यह तो पहले से तय था कि डोनाल्ड ट्रंप 20 जनवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर शपथ लेंगे, लेकिन यह स्पष्टता नहीं थी कि वह पहले दिन से ही अपने चुनावी वादों को पूरा करने में जुट जाएंगे। वह ऐसा करते ही दिख रहे हैं और इसीलिए उनके आलोचक कुछ ज्यादा ही चिंतित नजर आ रहे हैं-न केवल अमेरिका के भविष्य को लेकर, बल्कि दुनिया की भावी दशा-दिशा को लेकर भी। ध्यान रहे कि दुनिया में बुनियादी बदलाव की पहली ठोस शुरुआत लगभग सौ साल पहले प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई थी जो तीस साल बाद द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ पूरी हुई। पिछले सत्तर साल से लगभग वही मूल अवस्था थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ काम कर रही थी। बीते कुछ महीनों के अंदर घटी तीन घटनाओं ने उसे फिर से एक नए बदलाव की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है। पहली घटना ब्रेक्जिट की है। ब्रिटेन द्वारा यूरोपीय संघ से अलग होने के जनमत पर इस संघ के अध्यक्ष ने कहा था कि यह सिर्फ यूरोपीय संघ के अंत की ही शुरुआत नहीं है, बल्कि पश्चिमी सभ्यता के अंत की भी शुरुआत है। दूसरी घटना इटली की थी। हालांकि उसे कम महत्व दिया गया। इटली ने अपने युवा प्रधानमंत्री के संविधान संशोधन प्रस्ताव को जनमत संग्रह के द्वारा ठुकराकर एक प्रकार से यूरोपीय संघ की आशंका पर मुहर लगा दी। यह माना जा रहा है कि इटली यूरोपीय संघ से अलग होने वाला दूसरा यूरोपीय देश होगा। तीसरी घटना अमेरिका में घटी और यह गैर पारंपरिक नेता डोनाल्ड ट्रंप की जीत के तौर पर सामने आई।
दुनिया की उम्मीदों के विपरीत राष्ट्रपति पद के लिए ट्रंप जीते। कहा जाता है कि खुद ट्रंप को अपनी जीत की उम्मीद नहीं थी। क्या दो महाद्वीपों के तीन देशों में घटी इन तीन घटनाओं में कोई साम्यता है और क्या ये एक नए विश्व के आकार लेने की आहट दे रही हैं। इन तीनों घटनाओं की दो बातें बेहद चौंकाने वाली हैं। पहली और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन्होंने अब तक की परंपरागत बौद्धिक मान्यताओं एवं अनुमानों को बुरी तरह झुठला दिया। इन्होंने मध्यम एवं उच्च वर्गों के हितों एवं विचारों पर आधारित व्यवस्था को दरकिनार करके एक नई व्यवस्था के प्रति अपनी आकांक्षा व्यक्त की। भले ही इस नई व्यवस्था की व्याख्या दक्षिणपंथी राजनीतिक दर्शन के संदर्भ में की जाए। नि:संदेह इसके केंद्र में रोजगारविहीनता की स्थिति प्रधान रूप से रही है। अमेरिका तक में 1980 से लेकर 2013 तक के बीच मध्यम वर्ग का आकार काफी छोटा हुआ। इस दौरान कॉलेज की डिग्री से रहित लोगों की आय में भारी गिरावट आई। यह बात गौर करने की है कि बड़बोले और यहां तक कि बदमिजाज कहे जाने वाले ट्रंप को उन क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा वोट मिले जहां पिछले दस सालों में चीनी सामान का आयात सबसे अधिक बढ़ा है। ट्रंप की इस बात ने लोगों को आकर्षित किया कि विश्व के इतिहास में नौकरियों की इतनी बड़ी चोरी कहीं नहीं हुई है, जितनी अमेरिका के साथ हो रही है। यूरोप भी इस आर्थिक संकट से त्रस्त है। इसे एक प्रकार से विश्व आर्थिक-ग्राम के विरुद्ध व्यक्त तीव्र एवं स्पष्ट आक्रोश की अभिव्यक्ति मान सकते हैं। तो क्या यह माना जाए कि आर्थिक उदारीकरण की सांस फूलनी शुरू हो गई है? न मानने का कोई कारण नजर नहीं आ रहा है। जब यूरोप के देश ही अपनी एका को नहीं संभाल पा रहे हैं तो दुनिया कैसे संभालेगी। वैसे भी ट्रंप का अमेरिका जब चीन से सस्ते सामान और भारत से सस्ती सेवाओं पर प्रतिबंध लगाने की सोचेगा तो अन्य देश भी अपनी नीतियों में बदलाव लाने को मजबूर होंगे।