मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए उसके लिए सभी हितों में लोकहित सबसे पहले है। यदि उसके किसी कार्य से दूसरे का अहित या नुकसान हो रहा है तो उसे वह कार्य नहीं करना चाहिए। मनुष्य को कभी स्वार्थी नहीं होना चाहिए, बल्कि हमेशा यही मानना चाहिए कि दूसरों के हित में ही उसका अपना हित है। जब व्यक्ति दूसरों के हितों की रक्षा करेगा तभी दूसरे भी उसके हित की रक्षा करेंगे। जिस समाज में ऐसे लोग निवास करते हैं वही समाज उन्नति करता है। जहां स्वार्थी और सिर्फ अपना हित चाहने वाले लोग रहते हैं वह समाज कभी प्रगति नहीं कर सकता। समाज ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिसने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की सार्वजनिक रक्षा के लिए खुद को कुछ नियमों से बांध लिया है। इसकी विशेषता है कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने हितों से बंधा है। व्यक्ति स्वभाव से स्वतंत्र भले ही हो, लेकिन समाज द्वारा बनाए गए नियमों का उसे पालन करना पड़ता है। इसलिए किसी समाज का भविष्य तभी उज्ज्वल होगा, जब नियमों का पालन होगा। ऐसे में व्यक्ति को समाज में रहते हुए अपने हितों की रक्षा करते समय यह ध्यान रखना होगा कि किसी अन्य को कष्ट न पहुंचे। मनुष्य के आचरण में लोक-परलोक का चिंतन शामिल होना चाहिए और ऐसा तभी संभव होगा जब मनुष्य स्वार्थी न हो। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि जगत की उन्नति में योगदान करने से वास्तव में हम लोग स्वयं उन्नति होते हैं। दुनिया में किसी को कुछ मिलता, लेकिन किसी को भी सब कुछ नहीं मिलता है। व्यक्ति को ज्यादा की चाह नहीं करनी चाहिए, बल्कि जो कुछ मिला है उससे ही संतोष करना चाहिए। मनुष्य को कभी किसी को दुख नहीं पहुंचाना चाहिए। अगर संभव हो तो दूसरों को भी सुखी बनाना चाहिए। अगर हम किसी को सुख नहीं पहुंचा सकते तो उसे दुख पहुंचाने का हमें कोई अधिकार नहीं है। धर्म का मूल दया है। भलाई करने से सबका भला होता है। सभी प्राणियों को सुख की अभिलाषा रहती है। मनुष्य वही है जो सबका भला करता है। उसका हृदय विशाल होता है। वह सभी को सुखी देखना चाहता है। अगर आपने अपने ज्ञान से किसी अज्ञानी की मदद नहीं की, किसी रोगी का उपचार नहीं किया, किसी भटके राही को सही रास्ता नहीं दिखाया तो आपका ज्ञान अर्जित करना व्यर्थ हो जाता है। वास्तव में परोपकार और लोकहित में कार्य करना ही असल मायने में ईश्वर की सेवा करना है।
[ महर्षि ओम ]