प्रार्थना मनुष्य की आत्मा का भोजन है। इसे जीवन का अनिवार्य अंग होना चाहिए। आत्मबल की उपलब्धि इसके बिना संभव भी नहीं। प्रार्थना मानव जीवन का सर्वाधिक सशक्त व सूक्ष्म एक ऐसा ऊर्जा-स्रोत है जिसे कोई भी उत्पादित-अभिवर्धित करके अपने को प्राणवान और प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों की श्रेणी में सम्मिलित कर सकता है। हमारी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए ऋषियों ने तीन प्रकार के मार्ग चयनित किए हैं-कर्म, चिंतन और प्रार्थना। तीनों के समन्वित प्रयासों के माध्यम से ही जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होती है। प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य प्रथम दो मार्गों पर चलने का तो प्रयास करता है, परंतु अति महत्वपूर्ण प्रार्थना पक्ष को विस्मृत कर बैठता है। चिंतन और क्रिया के सामान्य जीवनक्रम से जुड़े रहने पर अपने अस्तित्व का वास्तविक ज्ञान आसानी से हो जाता है, पर विकृतियों को छुड़ाने के लिए प्रार्थना का ही सहयोग लेना पड़ता है। प्रार्थना को प्रभावशाली बनाना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। प्रार्थना के कुछ सामान्य नियम हैं-जीवन व्यापार के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभु की साझेदारी को अति प्रमुखता देना।
इसके सहारे कर्तव्यों के प्रति जागरूकता बनी रहती है और दूरदर्शिता का विकास चलता रहता है। प्रभु की उपस्थिति का सतत् आभास प्रार्थना में होना चाहिए। यह प्रार्थना मानव जीवन को ऊंचा उठाती है। आत्मोत्कर्ष के मार्ग में आगे-आगे कदम बढ़ा सकना कोई कठिन कार्य नहीं है। प्रार्थना में अंत:करण की गहराई से प्रभु को पुकारिए, वह इतनी भावनापूर्ण हो जिससे प्रभुसत्ता का अनुदान, वरदान, स्नेह, सहयोग के रूप में टपकता-बरसता स्पष्ट दिखाई दे। अंत:करण से की गई सच्ची पुकार को परमात्मा कभी अनसुनी नहीं करता। वह अपना परिचय अंतस चेतना में उठती सद्प्रेरणाओं, सद्भावनाओं के रूप में शीघ्र देता है। बाद में प्रत्यक्ष सहयोग-सहकार भी सर्वत्र बरसने लगता है। प्रार्थना के साथ दूसरों के कल्याण की भावना भी सन्निहित हो तभी उसका उत्तर प्राप्त होता है। समर्थ सत्ता के समक्ष अपनी इच्छा-आकांक्षा रखते समय इस बात का ध्यान रखें कि उसमें कहीं संकीर्ण स्वार्थपरता तो प्रवेश नहीं कर रही है। प्रार्थना का आखिरी सूत्र यह है कि अपना अनहित चाहने-सोचने वालों के प्रति भी सद्भावना का भाव बनाए रखना। उन्हें सन्मति मिले, इसकी प्रार्थना करना।
[ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]