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य है-जनमत। ये तीनों निर्णय जन-प्रतिनिधियों के निर्णय नहीं हैं, बल्कि सीधे-सीधे जनता के निर्णय हैं। इसलिए इनका न केवल महत्व बढ़ जाता है, बल्कि उस पर पुनर्विचार करने की संभावना भी खत्म हो जाती है। दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य पर अन्य जो दो बहुत बड़े बदलाव संभावित नजर आ रहे हैं, उनमें एक है-बचे-खुचे शीतयुद्ध की समाप्ति तथा दूसरा है-आतंकवाद के खिलाफ सामूहिक जंग का होना। इन दोनों का श्रेय ट्रंप को मिल सकता है। ट्रंप ने साफ-साफ कहा है कि वह रूस के साथ अच्छे संबंध बनाना चाहते हैं। सूचनाओं के अनुसार रूस ने ट्रंप को चुनाव में मदद भी की है। अपनी इस बात की तस्दीक ट्रंप ने यह कहकर कर दी है कि फिलहाल दुनिया को सबसे बड़ा खतरा इस्लामिक स्टेट से है। इसके खात्मे के लिए वह पुतिन के साथ एक अस्थायी गठजोड़ बना सकते हैं। उल्लेखनीय है कि सीरिया के मामले में अमेरिका और रूस एक-दूसरे के विरुद्ध हैं, जिसका फायदा आइएसआइएस को मिल रहा है।
निश्चित रूप से इस नीति से जहां विश्व आतंकवाद की कमर टूटेगी, वहीं अमेरिका की विश्व की अगुआई करने वाले देश की छवि पर भी असर पड़ेगा। वैसे भी दुनिया के राजनीतिक नक्शे पर जिस प्रकार से नए-नए खिलाड़ियों का उदय हो रहा है, उस पृष्ठभूमि में तकनीकी और आर्थिक सहायता देकर विश्व की गारंटी देने वाला राष्ट्र बनने की अवधारणा अव्यावहारिक लगने लगी है। यह बात ओबामा को भी समझ में आने लगी थी, जिसे ट्रंप अंजाम तक पहुंचा देंगे, ऐसा लगता है। नाटो में भी एक प्रकार की बेचैनी व्याप्त हो गई है। इसके लिए अमेरिका अपने जीडीपी का 3.61 प्रतिशत खर्च देता है, जो एक बड़ी रकम है। यूरोप के केवल चार अन्य देश अपनी जीडीपी का दो-दो प्रतिशत देते हैं। शेष सदस्य राष्ट्रों ने अपना योगदान बंद कर दिया है, जिस पर ट्रंप ने अपनी नाखुशी जाहिर की है। जाहिर है कि रूस से दोस्ती सध जाने के बाद नाटो की उतनी जरूरत भी नहीं रह जाएगी। वार्सा संधि खत्म हो ही गई है। ऐसा होने पर विश्व सैन्य स्थिति में एक बड़ा परिवर्तन आएगा।
जहां तक चीन की बात है, उसको लेकर दो संभावनाएं व्यक्त की जा सकती हैं। पहली यह कि चीन के सामान एवं सेवाओं के आयात पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने से इन दोनों महाशक्तियों के बीच एक व्यापारिक-जंग छिड़ सकती है, जो दुनिया के लिए अच्छी नहीं होगी। दूसरी यह कि अमेरिका द्वारा अपनी विश्व भूमिका को कम करने पर जो अनिश्चितता उत्पन्न होगी उसका फायदा उठाने के लिए चीन आगे आ सकता है। ट्रंप द्वारा प्रशांत भागीदारी संधि से अपना हाथ खींचने का संकेत देने पर चीन द्वारा व्यक्त की गई प्रतिक्रिया यही बताती है, लेकिन चीन का उभार विश्व के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। भारत के लिए शुभ होने का तो सवाल ही नहीं उठता।
[ लेखक डॉ. विजय अग्रवाल, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं ]