गंगा मात्र एक नदी नहीं, बल्कि राष्ट्र की जीवनधारा है। भारतीय मानस की अतल गहराइयों में गंगा बहती है। सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि 'मां' के रूप में निजी तथा सांस्कृतिक-सार्वजनिक जीवन को गंगा की धारा जीवंतता प्रदान करती है। गंगा के इसी महत्व को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करते हुए शुरू की गई 'नमामि गंगे' परियोजना पर हाल में अनेक सवाल खड़े किए गए हैं। निर्मल गंगा या एक प्रदूषण रहित नदी के रूप में गंगा के पुनर्जीवन से जुड़ी नमामि गंगे योजना मूर्तरूप लेने लगी है। लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार नमामि गंगे में अद्यतन प्रगति गंगा की विमान-हवाई मैपिंग योजना है, जो सर्वथा अभिनव प्रयोग है। गंगा के प्राचीन स्वरूप की वापसी और भविष्य में गंगा जल प्रबंधन तथा विकास के लिए बहुआयामी प्रयास में संस्थागत और जन-सहभागिता पर विशेष बल दिया जाएगा। 16वीं लोकसभा के चुनाव बाद भावी प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव क्षेत्र काशी में गंगा तट पर भावुक मन से कहा- मैं आया नहीं हूं, मुझे गंगा मां ने बुलाया है ...! प्रधानमंत्री मोदी की गंगा के प्रति यह भावपूर्ण आकुलता 'नमामि गंगे' कार्यक्रम के जरिये सामने आई तो इस पर राजनीतिक कटाक्ष होने लगे। खुद भाजपा के कुछ लोगों ने राजनीतिक स्वार्थों के कारण सवाल उठाए -'ऐसे तो गंगा पचास सालों में भी नहीं साफ होगी।' गंगा प्रदूषण मुक्ति के इस कार्यक्रम पर ऐसे ही अनेक बेतुके सवाल उठे हैं। गंगा में जल परिवहन की योजना और तटीय नगरों के लोगों, ग्रामीण और नगरीय निकायों को जोडऩे जैसे मुद्दों पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि गंगा में जहाज चलाने और प्रस्तावित बांधों से इसकी प्राणवायु सूख जाएगी। ये विवाद वे ही उठा रहे हैं, जो गंगा को बांधने का फैसला कर चुके हैं।

लंदन में टेम्स नदी की दुर्गति और फिर इसकी मुक्ति की कथा रोमांचित करती है, प्रेरक भी है। लंदन का सारा कचरा अपने में समाती टेम्स 19वीं सदी में दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदी बन गई। जैविक तौर पर इस नदी को मृत घोषित कर दिया गया। नदी तट पर भीषण दुर्गंध से लोग बिलबिला उठे। लोग टेम्स तट छोड़कर भागने को मजबूर हो गए। इस ऐतिहासिक नदी-त्रासदी ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। लंदन और पूरा देश एकजुट हो गया। खास बात यह है कि देश के युवा 'टेम्स को बचाने के युद्ध' में कूद पड़े। 'टेम्स बचाओ' जनांदोलन बन गया। लंदन में टेम्स के तट पर खड़ा मैं इस अभियान और जनांदोलन के जज्बे को नमन कर रहा था, क्योंकि आज की टेम्स का कलकल बहता, पारदर्शी जल मुझे गंगा की यादों के एक भंवर में छोड़ गया। प्रश्न था- क्या टेम्स की तरह गंगा सफाई का काम जनांदोलन बनेगा?

