राम नाम का प्रभाव सभी युगों, सभी शास्त्रों में कहा गया, किंतु कलियुग में तो और कोई उपाय ही नहीं! राम नाम की यह अनिवार्यता महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस और विनय पत्रिका दोनों जगह रेखांकित की है। उनके अनुसार राम नाम वह साधन है जिससे ‘सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे’। यही नहीं जब तक जीव अपनी जिह्वा से राम नाम नहीं जपता तब तक वही दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों तापों से जलता रहेगा। यही बात संत कबीर ने भी कही, ‘कहै कबीर तू लूट ले, राम नाम भंडार। काल कंठ जब गहे, रोके दसहुं द्वार।’ तुलसी और कबीर केवल उदाहरण हैं। भारत में अनगिनत ज्ञानियों, कवियों, चिंतकों ने इस सत्य को असंख्य रूप में समझाया है। मगर आज कुछ बुद्धिजीवी राम नाम की महत्ता को तथा ऐसी बातों को अंधविश्वास कह कर हटा देते हैं मानो आधुनिक जीवन के कर्तव्य, संघर्ष या उन्नति में इसका कोई स्थान नहीं है। वहीं रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि हम नए युग के मनुष्य हैं जिसमें भोग, अहंकार के साथ धर्म को भी एक श्रेणी में देखा जाता है, किंतु यह भ्रम है। टैगोर ने ध्यान दिलाया था कि शताब्दियां बीतती गईं, लेकिन भारत में रामायण-महाभारत का स्त्रोत तनिक भी नहीं सूखा, क्योंकि यह श्रद्धा ही नहीं, बल्कि व्यवहार-बुद्धि की बात भी है।
महाकवि निराला लिखते हैं, ‘राम के हुए तो बने काम, संवरे सारे धन, धान धाम।’ वर्तमान बुद्धिवादियों के संदेह को संबोधित करते हुए निराला वहीं जोड़ते हैं, ‘पूछा जग ने, वह राम कौन? बोली विशुद्धि जो रही मौन, वह जिसके दून न ड्योढ़-पौन, जो वेदों में है सत्य, साम।’ कवि व चिंतक अज्ञेय ने राम कथा के अनुरूप उन सभी स्थानों की विशेष यात्राएं आयोजित की, जहां-जहां राम के चरण पड़े थे। उनके साथ पंद्रह महत्वपूर्ण लेखक, कवि भी थे। यह प्रयत्न जितना अपनी ज्ञान तुष्टि के लिए था उतना ही सामाजिक, साहित्यिक लक्ष्य के लिए भी ताकि नए लेखक और पाठक भी राम कथा से जुड़ी भारतीय आत्मा को पहचानें, उसकी गंभीरता समझें। अज्ञेय की अनूठी पुस्तक जय जनक जानकी इसी सीय-राममय यात्रा का ही आकलन है। उन्होंने पाया कि रामायण का सत्य ऐसे विराट सत्य का संकेत दे रहा है जो ज्ञान-विज्ञान से बड़ा है जो चेतना के स्तर का सत्य है। अत: पीछे जाएं या अभी देखें, भारत में राम नाम की महत्ता किसी धार्मिक विश्वास की नहीं, बल्कि चेतना का विषय है।
[ शंकर शरण ]