प्रियंका गांधी वाड्रा के राजनीति में प्रवेश को लेकर अटकलें लगती ही रहती हैं। हाल में ऐसी खबरें आई हैं कि कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव में प्रियंका को पूरे दमखम से उतारने की योजना बना रही है और उन्होंने राज्य के नेताओं से मुलाकात भी की है। हालांकि इस बारे में कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन यह तथ्य है कि यदा-कदा कांग्रेसजनों की ओर से प्रियंका के राजनीति में सक्रिय रूप से आगे आने की मांग उठती रहती है। वह पिछले काफी समय से केवल अपने परिवार के प्रत्याशियों-अमेठी से भाई राहुल गांधी और रायबरेली से मां सोनिया गांधी के लिए ही चुनाव प्रचार करती दिखी हैं। चुनाव प्रचार के अलावा वह कभी-कभी अमेठी और रायबरेली के दौरे पर भी आती हैं। ऐसे मौकों पर बहुत से लोगों और खासकर कांग्रेस समर्थकों को उनमें उनकी दादी और भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की छवि और तेवर दिखाई देते हैं। लोगों को लगता है कि यदि कांग्रेस को देश में और खास तौर से उत्तर प्रदेश में पुनर्जीवित करना है तो प्रियंका गांधी जैसी एक तेज-तर्रार और स्वीकार्य नेता का आगे आना बहुत जरूरी है। अगले वर्ष उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने हैं। इन चुनावों को लेकर सभी राजनीतिक दल तैयारियां शुरू कर चुके हैं। समाजवादी पार्टी ने तो अपने कई उम्मीदवार भी घोषित कर दिए हैं। बसपा भी जल्द ही ऐसा कर सकती है। कांग्रेस ने भी इस बार कुछ नए तरह से शुरुआत की है। पार्टी ने नरेंद्र मोदी को लोकसभा और नीतीश कुमार को बिहार में भारी सफलता दिलाने वाले राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं ली हैं।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस लगभग 27 वर्षों से सत्ता से बाहर है। दिसंबर 1989 में जनता दल के नेता के तौर पर मुलायम सिंह यादव ने तत्कालीन कांग्रेसी नारायण दत्त तिवारी से मुख्यमंत्री की कुर्सी छीनी थी। तबसे कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी वापसी नहीं कर पाई। जाहिर है कि इससे कांग्रेसी खेमे में बेचैनी और मायूसी है। ताज्जुब यह है कि इसके बावजूद कांग्रेस प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कोई ठोस कदम उठाती नहीं दिखाई देती। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार एकदम समाप्त हो गया है। इसका प्रमाण 2009 का लोकसभा चुनाव था, जिसमें उसे अप्रत्याशित सफलता मिली थी। पिछले चार चुनावों पर ध्यान देने से यह महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने सभी दलों को समान अवसर दिया है। 2007 में बसपा की मायावती को, 2012 में सपा के अखिलेश को और 2014 में भाजपा के नरेंद्र मोदी को। 2009 में उसने कांग्रेस को भी खासा अवसर दिया था। तब के लोकसभा चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए वापसी का अद्भुत संकेत थे। कांग्रेस अपनी नौ लोकसभा सीटों में छह सीटें हार गई थी और केवल तीन सीटें अमेठी, रायबरेली और कानपुर बचा सकी थी, लेकिन उसने 18 नई लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया था।

2007 के विधानसभा चुनावों की तुलना में 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने समाज के सभी वर्गों (उच्च-जातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग, दलितों और मुस्लिमों) में अपना जनाधार बढ़ाया और उसी के चलते, पिछले विधानसभा के मुकाबले उसे कुल 18.4 प्रतिशत अर्थात 10 प्रतिशत ज्यादा मत मिले थे और 21 लोकसभा सीटें जीतने में सफलता मिली थी। पिछले लोकसभा चुनाव में उसे केवल दो सीटें अमेठी और रायबरेली की ही मिलीं। स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस को बहुत जनसमर्थन जुटाना होगा। यक्ष प्रश्न यह है कि उत्तर प्रदेश में वापसी के लिए वांछित लगभग 25 से 30 प्रतिशत वोट कांग्रेस लाएगी कहां से? इसके लिए पार्टी संगठन, जन-समर्थित प्रत्याशी और आकर्षक नेतृत्व बहुत जरूरी है। कांग्रेस को इन तीनों पर ध्यान देना होगा। कांग्रेस एक 'ब्रांड' है और उसे अपने बारे में बहुत बताने की जरूरत नहीं। केवल एक कुशल रणनीति से बहुत कुछ बदल सकता है। प्रियंका गांधी कांग्रेस में एकमात्र ऐसी शख्सियत हैं जो उत्तर प्रदेश में उर्जावान नेतृत्व दे सकती हैं। अनेक लोग और खासकर कांग्रेसी प्रियंका को राजनीति में लाने से इसलिए परहेज करते हैं कि कहीं उससे राहुल गांधी का राजनीतिक कॅरियर न प्रभावित हो जाए, लेकिन उत्तर प्रदेश में प्रियंका के आने से राहुल के राष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिका पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

प्रियंका एक अच्छी वक्ता भी हैं। उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों में वाणी का कौशल बहुत प्रभाव डालने वाला है। इसका कारण यह है कि अब चुनाव प्रचार का चरित्र अमेरिका की तरह अध्यक्षात्मक होता जा रहा है, जिसमें लोग पार्टी के नेता पर ज्यादा और स्थानीय प्रत्याशियों पर कम ध्यान देते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश कोई अच्छे वक्ता नहीं। भाजपा संभवत: स्मृति इरानी को उतार सकती है जो अच्छी वक्ता हैं। इनके मुकाबले कांग्रेस के पास कोई भी मैचिंग बल्लेबाज़ नहीं हैं। प्रियंका कांग्रेस के लिए एक गेम-चेंजऱ हो सकती हैं जो न केवल अच्छी वक्ता है वरन कांग्रेस में ऊर्जा का संचार कर सकती हैं और लोगों के आकर्षण का केंद्र भी बन सकती हैं जो कांग्रेस को वोट दिला सकता है। अब सवाल उठता है कि कांग्रेस को वोट देगा कौन?

यह सत्य है कि विगत 26-27 वर्षों में कांग्रेस का मतदाता खिसक कर दूसरे दलों में चला गया है, लेकिन राजनीति में किसी सामाजिक वर्ग को कोई भी पार्टी अपना स्थायी वोट-बैंक समझने की भूल नहीं कर सकती अन्यथा 2014 में भाजपा को कौन वोट देता? भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने बहुत प्रयास कर अपने को जनता से कनेक्ट किया और जनता का प्रचंड समर्थन प्राप्त किया, लेकिन उसके लिए उनके पास विकास और समावेशी राजनीति का एजेंडा था। क्या उत्तर प्रदेश के मतदाता के लिए कांग्रेस के पास ऐसा कोई एजेंडा है? यदि नहीं तो उसे कोई एजेंडा बनाना पड़ेगा। संभव है कि वे तमाम मतदाता जो मायावती और मुलायम-अखिलेश से त्रस्त हैं उनको एक वैकल्पिक मंच मिल जाए। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अप्रत्याशित सफलता से यह देखा जा सकता है कि कभी-कभी मतदाता को नए विकल्प भी बहुत भाते हैं, लेकिन उसे उस विकल्प में संभावनाए तो दिखे! क्या कांग्रेस प्रियंका के माध्यम से जनता को ऐसा कोई विकल्प दे सकेगी? प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने में कांग्रेस को किस बात का भय है? यदि गांधी परिवार ही कांग्रेस की नियति है तो फिर देश में राहुल और प्रदेश में प्रियंका फार्मूले को पार्टी आजमा सकती है। उत्तर प्रदेश का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य जिसमें कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं, अखिलेश सरकार को दोबारा सत्ता देने में जनता संशय में है और मायावती की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के चलते प्रादेशिक राजनीति में पैठ कम हुई है, प्रियंका को राजनीति में लाने का एकदम सही वक्त है।

[ लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]