उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। दुर्भाग्य से चुनावी बिसात का आधार नेताओं की गालियां बनी हैं। यह अपने किस्म का पहला चुनाव होगा जो एक ऐसे मुद्दे से शुरु हो रहा है जिस पर किसी भी सभ्य समाज को शर्मिंदा होना चाहिए। बात शुरु हुई भाजपा नेता दयाशंकर सिंह के बयान से। उन्होंने मायावती के बारे में वह कहा जिस पर उन्हें शर्मिंदा होना चाहिए। उन्होंने माफी मांगी, संसद ने उनकी भत्र्सना की, पार्टी ने पद और सदस्यता से हटाया और सरकार ने मुकदमा दर्ज किया। इसके बाद भी मामले का पटाक्षेप नहीं हुआ। मायावती की पार्टी के नेताओं ने दयाशंकर की मां, पत्नी और बेटी के लिए वह कहा जो बर्दाश्त से बाहर था। मायावती ने इसका समर्थन किया, लेकिन दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह नहीं बर्दाश्त कर सकीं। स्वाति सिंह ने एक बार फिर साबित किया कि जब मां अपने बच्चों खासतौर से बेटी के लिए खड़ी होती है तो उसके सामने बड़े नेता भी नहीं टिक पाते। यही हुआ। स्वाति सिंह के एक बयान ने गुस्से से आगबबूला और अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं की गालियों से खुश मायावती आक्रमण से बचाव की मुद्रा में आ गईं। उन्हें समझ आ गया कि एक मां उनकी पार्टी और जनाधार पर भारी पड़ गई। वह उत्तर प्रदेश पुलिस को संविधान की याद दिलाने लगीं और अपने कार्यकर्ताओं को सर्वजन हिताय-सर्वजन हिताय का पाठ पढाने की तैयारी करने लगीं। अगस्त में आगरा और आजमगढ़ में इसी नाम से रैलियां होंगी। मायावती के पीछे हटने का पहला संकेत इससे मिला कि 25 जुलाई को बसपा के प्रदर्शन के सारे कार्यक्रम रद कर दिए गए। मायावती ने अपने राजनीतिक जीवन में ऐसा पहली बार किया है। उन्होंने यह इसलिए नहीं किया कि उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। दरअसल उन्हें समझ आ गया कि विरोधी दलों को बार-बार मात देने में माहिर होने के बावजूद वह एक आम महिला से मात खा गईं।

मायावती दयाशंकर की बेजा टिप्पणी को दलित की बेटी के सम्मान का मुद््दा बनाना चाहती थीं। उनकी नजर अपने दलित वोट बैंक पर थी जो बिखर रहा था और जिसकी नजर में वह उनकी देवी हैं। गैर जाटव दलित भाजपा की ओर जा रहा था। एक झटके में उसे भाजपा से छीनकर अपने पाले में लाने का उन्हें यह एक अवसर मिल गया। भाजपा में मायूसी थी कि प्रधानमंत्री मोदी का पिछले दो साल से दलितों को पार्टी से जोडऩे के लिए सारा किया धरा पानी में मिल गया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की बाजी हाथ से फिसलती नजर आ रही थी। दयाशंकर सिंह के बयान ने जो मौका बसपा को दिया उससे बड़ा मौका बसपा नेताओं ने दयाशंकर की मां, पत्नी और बेटी को गाली देकर भाजपा को दे दिया। 24 घंटे में राजनीतिक बाजी पलट गई। मायावती जान गईं कि दलित वोट बैंक समेटने की आतुरता में सर्वजन का उनका नारा खोखला हो गया।

