शुभ अवसरवादी नहीं होता। जनतंत्र भारत की जीवनशैली है। चुनाव जनतंत्री महोत्सव हैं और एक असाधारण संवैधानिक कर्तव्य पालन। हम भारत के लोग चुनाव के माध्यम से अपना प्रतिनिधि और अपने पसंदीदा दल की सरकार चुनते हैं। उत्तर प्रदेश सहित देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव घोषित हो चुके हैं। आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू है। निर्वाचन आयोग अपने संवैधानिक दायित्व निर्वहन में जुट गया है, लेकिन जरूरी चुनाव सुधारों और अवसरवादी राजनीतिक तंत्र के चलते ‘स्वतंत्र’ और निष्पक्ष निर्वाचन में झोल है। राजनीतिक दल ही इस खेल के मुख्य खिलाड़ी हैं। भारतीय संविधान में राजनीतिक दलों की परिभाषा भी नहीं है। लोक प्रतिनिधित्व कानून (1951) में निर्वाचन आयोग को दल पंजीकरण के अधिकार हैं, लेकिन बड़ी से बड़ी गलती पर भी उसके पास दल के विरुद्ध कार्रवाई के अधिकार नहीं हैं। दलतंत्र परम स्वतंत्र है। जैसे भी-कैसे भी चुनावी जीत ही उसका लक्ष्य है। राजनीति भारी भरकम उद्योग बन चुकी है। बावजूद इसके राजनीतिक सुधारों पर कभी कोई सार्थक बहस नहीं होती। दलों के चंदे, काले धन का इस्तेमाल, धनबल, बाहुबल का दुरुपयोग, राजनीति का अपराधीकरण और दलों के भीतर लोकतंत्र की स्थापना आदि महत्वपूर्ण मुद्दे चुनाव के समय सांप की तरह सिर उठाकर फुंफकारते हैं, लोकतंत्र को डसते हैं। सांप चले जाते हैं और चुनाव बाद सब लाठी पीटते हैं।
संविधान निर्माता निष्पक्ष निर्वाचन को लेकर चिंतित थे। अंग्रेजी राज के भारत अधिनियम-1935 की धारा 201 में चुनाव संबंधी व्यवस्थाएं थीं। संविधान निर्माता आदर्श व्यवस्था के इच्छुक थे। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में स्वतंत्र निर्वाचन आयोग का प्रस्ताव (15 जून, 1949) रखा। उन्होंने मताधिकार के अपहरण को अपराध बताया। दोषपूर्ण चुनाव जनतंत्री नहीं होता। पं. हृदयनाथ कुंजरू ने कहा कि दोषपूर्ण चुनाव से लोकतंत्र विषाक्त होगा। आमजन चुनावों से षड्यंत्र आधारित दलों की बढ़ती ताकत से निराश होंगे। 68 बरस हो गए और हरेक स्तर के सैकड़ों चुनाव भी, लेकिन भारतीय जनतंत्र विचारनिष्ठ, आंतरिक लोकतंत्र से लैस दल प्रणाली की दिशा में एक कदम भी नहीं चला। चुनाव सुधार भी गंभीर बहस का मुद्दा नहीं बना। 1951 में लोकप्रतिनिधित्व कानून बना। 1961 में चुनाव नियम बने। आदर्श आचार संहिता नाम का एक प्रशासनिक पत्र टीएन शेषन के समय अस्तित्व में आया। न्यायालय के निर्देश पर नामांकन पत्र के साथ आपराधिक मुकदमों व संपदा का विवरण देने का प्रावधान जुड़ा। दलों ने कभी पहल नहीं की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेशक चुनावी चंदों को सार्वजनिक करने व लोकसभा विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने के सवाल उठाए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के फैसले में धर्म, जाति और भाषा के आधार पर वोट मांगने को समाज विभाजक भ्रष्ट आचरण बताया है। आदर्श चुनाव आचार संहिता की धारा-एक में पहले से ही जाति समुदाय धार्मिक या भाषाई समूहों के बीच अलगाववाद बढ़ाने वाले कृत्यों का निषेध है। कोर्ट का फैसला प्रशंसनीय व आदरणीय है। यह एकात्म राष्ट्र की ओर बढ़ा कदम है, लेकिन फैसले का निर्वचन भी जरूरी है। संविधान में अनुसूचित जातियों का उल्लेख है और पिछड़े वर्गों का भी। इनके उत्थान के लिए आयोगों के भी प्रावधान हैं। क्या दल या प्रत्याशी इन वर्गों व जातियों के उत्थान के लिए अपनी योजनाएं नहीं बता सकते? भारत का धर्म पंथिक आस्था या अंधविश्वास नहीं है। धर्म इस उपमहाद्वीप के निवासियों की जीवनशैली है। बेशक धर्म, पंथ, मजहब, जाति के आधार पर वोट अपील नहीं हो सकती, लेकिन यहां जाति, पंथ, मजहब के उल्लेख की मजेदार राजनीतिक शब्दावली है। कुछेक इसे सोशल इंजीनियरिंग कहते हैं, तो अनेक ‘सामाजिक समीकरणों का संतुलन’ बताकर जाति-पाति चलाते हैं। कुछेक दल अलगाववादी रास्ते अपनाते हैं। दरअसल अधिकांश दल अपनी विचारधारा के अनुसार लोकमत का संस्कार नहीं करते।
