ए सूर्यप्रकाश

राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने हाल में लोकसभा की सीटों में बढ़ोतरी करने का सुझाव दिया ताकि जनाकांक्षाओं की सच्ची अभिव्यक्ति हो सके। उन्होंने कहा कि अगर ग्रेट ब्रिटेन में 600 संसदीय सीटें हो सकती हैं तो 1.28 अरब की आबादी वाले भारत में संसद की अधिक सीटें क्यों नहीं हो सकतीं। संसद में लोगों के व्यापक एवं सार्थक प्रतिनिधित्व को लेकर राष्ट्रपति की चिंता वाजिब है, लेकिन अगर सीटों में इजाफे के लिए राज्यों की आबादी वाले वही पुराने पैमाने को आधार बनाया गया तो इसके गंभीर राजनीतिक परिणाम होंगे। ऐसी कोई भी कवायद दक्षिणी एवं पूर्व और पश्चिम के उन राज्यों के लिए नुकसानदेह साबित होगी जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में अनथक प्रयास किए हैं और उन ‘बीमारू’ राज्यों के लिए फायदेमंद रहेगी जिन्होंने ऐसी मुहिम को लेकर बेहद गैरजिम्मेदाराना रुख-रवैया दर्शाया जो मुहिम देश की तरक्की के लिए बेहद अहम है।
संविधान के अनुच्छेद 81 (2)(ए) के अनुसार लोकसभा में प्रत्येक राज्य के लिए सीटों का आवंटन जनगणना के अनुपात से होता है। इसके लिए अभी तक यही पैमाना अपनाया गया है जो सभी राज्यों के लिए समान है। अनुच्छेद 82 के तहत संसद प्रत्येक दशकीय जनगणना के बाद हर एक राज्य में सीटों के परिसीमन के लिए किसी निकाय का गठन कर सकती है। इसमें समस्या यही है कि जहां दक्षिणी राज्यों ने परिवार नियोजन को बड़े पैमाने पर सफल बनाया, लेकिन बीमारू राज्य इस मोर्चे पर पीछे रह गए। ऐसे में आबादी के लिहाज से सीटों का अनुपात तय करने का प्रचलित तरीका न्यायोचित नहीं होगा। मैंने आकलन किया है कि अगर 1981 के बाद की आबादी के आधार पर सीटों की संख्या में संशोधन किया गया तो इससे भारी राजनीतिक असंतुलन पैदा होगा, क्योंकि इस अवधि के बाद से यह असंतुलन और ज्यादा प्रभावी हुआ है।
समस्या कुछ इस प्रकार है। वर्ष 1981-91 के बीच बीमारू राज्यों में फीसद आधार पर खासी तेज जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई। इस दौरान बिहार में 23.54 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 26.84 प्रतिशत, राजस्थान में 28.44 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 25.85 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई। इस दौरान दक्षिणी राज्यों में हुई दशकीय जनसंख्या वृद्धि पर भी गौर कीजिए। केरल में यह 14.32 प्रतिशत, तमिलनाडु में 21.12 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 24.20 प्रतिशत रही। फिर 1991-2001 के दशक में बीमारू और दक्षिणी राज्यों के बीच अंतर की यह खाई और चौड़ी हो गई। इस दौरान बीमारू राज्यों में बिहार में 28.62 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 24.26 प्रतिशत, राजस्थान में 28.41 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 25.85 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि हुई। इसके उलट दक्षिणी राज्यों में केरल में 9.43 प्रतिशत, तमिलनाडु में 11.72 प्रतिशत, कर्नाटक में 17.51 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश में 14.59 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई। जैसा कि हम देख सकते हैं कि दक्षिणी राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर बीमारू राज्यों की तुलना में लगभग आधी या एक तिहाई है। इसके बाद 2001-11 में यह अंतर और ज्यादा बढ़ गया। इस दौरान बीमारू राज्यों में बिहार ने 25.07 प्रतिशत, मध्य प्रदेश ने 20.30 प्रतिशत, राजस्थान ने 21.44 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश ने 20.09 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की। दूसरी ओर दक्षिण में केरल ने महज 4.86 प्रतिशत, तमिलनाडु ने 15.60 प्रतिशत और आंध्र
प्रदेश ने 11.10 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की। ऐसे में हम देख सकते हैं कि 1991-2001 के बीच बिहार की आबादी में 28.62 प्रतिशत का इजाफा हुआ तो इस दौरान केरल की आबादी में केवल 9.43 फीसद की बढ़ोतरी हुई।
इसी तरह 2001-2011 के बीच बिहार में 25 प्रतिशत से ऊंची जनसंख्या वृद्धि हुई तो केरल में यह मात्र 4.86 प्रतिशत रही। इसी तरह बिहार की ऊंची जनसंख्या वृद्धि के उलट तमिलनाडु की आबादी इस समीक्षाधीन अवधि में क्रमश: 11.72 प्रतिशत और 15.60 प्रतिशत रही। अन्य दक्षिणी राज्यों के मुकाबले भी यह विरोधाभास वाली तस्वीर काफी मुखर नजर आती है। पिछले बीस वर्षों के दौरान बीमारू राज्यों की तुलना में पूर्व और पश्चिम के कुछ राज्यों की तस्वीर भी काफी उलट रही है। ओडिशा का ही उदाहरण लें जहां 1991-2001 के बीच दशकीय वृद्धि 16.25 प्रतिशत और 2001-2011 के बीच 13.97 प्रतिशत रही। पश्चिम का रुख करें तो इस दौरान गोवा में यह वृद्धि क्रमश: 15.21 प्रतिशत और 8.17 प्रतिशत रही। ऐसे में दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के ज्यादा जिम्मेदार राज्यों को तवज्जो दिए बिना लोकसभा की सीटों की संख्या में बढ़ोतरी करना किसी भी लिहाज से जायज नहीं होगा?
