उच्च शिक्षा में शोध के संदर्भ में यह एक शुभ सूचना है कि मानव संसाधन मंत्री जावडेकर ने शोध कार्य के लिए संसाधनों को उदारता से उपलब्ध कराने की बात कही है। शिक्षा नीति में इसका ध्यान रखा जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार संसाधनों की व्यवस्था की जानी चाहिए। आज के जमाने में किसी रूढ़ि या निजी विश्वास की जगह व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से किए गए शोध को तरजीह दी जाती है। वैज्ञानिक ज्ञान अधिक प्रतिष्ठित होता है, क्योंकि वह विश्वसनीय और वैध होने के कारण ज्यादा भरोसेमंद होता है। आज विकसित राष्ट्रों के आर्थिक और तकनीकी विकास के पीछे उनके शोध का पुष्ट आधार देखा जा सकता है।

भारत में भी शोध कार्य को बढ़ावा देने के लिए कई जतन किए जाते रहे हैं, लेकिन आज भी देश में हो रहे शोध की न केवल मात्र, बल्कि उसकी गुणवत्ता को लेकर हम अन्य देशों की तुलना में काफी पिछड़े हुए हैं। आधुनिक भारत में शोध की परंपरा औपनिवेशिक काल में स्थापित विश्वविद्यालयों और संस्थानों में शुरू हुई जो कमोबेश अविच्छिन्न रूप से अभी भी उसी र्ढे पर चल रही है। कभी-कभी शोध की वरीयताओं को लेकर सोच-विचार जरूर किया गया है और कुछ बदलाव भी आए हैं परंतु शोध की संस्कृति ज्यादातर अध्ययन केंद्रों पर अपनी पुरानी लीक पर ही चलती चली जा रही है। थोड़े से ऐसे उच्च अध्ययन केंद्र, जो ‘उत्कृष्टता के द्वीप’ कहे जा सकते हैं, अपवाद स्वरूप जरूर मिल जाएंगे परंतु अधिकांश शिक्षा केंद्रों पर शोध एक पिटी पिटाई कवायद की तरह होता है जिसमें एक क्रम में कुछ कृत्य (रिचुअल) पूरे किए जाते हैं और पी एचडी और डीलिट की उपाधियां दी जाती हैं।

शोध कार्यो में दोहराव एक बड़ी समस्या बन गई है और अन्य कारणों से शोध में नकल और चोरी जैसा हीन कर्म भी होने लगा है। उच्च शिक्षा के तीव्र विस्तार के साथ विश्वविद्यालय और महाविद्यालय तो अंधाधुंध खुलते गए पर हर एक के लिए आवश्यक शोध संसाधन जुटाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। हां, शोध जरूर हो रहा है पर गुणवत्ता के मानकों से तमाम समझौतों के साथ। उच्च शिक्षा और उससे जुड़े व्यवसायों में शोध कार्य या पीएचडी की डिग्री की जरूरत पड़ती है। उसका बड़ा मूल्य है, क्योंकि उसके बिना व्यवसायिक उन्नति का द्वार नहीं खुलता है। फलत: शोध करना मजबूरी हो जाती है। इच्छा या अनिच्छा से यानी किसी भी तरह शोध की ऊंची डिग्री हासिल करना स्नातकोत्तर डिग्री धारकों की विवशता होती जा रही है। ऐसे में ज्यादातर शोध ग्रंथ मानकों पर खरे नहीं होते और मैत्री, दया भाव या फिर किसी अन्य कारण से डिग्री दे दी जाती है।

ये शोध कार्य स्वयं छात्र के लिए भी अधिक मूल्य नहीं रखते। उन शोध कार्यो से पहले से प्राप्त ज्ञान में वृद्धि या नए ज्ञान की आशा करना दुराशा ही सिद्ध होता है। वस्तुत: आज शोध का भारतीय संदर्भ जटिल होता जा रहा है और उसकी उपादेयता और गुणवत्ता को लेकर उच्च शिक्षा के लाभार्थियों में काफी असंतोष सा व्याप्त होता दिख रहा है। प्राकृतिक और जीव विज्ञान की स्थिति थोड़ी बेहतर है और उनमें ज्ञान के अंतरराष्ट्रीय मानकों की अनदेखी नहीं की जाती पर जैसा कि भारत में सामाजिक शोध को लेकर भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएसएसआर) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि समाज विज्ञानों की स्थिति चिंतनीय है। आधुनिक अध्ययन की परंपरा में समाज, व्यक्ति और संस्कृति के शास्त्रीय अध्ययन की परिपाटी स्वयं को विज्ञान, विशेषत: भौतिक विज्ञान, को अपना आदर्श मानती रही है।

बाह्य अवलोकन से प्राप्त तथ्यों को आधार बनाकर सार्वभौमिक नियम सिद्धांत की रचना उसका उद्देश्य हुआ करता है। इसके लिए मात्रकरण (क्वैंटिफिकेशन) को ब्रrास्त्र मान लिया गया। चुनांचे हर अनुभव, घटना या विशेषता को अंकों में बदल कर विज्ञानसम्मत रूप में ढालने-बनाने की कोशिश की जाने लगी। औपनिवेशीकरण के परिणामस्वरूप पश्चिमी चश्मे से भारतीयता और भारतीय यथार्थ की तलाश बदस्तूर जारी रही बिना इस बात की चिंता किए कि इस दृष्टि में भारत ‘दूसरा’ है और अध्ययन की सोच पश्चिमी देश काल में अवस्थित है। संस्कृति से बाहर से आयातित अवधारणाएं और सिद्धांतों को थोपने की जगह अवधारणाओं और सिद्धांतों को संस्कृति में ढूंढ़ने की कोशिश अधिक महत्वपूर्ण है। अब तो संस्कृति-विशिष्ट अध्ययन विधियों की जरूरत भी अनुभव की जा रही है।

ज्ञान को उसके संदर्भ में प्रासंगिक बनाना जरूरी है। शायद विधियों की सीमाएं तोड़ कर ही ज्ञान-विज्ञान के विकास की संभावना बन पाती है। सामाजिक विज्ञानों में शोध का प्रजातांत्रिक रूप यह अपेक्षा करता है कि उसमें लोक की प्रतिष्ठा हो। आम आदमी जिन विचारों और सिद्धांतों को अपनाकर जीवन चलाते हैं उन्हें समझा जाना चाहिए। वे सिर्फ सूचना की उगाही के माध्यम न होकर ज्ञान के भी स्रोत हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ को समझ कर ही सार्थक शोध हो सकता है। भारत में मानव व्यवहार के नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों को समझने का समृद्ध इतिहास है। उसे आधुनिक संदर्भ में पहचानने और परखने की जरूरत है। शोधकार्य की प्रतिष्ठा के लिए हमें अपने ज्ञान का पुनराविष्कार करना होगा।

(लेखक गिरीश्वर मिश्र महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि के कुलपति हैं)