बीते दिनों दुनिया दो महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी बनी, मगर विश्व पटल पर हुए दो अहम परिवर्तनों में पूरा ध्यान सिर्फ एक ही घटना पर केंद्रित रहा। यह घटना थी अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप का शपथ ग्रहण और उसके बाद उठाए गए उनके कुछ कदम। इसी दौरान विश्व आर्थिक मंच पर चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के भाषण को उतनी तवज्जो नहीं दी गई जबकि यह घटना भी कम महत्व की नहीं थी। चीन के शीर्ष नेता चिनफिंग ने अपने भाषण में खुलकर भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार का समर्थन किया। इसे हाल के वर्षों में दुनिया के किसी भी प्रमुख नेता द्वारा भूमंडलीकरण की सबसे जोरदार वकालत करार दिया जा सकता है। यह इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है कि विश्व पटल पर अभी तक यह भूमिका अमेरिका की हुआ करती थी। यह वैश्विक स्तर पर बदलते हुए समीकरणों का नतीजा है। भले ही इस पर बहुत लोगों की नजर नहीं गई हो, लेकिन क्रय शक्ति क्षमता यानी पीपीपी के आधार पर चीन आज विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। 1992 में सकल विश्व उत्पाद में अमेरिका का 20 प्रतिशत हिस्सा था और चीन का 5 प्रतिशत। मगर 25 वर्षों के भीतर आज सकल विश्व उत्पाद में चीन का करीब 18 प्रतिशत हिस्सा है और अमेरिका का 16 प्रतिशत। आर्थिक संतुलन बदलने से जल्द ही सामरिक संतुलन भी बदलने लगेगा। आखिरकार स्वयं अमेरिका भी 1890 में ब्रिटेन को पछाड़ते हुए हुए विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया था, परंतु सामरिक महाशक्ति के रूप में उसे मान्यता 1940 के दशक में ही मिल पाई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन से अमेरिका को सत्ता-हस्तांतरण पश्चिमी सभ्यता के ढांचे में ही एक ऐंग्लो-सैक्सन शक्ति से मूलत: दूसरी ऐंग्लो-सैक्सन शक्ति को ही हुआ हस्तांतरण था। इसके विपरीत अमेरिका से चीन की ओर आर्थिक और सामरिक शक्ति का खिसकना 500 वर्षों के एकछत्र पश्चिमी वर्चस्व के पराभव का परिचायक है।
चीन सिर्फ अमेरिका से अलग एक देश ही नहीं, अपितु एक अलग सभ्यता भी है जो अपने प्राचीन और निरंतर स्वरूप में भारत जैसी ही है, मगर भारत के विपरीत चीन इतिहास में अधिकांश समय स्वयं को एक एकीकृत राजनीतिक इकाई बनाए रखने में सफल रहा है और चीन की राज्य व्यवस्था हमेशा अपने दर्शन और सिद्धांतों पर टिकी रही है। चीन पर भी बाहरी हमले होते रहे और मध्यकालीन दौर में शताब्दियों तक विदेशी शासकों ने उस पर राज भी किया है, लेकिन वे चीन की राज्य व्यवस्था और राजनीतिक विचारों पर कभी अपनी व्यवस्था नहीं थोप पाए जो हमेशा चीन के पारंपरिक और सभ्यतागत विचारों पर ही केंद्रित रही है। उलटे उन्हें ही चीन की व्यवस्था को आत्मसात करना पड़ा। हेनरी किसिंग्जर इस तथ्य का जिक्र करते हुए कहते हैं कि दुनिया में चीन के अलावा कोई भी ऐसा देश नहीं हैं जहां नेता और सेना के जनरल आधुनिक युद्धों की योजना बनाते समय प्राचीन युद्धों और घटनाओं का सहजता से जिक्र करते हों। हजारों सालों की यह अटूट सामरिक और राजनीतिक परंपरा चीन को पश्चिम का सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी बनाती हैं। जबकि वी एस नायपॉल के शब्दों में भारत ‘एक आहत सभ्यता’ है जिसकी विश्वगुरु जैसी आत्मश्लाघा और महाशक्ति बनने की बड़ी-बड़ी बातों को कोई भी गंभीरता से नहीं लेता। यह मानने का कोई कारण नहीं हैं कि चीन पश्चिम द्वारा बनाई गई मौजूदा विश्व व्यवस्था को ज्यों का त्यों मान लेगा और वह इसे अपने अनुसार परिवर्तित करने की कोशिश नहीं करेगा, लेकिन फिलहाल चीन अपनी आर्थिक प्रगति के लिए पश्चिम पर ही निर्भर है। चीन की आर्थिक प्रगति का मॉडल निर्यात पर टिका है जिसके लिए मुक्त-व्यापार की व्यवस्था बेहद जरूरी है।
शीत-युद्ध के चरम पर सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के रिश्ते बेहद खराब हो गए थे। अमेरिका ने इसका फायदा उठाते हुए सोवियत संघ की घेराबंदी करने हेतु चीन से दोस्ती गांठ ली। इस नए रिश्ते का एक महत्वपूर्ण पक्ष अमेरिका समेत पश्चिमी देशों द्वारा अपने बाजार चीनी उत्पादों के लिए खोलना था। देंग श्याओपिंग के सत्ता संभालने के बाद जब चीन ने माओ की समाजवादी नीति को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक कर पूंजीवादी व्यवस्था को अपनाया तो मानव इतिहास के सबसे बड़े और तेज रफ्तार उद्योगीकरण और आर्थिक प्रगति का आरंभ हो गया। भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार ने चीन को खुद को ‘विश्व की फैक्टरी’ के तौर पर स्थापित करने का अवसर दिया और यही निर्यात आधारित उद्योगीकरण चीन की अप्रत्याशित आर्थिक प्रगति की आधारशिला बना। पश्चिमी देश सस्ते उत्पादों के लिए भी चीन पर निर्भर हुए। इस परस्पर निर्भरता ने चीन को पश्चिम और खास तौर पर अमेरिका से तमाम मतभेदों और प्रतिद्वंद्विता के बावजूद टकराव से रोके रखा, मगर 2008-09 में आए वित्तीय संकट के कारण विश्व अर्थव्यवस्था में आई मंदी के बाद चीन में बने उत्पादों की मांग कम हो गई। इसके साथ ही पश्चिमी देशों में बंद होती मिलों, घटते रोजगारों और नव-राष्ट्रवाद के उभार ने आर्थिक नीति को संरक्षणवाद की ओ र मोड़ना शुरू कर दिया। इसने एक विचित्र स्थिति उत्पन्न कर दी है। जहां दशकों तक भूमंडलीकरण की वकालत करने और यहां तक कि इसे दूसरे देशों पर थोपने वाले पश्चिमी देश उससे भाग रहे हैं वहीं चीन जैसा देश उसकी मुखरता से हिमायत कर रहा है। चीन अपनी अर्थव्यवस्था की निर्यात-निर्भरताको कम कर घरेलू खपत की ओर बढ़ने का सिलसिला शुरू कर रहा है, लेकिन यह प्रकिया आसान नहीं होने वाली है। चीन की प्रति व्यक्ति आय अभी भी विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है। लिहाजा चीन भूमंडलीकरण को सशक्त बनाने की पूरी कोशिश करेगा और ट्रंप के विपरीत चाहेगा कि अमेरिकी बाजार चीनी उत्पादों के लिए पहले जैसे ही खुले रहें। ट्रंप ने भले ही चुनाव प्रचार में चीन के खिलाफ अभियान चलाया हो और उनके प्रशासन में चीन विरोधियों की भरमार हो लेकिन वह शायद ही चीन के उभार को रोक सके। चीन ने हमेशा स्वयं को विश्व के केंद्र के रूप में देखा है जिससे उसे पश्चिमी साम्राज्यवाद ने वंचित कर दिया था। ऐसा लग रहा है कि विश्व में शक्ति का संतुलन पुन: चीन की ओर झुकता जाएगा। ध्यान रहे कि तमाम बयानबाजी के बाद ट्रंप को ताइवान के मुद्दे पर झुकना पड़ा और ‘एक चीन’ नीति का समर्थन भी करना पड़ा।
[ लेखक अभिनव प्रकाश, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं ]