प्रो. श्रीराम अग्रवाल

नोटबंदी का इतिहास खासा पुराना है। अकबर की सेना जब किसी राज्य पर कब्जा करती तो वहां चलने वाली मुद्रा को बंद करके ही ‘अकबरशाही’ थोपती थी। शाहजहां ने अपने पिता जहांगीर द्वारा हिंदू ज्योतिष शास्त्र की 12 राशि चिन्हों से अंकित मुद्रा काबड़ी को कठोरता से बंद किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय देशों का अनुकरण करते हुए 1946 में भारत में भी नोटबंदी की गई थी। स्वतंत्र भारत में पहली बार 1978 में उच्च मूल्य वाले 1000, 5000 और 10,000 के नोटों का प्रचलन बंद कर मुद्रा परिवर्तन किया गया था। इस तरह पिछले साल हुई नोटबंदी भारत के लिए नई नहीं थी। एक तथ्य यह भी है कि आधुनिक विश्व इतिहास में कई देशों में नोटबंदी के फैसले के सदैव वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुए। 1982 में घाना और 1984 में नाइजीरिया में नोटबंदी से वहां की अर्थव्यवस्था ही चौपट हो गई थी। 1987 में म्यांमार की सैनिक सरकार के द्वारा की गई नोटबंदी के कारण लोगों का सरकार पर से विश्वास ही उठ गया और उन्होंने विदेशी मुद्रा में लेन-देन प्रारंभ कर दिया था। 2016 में ही भारत के बाद वेनेजुएला में भी नोटबंदी की गई, लेकिन जन आक्रोश के कारण दो दिन बाद ही उसे वापस ले लिया गया। आखिर वे ऐसे कौन से कारण रहे कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश भारत में अचानक 88 प्रतिशत मुद्रा चलन से बाहर होने के बाद भी लोगों ने प्रधानमंत्री पर अपना पूरा भरोसा व्यक्त किया? प्रधानमंत्री पर भरोसा जताने के साथ ही लोग बैैंकों और एटीएम के सामने घंटों कतार में खड़े रहने के बाद भी अनुशासित बने रहे। कोई बैंक नहीं लूटा गया, कोई एटीएम नहीं तोड़ा गया। इतना ही नहीं विपक्ष की तमाम कोशिश के बाद भी कोई जन आंदोलन नहीं हुआ।


भले ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ विपक्ष के अन्य नेताओं और अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले कुछ अर्थशास्त्रियों ने नोटबंदी के फैसले को आत्मघाती और घोटाले का नाम दिया हो, लेकिन आम जनता ने अपनी धारणा नहीं बदली। उसने उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी जीत दिलाई। स्पष्ट है कि उस जन मनोविज्ञान को गहराई से समझना होगा जिसके कारण न केवल नोटबंदी की अवधि में अपितु उसके बाद भी आम जनता मोदी सरकार के साथ खड़ी रही। 2017 के अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री रिचर्ड थेलर के व्यवहारवादी अर्थशास्त्र में यह स्थापित किया गया है कि कई परिस्थितियों में व्यक्ति वैसा आर्थिक व्यवहार नहीं करता जैसा प्रचलित आर्थिक सिद्धांतों और नियमों के अनुरूप अपेक्षित होता है। बहुत से गैर आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारक भी लोगों के आर्थिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। थेलर ने ट्वीट के जरिये भारत में नोटबंदी को कारगर कदम भी बताया था।
जन मनोविज्ञान को समझने के लिए हमें नोटबंदी के फैसले से कम से कम चार-पांच वर्ष पहले के तात्कालिक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश का संदर्भ भी लेना होगा। यह भी देखना होगा कि नोटबंदी की घोषणा के पहले मोदी सरकार ने दो वर्ष की अल्पअवधि में भ्रष्टाचार और कालेधन की अर्थव्यवस्था के उन्मूलन हेतु उठाए गए कुछ कदमों के द्वारा अपने संकल्प की दृढ़ता के प्रति अच्छा-खासा जन विश्वास अर्जित कर लिया था। मोदी सरकार ने ऐसे कई संवैधानिक और प्रशासनिक कदम उठाए जिसके परिणामस्वरूप आम लोगों को यह विश्वास होने लगा कि यह सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर एक स्वच्छ प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था प्रदान करने की अपनी वचनबद्वता की ओर उन्मुख है। अक्टूबर 2014 में प्रधानमंत्री के द्वारा किए गए विशेष प्रयासों से फरवरी 2015 में स्विस बैकों से प्रमुख भारतीयों के गुप्त खातों की जानकारी प्राप्त हुई। इसके बाद जनधन खाते खोलने की योजना लाई गई। मई 2015 में बेनामी संपत्ति अधिनियम में कारगर संशोधन प्रस्तुत किया गया और उसे नोटबंदी के ठीक पहले एक नवंबर 2016 से लागू कर दिया गया। इस तरह बेनामी खातों, बेनामी संपत्ति खरीद और बेनामी कंपनियों में कालाधन खपाने वाली समांतर अर्थव्यवस्था के मूल पर प्रहार किया गया। मार्च 2016 में आधार संख्या को कानूनी मान्यता प्रदान की गई। सब्सिडी को सीधे लाभार्थी के खाते में हस्तांतरित कर बिचौलियों का वर्चस्व समाप्त किया गया। नोटबंदी के पूर्व रणनीतिक तैयारी के रूप में उपरोक्त योजनाओं के लागू होने के कारण आम जनमानस इस बात के प्रति पूर्णरूप से आश्वस्त हो चुका था कि नोटबंदी के समय और थोड़े समय बाद तक की अल्पकालीन परेशानियां और हानियां उन्हें और उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों को दीर्घकालीन लाभ प्रदान करने वाली हैं। नोटबंदी की घोषणा के कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने अघोषित आय की स्वैच्छिक घोषणा कर करवंचकों को एक अवसर दिया था। नोटबंदी की घोषणा के उपरांत भी इस योजना को विस्तारित किया गया। प्रारंभ में यह वर्ग येन-केन-प्रकारेण अपने कालेधन को बचाने में लगा रहा। उसकी ओर से सोने की खरीद की गई और बेनामी कंपनियों एवं बंद पड़े बैंक खातों में पैसा जमा करवाया गया। भारतीय सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं के संदर्भ में बाजार मनोविज्ञान की दृष्टि से इस सबको देखा जाए तो यह स्वाभाविक ही लगेगा। यह स्पष्ट है कि नोटबंदी की योजना पर बड़े गोपनीय तरीके से काफी समय से मंथन चल रहा था। यदि पूर्व आरबीआइ गवर्नर अपने कार्यकाल में इसके लिए सहमत हो जाते तो संभवत: अप्रैल 2016 में ही उसे लागू किए जाने की योजना रही हो। चूंकि सरकार की मंशा लोगों को परेशान या दंडित करने की नहीं, अपितु उन्हें अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने का पर्याप्त अवसर देकर पूर्ण ईमानदारी और पारदर्शिता से व्यापार करने एवं नियमानुसार कर आदि का भुगतान कर अर्थव्यवस्था की उन्नति में सकारात्मक योगदान के मनोभाव जाग्रत करने की रही इसलिए उसने लोगों को अपेक्षित अवसर दिया। उसने समय-समय पर ऐसे संकेत भी दिए कि कालेधन वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाए जाएंगे।
नोटबंदी के बाद जीएसटी लागू करके सरकार ने अर्थव्यवस्था को स्वच्छ कर विकासोन्मुख एवं लोक कल्याणकारी बनाने के अपने राज-धर्म का पालन ही किया है। अगर विपक्ष नोटबंदी की सफलता को राजनीतिक और आर्थिक संकेतकों या फिर आंकड़ों के स्थान पर पहले की सरकारों के कार्यकाल में भ्रष्टाचार और कालेधन से पोषित समानांतर अर्थव्यवस्था के प्रति जन आक्रोश की भावना के आलोक में देखे तो उसे स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों उसके भरपूर उकसाने के बावजूद भारतीय जनमानस ने नोटबंदी के विरुद्ध कोई मोर्चा खोलने के स्थान पर उसे अपना समर्थन और सहयोग प्रदान किया। वास्तव में नोटबंदी राष्ट्रीय आर्थिक आचरण के सुधार हेतु दुनिया के तमाम देशों के लिए एक स्मरणीय एवं अनुकरणीय उदाहरण है।
[ लेखक बुंदेलखंड विवि में अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष रहे हैैं ]