नई दिल्ली [ एनके सिंह ]। हाल की दो कल्याणकारी सरकारी घोषणाओं पर गौर कीजिए। केंद्र की मोदी सरकार ने एक साल बाद होने वाले आम चुनाव से पहले के अंतिम पूर्ण बजट में किसानों को उनकी उपज के लागत मूल्य का 50 प्रतिशत लाभ देने का एलान किया। साथ ही 10 करोड़ गरीब परिवारों को पांच लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा देना भी बजट वादे में शामिल था। जाहिर है अधिकांश गरीब चाहे वे किसान-मजदूर हों या औद्योगिक श्रमिक, उनकी जड़ें गांवों में ही हैं। लिहाजा यह लाभ भी आमतौर पर उनके ही हित में रहेगा। इसके एक हफ्ते के भीतर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों का दो लाख रुपये तक का कर्ज माफ करने का ही नहीं, बल्कि गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी भी दो हजार रुपये प्रति क्विंटल करने (वर्तमान में केंद्र द्वारा घोषित दर 1735 रुपये प्रति क्विंटल है) और साथ ही जिन किसानों ने इससे कम मूल्य पर बेचा है उन्हें भी बकाया राशि देने का एलान किया।

चुनाव आते ही सरकारों को किसान याद आने लगे

इस घोषणा के कुछ ही घंटों बाद राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी किसानों का 50 हजार रुपये तक का कर्ज माफ करने की घोषणा की। इन दोनों ही राज्यों में जल्द ही चुनाव होने हैं जहां किसानों का आक्रोश सुर्खियों में है। हालिया उपचुनावों में सत्तारूढ़ भाजपा को मिली शिकस्त इसकी बानगी भी है। गुजरात विधानसभा चुनाव में भी इसके संकेत मिले जब अपने सबसे मजबूत किले में भी भाजपा किसी तरह बस बहुमत के नजदीक ही पहुंच पाई। राज्य के कुल 33 जिलों में से जिन 15 को ग्रामीण अंचल वाला माना जाता है वहां सात जिलों में पार्टी का खाता भी नहीं खुला तो आठ जिलों में वह महज एक-एक सीट ही अपने नाम कर पाई। आज चूंकि देश के अधिकांश राज्यों में भाजपा और सहयोगी दलों की ही सरकारें हैं तो किसानों के सामने भी कोई दुविधा नहीं कि उन्हें अपनी नाराजगी कैसे और किसके सामने व्यक्त करनी चाहिए।

देश में पहली बार किसान एक दबाव समूह के रूप में उभरा

देश के 68 साल के प्रजातंत्र में पहली बार किसान एक दबाव समूह के रूप में उभरा है। अभी तक मंचों से ‘किसान भाइयों’ कहकर नेता अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लिया करते थे। इस राजनीतिक उनींदेपन का नतीजा यह हुआ कि पिछले 25 साल से लगातार हर 36 मिनट पर एक किसान आत्महत्या करता रहा और इसी अवधि में हर रोज 2,052 किसान खेती छोड़ते रहे। इस बीच कोई किसान दबाव समूह नहीं बन पाया। अगर कभी कोशिश हुई भी तो वह जाति समूह में ही बांट दिया गया और राजनीतिक दल उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने की जगह उन्हें और उनके बच्चों को आरक्षण दिलाने के सब्जबाग दिखाकर वोट लेने लगे। समाज बंटता गया और राजनीतिक वर्ग सत्ता सुख भोगता गया। एक उदाहरण देखें। वर्ष 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र के पृष्ठ 44 में कृषि, उत्पादकता और उसका पारितोषिक शीर्षक चुनावी वादे में कहा गया है कि ऐसे कदम उठाए जाएंगे जिससे कृषि क्षेत्र में लाभ बढ़े और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि लागत का 50 प्रतिशत लाभ हो, लेकिन चुनाव के कुछ ही महीने बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 20 फरवरी, 2015 को अपने हलफनामे में कहा ‘किसानों को उत्पाद की लागत का 50 प्रतिशत अधिक देना संभव नहीं है, क्योंकि बाजार में इसके दुष्प्रभाव नजर आएंगे।’

