राहुल गांधी की डिग्री को लेकर चाहे जो अस्पष्टता हो, इसमें दोराय नहीं कि उन्होंने दिल्ली के अलावा लंदन में भी पढ़ाई की है और वहां की एक कंपनी में कुछ समय काम भी किया है। वह पढ़े-लिखे युवा नेता की छवि में पूरी तरह फिट बैठते हैं। यह पता नहीं कि वह कांग्रेस का अध्यक्ष पद कब संभालेंगे, लेकिन यह सबको स्पष्ट है कि बतौर उपाध्यक्ष पार्टी की कमान उनके ही हाथ है और वही अपने दल के शीर्ष नीति-नियंता भी हैं। कांग्रेस महासचिव बनने के बाद उन्होंने पार्टी और राजनीति में सुधार को अपना एजेंडा बताया था। वह महासचिव के बाद उपाध्यक्ष बन गए, लेकिन किसी को नहीं पता कि कांग्रेस में कितना सुधार हुआ। वह कांग्रेस में युवाओं को मौके देने के हिमायती थे। उन्होंने कई युवाओं को मौका भी दिया। उनमें से कुछ दशहरे के दिन जेएनयू में प्रधानमंत्री का पुतला फूंकते नजर आए। इसके पहले खुद राहुल गांधी देवरिया से दिल्ली तक की अपनी यात्रा का समापन करते समय प्रधानमंत्री पर यह आरोप मढ़ते हुए दिखाई-सुनाई दिए थे कि वह जवानों के खून के पीछे छिपे हैं और उनकी दलाली कर रहे हैं। यह कथन ज्यादा अरुचिकर-अमर्यादित इसलिए लगा, क्योंकि वह पढ़े-लिखे राहुल की ओर से दिया गया। राजनीति में सक्रिय ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो बेतुकी बातें करते ही रहते हैं। ऐसे नेता हर दल में हैं और कई बार वे बेलगाम भी दिखते हैं। कई बार वे विरोधी दलों की आलोचना-निंदा के शिकार बनते हैं तो कई बार अपने ही दल के नेताओं की ओर से झिड़के जाते हैं। अभी चंद दिनों पहले ही संजय निरुपम झिड़के गए थे, लेकिन जब राहुल गांधी संजय निरुपम का मुकाबला करते दिखे तो कांग्रेस के सामने समस्या खड़ी हो गई। उसके नेताओं-प्रवक्ताओं को सांप सा सूंघ गया। आखिरकार शून्य को नए तरह से परिभाषित करने वाले कपिल सिब्बल सामने आए और उन्होंने किंतु-परंतु के साथ राहुल का बचाव किया। इसके बाद अन्य नेता भी राहुल की ढाल बन गए। ऐसा करना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि मामला ‘भविष्य के नेता’ को सही साबित करने का था।
यह पहली बार नहीं जब कांग्रेसी नेताओं-प्रवक्ताओं को राहुल के किसी बेजा बयान को सही ठहराने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़ा हो। पिछले कई वर्षों से हर दो-चार माह में उन्हें ऐसा करना पड़ता है। जब-जब ऐसा होता है, कांग्रेस में सुधार और उसके उभार की संभावना और स्याह हो जाती है। यह तय मानिए कि कांग्रेस के लोगों को राहुल के इस विचित्र विचार को भी सही ठहराने को विवश होना पड़ेगा कि नई तकनीक पुश्तैनी पेशों पर निर्भर जातियों की पहचान खत्म कर रही है। इससे अजीब और कुछ नहीं हो सकता कि कांग्र्रेसी नेता उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलन कर ब्राह्मण मुख्यमंत्री की जरूरत जताएं और राहुल गांधी पिछड़ी जातियों को यह समझाएं कि वे अपने-अपने पुश्तैनी पेशे पर ध्यान दें। इसके पहले कांग्रेसी नेता राहुल के जिन अन्य बेढब बयानों का सही ठहरा चुके हैं उनमें प्रमुख हैं-सत्ता जहर है’, ‘सड़कों पर गरीब नहीं अमीरों की कारें चलती हैं’ और ‘देश को धोती-कुर्ता-चप्पल वाली सरकार चाहिए।’ स्पष्ट ही है कि ऐसा करते समय कांग्रेसी नेता इस पर ध्यान नहीं देते कि आम जनता के मन में पार्टी को लेकर क्या धारणा बनती होगी? इस पर आश्चर्य नहीं कि गांव-गरीबों -किसानों से राहुल की मेल-मुलाकात और उनकी तमाम आक्रामकता के बावजूद कांग्रेस वहीं खड़ी है जहां मई 2014 में खड़ी थी। वह दयनीय दिशा में भी दिख रही है और दिशाहीन भी।