हालांकि 1976 में संसद में संविधान संशोधन कर लोकसभा और राज्यों में विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ाने पर 2000 की पहली जनगणना के आंकड़े आने तक रोक लगा दी। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2003 में इसमें संशोधन पर विचार किया, लेकिन दक्षिणी राज्यों को तरजीह मिलने की दलीलों को जोर पकड़ते हुए देख उसे टाल ही दिया। लिहाजा सीटों की संख्या बढ़ाने का विचार 2026 तक मुल्तवी कर दिया गया जिसका अर्थ यही है कि 2031 की दशकीय जनगणना के बाद ही यह संभव हो पाएगा। लोकसभा सीटों को पुराने तरीके से बढ़ाने में दक्षिण और कुछ अन्य राज्यों को कमजोर करने के अलावा और भी कई खतरे हैं। कुछ राजनीति विज्ञानियों ने यह तर्क भी रखा है कि प्रत्येक 10 लाख की आबादी पर एक लोकसभा क्षेत्र होना चाहिए। अगर यही पैमाना अपनाया गया तो लोकसभा में 1,300 सांसद होंगे। क्या ऐसी विधायी सभा सार्थक विधिक कार्य कर सकती है। ऐसे बेलगाम सदन को स्पीकर कैसे चला सकते हैं जबकि मौजूदा 545 सदस्यों के सदन में नियमित रूप से होने वाली धींगामुश्ती में ही सदन चलाने में उन्हें खासी मुश्किल पेश आती है। लोकसभा सीटें बढ़ाने के पीछे एक तर्क यह भी दिया जाता है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता का उचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए। बीमारू राज्यों में यह काम विधान परिषदों के कायाकल्प और उनकी विधानसभाओं में सीटें बढ़ाकर किया जा सकता है। लोकसभा सीटों की संख्या में बढ़ोतरी के लिए तब तक बात आगे नहीं बढ़ सकती जब तक कि उन राज्यों को उनकी कोशिशों का प्रतिफल नहीं मिलता जिन्होंने पिछले पचास वर्षों के दौरान जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में सराहनीय काम किया। इसमें उन राज्यों के लिए विशेष प्रोत्साहन होने चाहिए जिन्होंने आबादी को काबू करने में सफलता हासिल की। इससे भी महत्वपूर्ण उनके लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि केरल और उत्तर प्रदेश में जनसंख्या वृद्धि के मौजूदा अनुपात का केरल को नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा।
इसके लिए अनुच्छेद 81 में संशोधन करना होगा जो केवल संख्याबल की ही बात करता है। कोई भी तार्किक व्यक्ति यह स्वीकार नहीं करेगा कि जनसंख्या वृद्धि को लेकर जिन राज्यों ने गैरजिम्मेदाराना रवैया दर्शाया उन्हें पुरस्कृत किया जाए और जिन राज्यों ने केंद्र सरकार के परिवार नियोजन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक सिरे चढ़ाया उन्हें खामियाजा भुगतना पड़े। हालांकि चारों दक्षिणी राज्यों के अलावा गोवा और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों के हितों की रक्षा करने वाले किसी भी विकल्प का बीमारू राज्यों द्वारा विरोध किया जाता है तो बेहतर है कि लोकसभा में सीटों की संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव हमेशा के लिए टल जाए।
[ लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]