नई दिल्ली [ अभिनव प्रकाश ]। यह 1817 के उत्तरार्द्ध की बात है जब करीब-करीब यह तय हो गया था कि तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध अब किसी भी सूरत में नहीं टाला जा सकता। लड़ाई के लिए भारत में तब तक की सबसे बड़ी ब्रिटिश-सेना एकत्र हो चुकी थी जिसमें 1,20,000 सैनिक थे। मराठा-साम्राज्य अठारहवीं शताब्दी मेें भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक और सामरिक शक्ति थी। वह एकमात्र ऐसी शक्ति भी थी जो भारत में बढ़ते यूरोपीय दखल को रोकने में सक्षम थी, लेकिन द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध में पराजय के बाद मराठा शक्ति का पराभव होता गया। मराठा शक्ति पेशवा, सिंधिया, होल्कर और अन्य क्षत्रपों के आपसी विवाद से और भी कमजोर हो रही थी। युद्ध में पेशवा बाजीराव-द्वितीय को लगातार हार का सामना करते हुए पुणे से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा, लेकिन दिसंबर के अंत में पेशवा ने पुणे को अंग्रेजी नियंत्रण से मुक्त करने के लिए 20,000 से 28,000 सैनिकों की सेना के साथ कूच किया जिसकी सूचना मिलते ही पास के ही शिरूर से करीब 900 सैनिकों की ब्रिटिश टुकड़ी को पुणे तलब किया गया, लेकिन इससे पहले कि वह पुणे पहुंचती, पेशवा की सेना और कैप्टन फ्रैंसिस स्टैंटोन के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना भीमा-कोरेगांव में अकस्मात आमने-सामने आ गई।

1818 में अंग्रेजों ने भीमा-कोरेगांव में एक विजय स्तंभ की स्थापना की

एक जनवरी 1818 को हुए भीमा-कोरेगांव युद्ध में ब्रिटिश सेना ने पेशवा की सेना के करीब दो-तीन हजार वाले अग्र-दल को भी जीतने नहीं दिया। युद्ध में किसी भी पक्ष की कोई निर्णायक हार या जीत नहीं हुई और ब्रिटिश सेना वापस शिरूर की तरफ लौट गई। पेशवा की सेना भी जनरल जोसेफ स्मिथ के नेतृत्व में और बड़ी फौज आने की आशंका से पीछे हट गई, लेकिन ब्रिटिश सेना ने अपनी दृढ़ता से जिस तरह पेशवा की सेना को जीतने नहीं दिया वह अपने आप में ही एक जीत ही थी। इसी कारण बाद में अंग्रेजों ने भीमा-कोरेगांव में एक विजय स्तंभ की स्थापना की। इस विजय स्तंभ पर ब्रिटिश सेना के 49 मृतकों के नाम भी दर्ज कराए गए, जिनमें से 22 महार जाति के सैनिकों के नाम हैैं।

ब्रिटिश पक्ष में लड़े और मारे गए महार जाति के लोगों की संख्या अधिक थी

महार महाराष्ट्र की प्रमुख दलित जातियों में से एक है। चूंकि ब्रिटिश पक्ष में लड़े और मारे गए लोगों में महार जाति के लोगों की संख्या काफी अधिक थी इसलिए यह युद्ध और विजय स्तंभ उनके परिवारजनों, समाज और बाद में महार रेजिमेंट के सैनिकों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल बन गया। इलाके के महार और अन्य दलितों की याद में भीमा-कोरेगांव उनके शौर्य और साहस की गाथा रही है, न कि ब्रिटिश साम्राज्य की विजय का जश्न। हर साल वहां हजारों की संख्या में लोग एकत्र होते रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में भारतीय सेना के पूर्व सैनिक भी शामिल होते हैं। 1927 में यहां डॉ. भीमराव अंबेडकर के आगमन के बाद यह दलित चेतना में पूर्व की सामंती और जातिवादी व्यवस्था के संघर्ष के प्रतीक के रूप में और अधिक स्थापित होता गया। इस साल इस युद्ध की 200वीं बरसी थी, लेकिन अभी तक हर साल शांतिपूर्ण और बिना किसी विवाद के होने वाला यह जलसा हिंसा में तब्दील हो गया। इसके बाद से इस पूरी घटना को एक दूसरा ही मोड़ देने की कोशिश की जा रही है।

दलितों ने जातिवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए जंग लड़ी
भीमा-कोरेगांव को इस तरह से एक जाति युद्ध का जामा पहनाया जा रहा है कि उसमें दलितों ने ब्राह्मण पेशवा और जातिवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए जंग लड़ी थी। यह अजीब दावा है, क्योंकि असली जंग में ब्रिटिश पक्ष से अगर महार लड़े थे तो पेशवा के अग्र-दल में मुख्यत: अरब मुस्लिम लड़ाके शामिल थे। तो क्या इसको दलित-मुस्लिम जंग बताना ज्यादा उचित नहीं होगा? या फिर इसे वही कहा जाए जो यह था? एक आंग्ल-मराठा युद्ध जिसमें अंग्र्रेजों की तरफ से महार, मराठा और अन्य जातियों के लोग शामिल थे तो पेशवा की सेना में भी मराठा, मुस्लिम, गोंसाई, महार इत्यादि और यहां तक कि पुर्तगाली भी शामिल थे। अगर ब्रिटिश पक्ष से महार जाति के लोगों द्वारा लड़ने से यह दलितों की पेशवा के खिलाफ सामाजिक न्याय जंग हो जाती है तो पेशवा की ओर से मतंग, मंग और अन्य दलित जातियां लड़ीं तो क्या यह अंग्र्रेजों के खिलाफदलितों की राष्ट्रवादी जंग हो गई?

पेशवा के सामंतवादी राज में दलितों की हालत खराब थी
इतिहास पर वर्तमान की राजनीति का जामा पहनाने से ऐसी ही तर्कहीन स्थितियां उत्पन्न होती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि पेशवा के सामंतवादी राज में दलितों की हालत बेहद खराब थी। चितपावन कुल से आने वाले पेशवा तो देसस्थ और अन्य ब्राह्मणों को भी नीचा समझते थे, लेकिन यह कहना कि अंग्र्रेजों के आने के बाद दलित अपनी मुक्ति की खातिर उनकी सेना में शामिल हो गए व्यर्थ का प्रलाप है। चूंकि ब्रिटिश सेना में तो इससे भी बड़ी संख्या में राजपूत और ब्राह्मण जाति के सैनिक शामिल थे तो वे वहां किससे मुक्ति के लिए गए थे? असल में अंग्रेजों को अपनी सेना के लिए सैनिक चाहिए थे फिर चाहे वे पठान हों, राजपूत हों, महार हों या कोई और। महार तो शिवाजी के समय से ही मराठा साम्राज्य की फौज में बड़ी संख्या में मौजूद थे और बाद में पेशवा राज में भी महारों को किलों का नायक बनाने और जागीरें देने का भी वर्णन मिलता है।

अंग्रेजों ने 1892 में दलितों को सेना में भर्ती पर पूर्ण रूप से रोक लगा दी थी
इसके विपरीत अंग्रेजों ने महारों को 1857 के बाद दरकिनार करना शुरू कर दिया था और 1892 में दलितों को सेना में भर्ती पर पूर्ण रूप से रोक भी लगा दी थी। फिर प्रथम विश्व युद्ध के समय यह रोक हटाई और उसके बाद पुन: लगा दी। अंग्रेजों को न तो दलितों और न ही किसी अन्य सामाजिक तबके की लड़ाई लड़ने या किसी को सामाजिक न्याय दिलाने से मतलब था जैसा कि आज छल पूर्वक प्रचारित किया जा रहा है, बल्कि वे तो पूरी तरह से अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए थे। तो इस बार विवाद और हिंसा क्यों हुई? अगर हम गौर करें यह एक खास तरह का सिलसिला है। हरियाणा में जाट सड़कों पर उतरे थे तो राजस्थान में राजपूत। यह भी देखें कि गुजरात में पटेल समुदाय को तो कर्नाटक में लिंगायत समाज को भड़काया जा रहा है।

2019 के चुनावों को लेकर जाति युद्ध भड़काना
चूंकि महाराष्ट्र में मराठा मोर्चा पहले से ही आरक्षण की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहा है इसलिए अब महारों के साथ संघर्ष को तूल देकर माहौल बिगाड़ा जा रहा है। इसमें महार-मराठा के बीच अरसे से चली आ रही तनातनी ने आग में घी का काम किया। आने वाले समय में अन्य राज्यों में भी इसी तरह से किसी प्रभावशाली जाति को भड़का कर अशांति का माहौल बनाया जा सकता है, क्योंकि यह जो हो रहा है वह एक तरह से 2019 के चुनावों की तैयारी है। कुछ राजनीतिक दल शायद यह मान बैठे हैैं कि भाजपा के निरंतर बढ़ रहे विजय रथ को रोकने का एकमात्र रास्ता इसी प्रकार का जाति युद्ध भड़काना है। ध्यान रहे इसका सफल परीक्षण गुजरात चुनाव में हो भी चुका हैं।


[ लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]