उत्तर प्रदेश में बसपा को सत्ता तक पहुंचने के लिए 'तिलक तराजू और तलवार' का नारा छोड़कर 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है' का नारा बुलंद करना पड़ा था। इसी नारे ने बसपा को 2007 के विधानसभा चुनाव में अकेले बहुमत दिलाया। इसे मायवती की सोशल इंजीनियरिंग का मास्टर स्ट्रोक माना गया। 2007 बसपा के राजनीतिक सफर और चुनावी कामयाबी का चरमोत्कर्ष था। मायावती को लगा कि दलित हों या सवर्ण उनका समर्थन करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि उनके पास दलित वोटों का एक ऐसा जनाधार है जिसे वह किसी को भी ट्रांसफर करा सकती हैं। इस अहमन्यता का नतीजा यह हुआ कि बसपा का ग्राफ लगातार ढलान पर है। 2004 के लोकसभा चुनाव में 19 सीटें जीतने के बाद 2007 में मायावती राज्य में सत्ता में आईं तो कयास लगने लगे कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्हें 50 सीटें मिल सकती हैं। वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में आ गईं। वाम दल अपने पुराने साथी मुलायम को छोड़कर मायावती की पालकी उठाने को तैयार हो गए। प्रकाश करात तो उन्हें 14 वीं लोकसभा में ही प्रधानमंत्री बनवा देना चाहते थे, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा को केवल 20 सीटें मिलीं। दो साल पहले विधानसभा की 206 सीटें जीतने वाली बसपा केवल सौ विधानसभा सीटों पर बढ़त बना सकी। फिर बसपा गिरना शुरु हुई तो उसका सिलसिला थमा नहीं। पार्टी 2012 का विधानसभा चुनाव हारी और 2014 में उसका एक भी नुमाइंदा लोकसभा नहीं पहुंच सका।

मायावती की कोशिश दलित मुस्लिम गठजोड़ बनाने की है। इसके लिए उन्होंने करीब सौ मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं। बसपा यह कोशिश पहली बार नहीं कर रही। कांशीराम ने भी यह गठबंधन बनाने की नाकाम कोशिश की थी। इस प्रयोग के नाकाम होने के बाद कांशीराम ने इसमें पिछड़ों को भी जोडऩे के लिए मुलायम सिंह की सपा से 1993 में गठबंधन किया था। चुनाव के बाद नारा लगा था 'मिले मुलायम कांशी राम, हवा हो गए जयश्री राम'। उस चुनाव में दलित, मुस्लिम और पिछड़ों का जैसा एका हुआ वैसा पहले नहीं देखा गया। 1993 के विधानसभा चुनाव में आजादी के बाद सबसे ज्यादा मतदान हुआ। उत्तर प्रदेश में उस समय भी अगड़ी और अति पिछड़ी जातियों के बड़े हिस्से ने भाजपा का साथ दिया। इसी वजह से सपा-बसपा को 176 और भाजपा को 177 सीटें मिलीं। सपा-बसपा गठबंधन को भाजपा से एक सीट तो कम मिली ही, वोट भी कम मिले। दोनों दलों को कुल 29 फीसदी वोट मिले- बसपा को 11.1 फीसद और सपा को 17.9 फीसद। भाजपा को अकेले 33.33 फीसदी वोट मिले। मुलायम सिंह के नेतृत्व में सपा-बसपा सरकार कांग्रेस, जनता दल, वाम दलों और छोटी पार्टियों के समर्थन से ही बन पाई।

बिहार विधानसभा चुनाव बाद लग रहा था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव सपा-बसपा के बीच होगा और बसपा जीतती हुई नजर आ रही थी। स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी की बगावत से बसपा को बड़ा झटका लगा है। बसपा नेता नसीमुद्दीन और स्वाति सिंह के मैदान में उतरने से एक बात तो तय हो गई कि इस चुनाव में बसपा को अगड़ी जातियों के वोट नहीं मिलेंगे। 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह मायावती का सर्वजन का नारा कोरा नारा बन कर रह सकता है। उत्तर प्रदेश चुनाव का सारा दारोमदार अब अति पिछड़ी जातियों पर है। यह वर्ग जिसकी ओर जाएगा, प्रदेश की सत्ता पर वही काबिज होगा। 1991 में भाजपा अगड़ी जातियों और अति पिछड़ों के समर्थन से ही अकेले दम पर सत्ता में आई थी। भाजपा की नजर फिर इसी वोट पर है। उत्तर प्रदेश चुनाव में मुकाबला अब सपा और भाजपा के बीच होता दिख रहा है। अगर ऐसा ही होता है तो लगातार तीन चुनाव हारना मायावती को राजनीति की बंद गली के मुहाने पर खड़ा कर सकता है।

[ लेखक प्रदीप सिंह, राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]