चुनाव सुधारों को टरकाने का इतिहास पुराना है। बीते 25 बरस में चुनाव सुधारों के लिए अनेक समितियों व आयोगों ने तमाम सिफारिशें कीं। गोस्वामी समिति 1990 में बनी थी और वोहरा समिति 1993 में, लेकिन उनके सुझावों का संज्ञान नहीं लिया गया। फिर सरकारी खर्च पर चुनाव कराने की बात उठी। इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998) ने इस पर रिपोर्ट दी। विधि आयोग ने चुनाव कानूनों में सुधार के लिए 1999 में सुझाव दिए। 2004 में और बाद में भी निर्वाचन आयोग ने चुनाव सुधारों पर कई प्रस्ताव दिए। 2008 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग द्वारा भी चुनाव सुधारों की सिफारिशें की गईं, लेकिन दलतंत्र ने अपनी सुविधा के लिए दुविधापूर्ण आचरण ही किए। राजनीति का अपराधीकरण बड़ी चुनौती है। विधायी सदनों में अपराधियों की उपस्थिति भारतीय संसदीय जनतंत्र पर काला धब्बा है। आश्चर्यजनक है कि जो पुलिस भय से भागे-भागे फिरते हैं, वही चुनावी कानूनों की खामी के कारण ‘माननीय’ हो जाते हैं। जनतंत्र का इतिहास गवाह है कि राजनीतिक व चुनाव सुधारों के कर्तव्यपालन में दलतंत्र ने स्वयं अपनी ओर से कभी कोई स्वीकृति नहीं दी। चुनावी चंदे को सार्वजनिक करने जैसे सामान्य आचरण पर भी नहीं। संविधान की उद्देशिका में लिखित ‘राजनीतिक न्याय’ की प्रतिभूति के लिए राजनीतिक सुधार जरूरी हैैं, पर यहां दल संचालन का कोई कानून नहीं है। विचार आधारित कार्यकर्ता और कार्यकर्ता आधारित दल संगठन से शक्तिशाली बनते हैं। वे आंतरिक लोकतंत्र में और भी मजबूत होते हैं, लेकिन दलों में अपने कार्यकत्र्ताओं को प्रतिष्ठित करने की आचार सारिणी का अभाव है। पार्टी प्रॉपर्टी की तरह चलती है। शक्तिहीन निर्वाचन आयोग लाचार रहता है। लेकिन देश की सत्ता पाने को अधीर और बेचैन दल या नेता दल संचालन नियमन के लिए राजनीतिक सुधार की ओर स्वयं क्यों नहीं बढ़ते? दल आदर्श राजनीतिक संस्था क्यों नहीं बनते?
आदर्श आचार संहिता पर्याप्त नहीं है। यह संसदीय कानून नहीं है। यह एक रम्य सुभाषित है। इसके तोड़क भारतीय दंड विधान, दंड प्रक्रिया संहिता और लोक प्रतिनिधित्व कानूनों में आरोपी बनते हैं। आदर्श आचार संहिता का पालन प्राय: पुलिस कराती है। राजनेताओं से खफा पुलिस कारों से छोटे झंडे भी उतार लेती है। उत्तर प्रदेश सचिवालय के सामने मुख्य मार्ग पर एक वरिष्ठ नेता ने आयोग का परिपत्र दिखाया कि परिपत्र में उल्लेखित साइज का झंडा लगाया जा सकता है। पुलिस के मुताबिक वह झंडा नापने का मीटर नहीं रखती। ऐसी सैकड़ों घटनाएं चिंताजनक हैं। उप्र में आचार संहिता उल्लंघन के 450 मुकदमें पंजीकृत हो चुके हैं। नेता गलत हो सकते हैं, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही चुनाव की आत्मा है। मर्यादा जरूरी है, पर पुलिस प्रशासन की तानाशाही नहीं। दल तंत्र भी कम जिम्मेदार नहीं। सारे चुनाव सुधार प्राय: कोर्ट के निर्देशों से ही आए हैं। दलतंत्र मूकदर्शक ही रहा है। राजनीतिक सुधारों का काम दलों को ही करना चाहिए। चुनाव सुधारों की दिशा में भी दलतंत्र को ही अगुआई करनी चाहिए। रेफरी ही नहीं खिलाड़ियों को भी संयमी होना चाहिए। खेल के आदर्श नियम गढ़ना मानना हमेशा शुभ होता है। यही जनतंत्र का स्थायी भाव है।
[ लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उत्तर प्रदेश में भाजपा विधान परिषद दल के प्रमुख रहे हैं ]