आलू किसानों का शोषण सत्ता में बैठे नेता कर रहे हैं

इस बीच 2016-17 में नई सरकार के प्रति अद्भुत उत्साह दिखाते हुए किसानों ने खूब मेहनत की। ज्यादा रकबे में खेती कर रिकॉर्ड 27.6 करोड़ टन उत्पादन किया, लेकिन जहां पिछले दो साल से इंद्रदेव रूठे रहे तो इस साल कीमतें जमीन से ऊपर नहीं उठीं। नतीजतन किसान का क्रोध सारी सीमाएं पार कर गया। इन सात दशकों में अब किसान यह समझने लगा है कि आलू चाहे किसी भी किसान का हो, यदि उसकी लागत पांच रुपये प्रति किलो है और फसल तैयार होने पर मंडी में उसे दो रुपये या चार रुपये का भाव मिल रहा है तो वह साफ तौर पर समझ रहा है कि उसका शोषण कोई ऊंची जाति का जमींदार नहीं, बल्कि सत्ता के शीर्ष पर बैठा नेता ही कर रह है, भले ही वह किसी भी राजनीतिक दल का क्यों न हो। उसे न तो किसी मुलायम ने राहत दी, न ही किसी मायावती ने।

किसानों से अब कोई सरकार नाराजगी नहीं लेना चाहता

मध्य प्रदेश में दाल और महाराष्ट्र में प्याज किसान का भी यही हाल हुआ। इसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के किसान भी सड़कों पर टमाटर फेंकने को मजबूर हो गए। गुजरात चुनाव के बाद मोदी सरकार भी यह समझ गई कि अब परंपरागत तरीके से राजनीति नहीं हो सकती, क्योंकि किसानों की मौजूदा नाराजगी और आंदोलन के पीछे पहली बार न तो कोई राजनीतिक दल है और न ही कोई नेता। यह स्वत: स्फूर्त है और यही कारण है कि पूरे देश की सरकारें आज इस बात पर नजर रख रही हैं कि किसान की उपज का अधिकाधिक मूल्य खाली घोषणाओं में न सिमटकर रह जाए, बल्कि अमल में भी लाया जाए।

पीएम मोदी ने हिदायत दी कि गेहूं खरीदारी का लक्ष्य पूरा होना चाहिए

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने गेहूं खरीद में अखिलेश सरकार के 37 लाख टन खरीदारी के मुकाबले 80 लाख टन खरीदारी का लक्ष्य रखा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह प्रयास अच्छा था, लेकिन कुछ महीनों बाद आलू के गिरते भाव से प्रदेश का किसान आहत है। बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी इस बार यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वादा पूरी तरह मुकम्मल हो और यही वजह है कि हाल में हुई प्रदेशों के खाद्य सचिवों की बैठक में भी गेंहू की खरीद का लक्ष्य तो पिछले साल के 3.3 करोड़ टन से घटाकर 3.2 करोड़ टन कर दिया गया है, लेकिन हिदायत यह है कि यह लक्ष्य पूरा होना चाहिए और वह भी बिना किसी हीलाहवाली और भ्रष्टाचार के। पिछले साल गेहूं खरीद भी लक्ष्य से कम रह गई थी। उत्तर प्रदेश का लक्ष्य 40 लाख टन रखा गया है जबकि राज्य में सरकारी विक्रय केंद्रों से विभिन्न जनकल्याण योजनाओं में गरीबों को अनाज बांटने के लिए 60 लाख टन गेहूं की जरूरत होती है। ऐसा माना जा रहा है कि मोदी सरकार अबकी बार हरसंभव कदम उठाएगी कि किसानों के लिए आगामी अप्रैल में गेंहू और अक्टूबर में धान की सरकारी खरीद में कोई कोताही न रहे। चूंकि तमाम बड़े राज्यों में भी भाजपा की सरकारें हैं इसलिए इस योजना को सिरे चढ़ाने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए।

स्वस्थ राजनीति करने का सुनहरा अवसर

बहरहाल किसानों के एक राष्ट्रव्यापी गैर-राजनीतिक दबाव समूह में परिवर्तित होना बेहतर होते प्रजातंत्र की शुरुआत है और जातिवाद के दंश के खात्मे की भी। साथ ही विकासपरक राजनीति के लिए भारतीय जनता पार्टी के लिए ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के लिए भी स्वस्थ राजनीति करने का सुनहरा अवसर। बशर्ते वे इसे अवसर समझें।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]