीर्थद्वयम' के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि पवित्र जल से काया के वाह्य भाग को तो धोया जा सकता है, लेकिन बाहरी शुद्धता के साथ ही संत तुलसीदास के शब्दों में 'अभ्यंतर मल' को पवित्र करने के लिए ईश्वरीय प्रेम और भक्ति के 'जल' की परम आवश्यकता होती है। संत-दर्शन और संत-महापुरुषों के सद्वचन ही हमारे मन की शुद्धता के सुगम माध्यम हैं। मन की शुद्धता के माध्यम से ही हम जगत में व्याप्त अदृश्य सत्ता की अनुभूति करने में सक्षम हो सकते हैं।

[डॉ.राजेंद्र दीक्षित]