राहुल गांधी की तरह अरविंद केजरीवाल भी युवा और उच्च शिक्षित हैं। उनके आइआइटी प्रवेश को लेकर चाहे जो अस्पष्टता हो, इसमें दो-राय नहीं कि वह भारतीय राजस्व सेवा के पूर्व अधिकारी और प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार विजेता हैं। वह राजनीति को बदलने-सुधारने ही नहीं, बल्कि नई तरह की राजनीति करने के दावे के साथ सियासत में सक्रिय हुए थे। उन्होंने चमत्कारिक राजनीतिक सफलता प्राप्त की और एक तरह से आनन-फानन दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए। दिल्ली की सत्ता दोबारा हासिल करने के बाद वह गोवा, गुजरात और पंजाब में जीत हासिल करने का इरादा रखते हैं। इस चाहत में कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन आखिर नई तरह की राजनीति कहां है? आम आदमी पार्टी अन्य दलों जैसे राजनीतिक हथकंडे अपनाने में माहिर हो चुकी है। सूचना अधिकार कानून के प्रबल पक्षधर लोग सत्ता में आने के बाद पारदर्शिता के उतने ही विरोधी बन गए हैं जितने अन्य दल। आम आदमी पार्टी दावा नई राजनीति का करती है, लेकिन छल-कपट की राजनीति का कोई दांव ऐसा नहीं जिसे अपनाने-आजमाने में उसे हिचक हो। परिवारवाद की राजनीति को छोड़ दें तो आम आदमी पार्टी और अन्य दलों में कहीं कोई भेद नहीं रह गया है। इस दल के रूप में सपा-बसपा, तृणमूल-अन्नाद्रमुक जैसा एक विकल्प उभर आया है। जिस पार्टी का मूल मंत्र नई तरह की राजनीति करना था उसकी अब सबसे बड़ी पहचान अपने राजनीतिक विरोधियों और आलोचकों को गाली देना है। चूंकि इस तरह की राजनीति का नेतृत्व खुद पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल करते हैं इसलिए उनके बाकी साथी बदजुबानी में उनसे होड़ लेते हैं। फिलहाल उनका प्रिय शगल है कि प्रधानमंत्री को नित्य प्रति खरी-खोटी सुनाना। इसके अच्छे-भले आसार है कि आने वाले दिनों में अदालतें और संवैधानिक सस्ंथाएं भी इस दल के निशाने पर होंगी। जो कल तक सगर्व कहते थे कि हम सबसे सही और अलग हैं वे आज डंके की चोट पर कह रहे हैं कि अगर हमने अन्य दलों की तरह संसदीय सचिव बना लिए तो इसमें गलत क्या है? युवा और पढ़े-लिखे नेताओं वाली आम आदमी पार्टी का भविष्य जो भी हो, यह देखना दयनीय है कि नई तरह की राजनीति का सपना छिन्न-भिन्न हो चुका है।
पढ़े-लिखे युवा राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल अपने तौर-तरीकों से इसी धारणा को ध्वस्त कर रहे हैं कि उनके जैसे लोग भारतीय राजनीति की दशा-दिशा बदल सकते हैं। देश की जनता को जितनी जल्दी यह आभास हो जाए, अच्छा कि नेताओं का केवल युवा और उच्च शिक्षित होना ही पर्याप्त नहीं। अगर ऐसे युवा सही सोच से लैस नहीं तो फिर बेहतर यही है कि वे राजनीति में सक्रिय होने के बजाय अन्य किसी पेशे में जाएं और अगर वे राजनीति में आते ही हैं तो फिर दुआ करें कि किसी दल की कमान उनके हाथ न आए।
[ लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]