प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार की नमामि गंगे के लिए प्रतिबद्धता अगले पांच सालों के लिए 20 हजार करोड़ के बजट प्रावधानों से स्पष्ट है। परिलक्षित होता है कि नमामि गंगे की सफलता या कार्यान्वयन में धन की कोई कमी आड़े नहीं आएगी पर राजीव गांधी द्वारा 1986 में वाराणसी से प्रारंभ की गई 462 करोड़ लागत के गंगा ऐक्शन प्लान (गैप) के हश्र से सबक लेने की जरूरत है। इस योजना के प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरण के क्रियान्वयन पर तीस सालों में डेढ़ हजार करोड़ से अधिक पैसा बहाया जा चुका है। परिणाम सार्थक नहीं। इसलिए इस खर्च पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। नमामि गंगे का एक पहलू अत्यंत उपयोगी और सार्थक है कि कार्ययोजना से गंगा तट पर रहने वाले लोगों को भी जोड़ा जाएगा। सामाजिक संस्थानों, शहरी निकायों और पंचायती राज संस्थाओं को जोड़कर राज्य स्तर पर स्टेट प्रोग्राम मैनेजमेंट ग्रुप, गंगा टास्क फोर्स और त्रिस्तरीय निगरानी तंत्र के विकास का संकल्प पिछली योजना के पूर्ण सफल न हो पाने के कारणों का हल ढूंढने का उपयोगी प्रयास है। भले ही देर से सही, जनमानस को नमामि गंगे से जोडऩा जरूरी है।

देश के पांच राज्यों से होकर गुजरने वाली गंगा के तटवर्ती 58 संसदीय क्षेत्रों और पौने तीन सौ से अधिक विधानसभा क्षेत्रों के जन-प्रतिनिधियों और युवाशक्ति को नमामि गंगे से भावपूर्ण ढंग से जोडऩा इसलिए जरूरी है क्योंकि सिर्फ सरकारी नौकरशाही के बलबूते 10 साल में गंगा को पूर्ण प्रदूषण मुक्त करने का स्वप्न शायद ही पूरा हो सके। गंगा की सफाई का सवाल सिर्फ एक नदी की सफाई का छोटा सा सवाल नहीं है। यह तो संपूर्ण भारतीय जनमानस की आस्था के संरक्षण का प्रश्न है। विश्व स्वास्थ्य संगठन मानकों के अनुसार सुरक्षित घोषित प्रदूषण के स्तर से तीन हजार गुना अधिक दूषित गंगा के पानी को आचमन और पीने लायक बनाना एक बड़ी चुनौती है।

प्रश्न बड़े हैं -गंगा को बचाने सरकार तो आगे आई है पर लोगों का आगे आना अभी शेष है। गंगा किनारे के 29 बड़े और 48 मध्यम श्रेणी के नगरों, लगभग एक हजार गांवों-कस्बों के युवा जब तक गंगा को बचाने हेतु नहीं कूदेंगे, तब तक योजना की सफलता के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं है। जन-जन को नमामि गंगे से जोडऩा कठिन है पर असंभव नहीं।

गंगा मां है। हम गंगा को पूजते हैं। जन्म से मृत्यु तक गंगा हमारे जीवन से सीधे जुड़ी है। मैंने देखा है, गंगा पर बने पुलों से गुजरते हुए वाहनों और ट्रेनों से लोग गंगा में श्रद्धापूर्वक पैसा फेंकते हैं। काशी में किसी भी शुभ अवसर पर गंगा को आर-पार की माला चढ़ाते हैं। किसी नदी के प्रति पूरे विश्व में कहीं भी शायद ऐसा भावपूर्ण लगाव देखा जा सके। ऐसी जलधारा रूप 'गंगा माता ' को बचाने के लिए सरकार तो जागी ही है, अब गंगापुत्रों के जागने का यह उचित समय है। नमामि गंगे पर यह बहस या विवादों का नहीं, बल्कि सुझावों और समाधान का समय है। यह तो गंगा के सवाल पर अभूतपूर्व एकजुटता का समय है। समय है, यह सोचने का भी कि गंगा को हम सिर्फ सरकार पर या राजनीतिज्ञों के भरोसे नहीं छोड़ सकते।

[लेखक अमितांशु पाठक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]