अर्थ जीविका है। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में लिखा है, ‘मनुष्यों की जीविका को अर्थ कहते हैं। मनुष्यों वाली भूमि भी अर्थ है। भूमि धन प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने के उपायों का ज्ञान अर्थशास्त्र कहा जाता है।’ अर्थज्ञान महत्वपूर्ण है। महाभारत के युधिष्ठिर ‘अर्थविद’ कहे गए हैं। नारद ने उनसे पूछा था कि क्या अर्थचिंतन करते हैं। अर्थचिंतन केवल धनचिंतन नहीं है। यहां राजव्यवस्था के लिए राजनीति को अर्थचिंतन से जोड़ने के संदेश हैं। लेकिन यह बातें पुरानी हैं। डॉ. अंबेडकर ने 1923 में ‘प्राब्लम ऑफ रूपी-रूपये की समस्या’ नाम से बड़ा शोधग्रंथ लिखा था। लिखा है कि सभी मानवीय प्रयासों, रुचियों और आकांक्षाओं का केंद्रबिंदु धन है। व्यापारिक समाज मूल्य की दुनिया में कार्य के लिए बाध्य हैं। सफलताएं और असफलताएं उत्पादन मूल्य की अपेक्षा उत्पादन लागत के मध्य सूक्ष्म गणना पर आधारित होती हैं। लिखा है, ‘यदि अधिकतम लेनदेन के फलस्वरूप स्वत: अनगिनत लाभों का रस लेना है तो मुद्रा चालन की ठोस पद्धति अपनानी होगी।’ विमुद्रीकरण ऐसा ही ठोस कदम है। सवा अरब लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित करने वाला यह निर्णय इतिहास में पहला है। इसके प्रभाव भारत के साथ नेपाल, भूटान और पाकिस्तान तक देखे जा रहे हैं। शेष विश्व भी अप्रभावित नहीं कहा जा सकता, बावजूद इसके भारतीय संसद इस बड़े मुद्दे पर गंभीर बहस नहीं कर सकी।
संसद के दोनों सदन सत्र में हैं। सत्तापक्ष बार-बार दोहरा रहा है कि वह बहस को तैयार है। विपक्ष के अपने दुराग्रह हैं। वह संसद परिसर में धरना देता है, टीवी की बहसों में जाता है। सदन में बहस के अवसर का लाभ नहीं उठाता। प्रश्नकाल विपक्ष के लिए सरकार घेरने का सुंदर अवसर होता है, लेकिन प्रश्नकाल भी बाधित है। क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि काले धन की निकासी का प्रावधान करने वाला आयकर संशोधन विधेयक बिना बहस ही पारित हो गया। विपक्ष ने विधेयक के पहले विमुद्रीकरण पर चर्चा को जरूरी बताने का आग्रह क्यों किया। कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे की मांग संसदीय परिपाटी के विरुद्ध थी। उन्होंने विमुद्रीकरण पर प्रेषित काम रोको प्रस्ताव व विधेयक पर एक साथ बहस की औचित्यहीन मांग की। कानून बनाना संसद की अतिविशिष्ट कार्यवाही है। कार्यस्थगन में तात्कालिक महत्व के विषयों पर चर्चा की मांग होती है। दोनों पर एक साथ विचार का उदाहरण संसदीय इतिहास में नहीं मिलता। विधेयक पर खंडवार और समग्रता में विचार की परंपरा है। कार्यस्थगन में ऐसा नहीं होता। खडगे ने तर्क दिया कि दोनों के विषय एक हैं। लेकिन ऐसा होने पर पीठासीन काम रोको प्रस्ताव को खारिज कर देते हैं।
भारत के आम चुनाव (2014) में काले धन की समाप्ति का विषय राजग के घोषणापत्र में था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी दिशा में 8 नवंबर को हजार और पांच सौ के नोटों की वापसी की। हड़कंप मचा। बेशक प्रारंभिक दिनों में व्यावहारिक कठिनाइयां आईं। ऐसा स्वाभाविक भी था। धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो रहा है। लेकिन गैरभाजपा दलों ने इस फैसले का तर्कहीन विरोध किया। राष्ट्रीय जिज्ञासा है कि विपक्ष इस फैसले का विरोध क्यों कर रहा है? क्या देश पर इस फैसले के बुरे आर्थिक परिणाम होंगे? क्या इससे अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी से उतर सकती है? क्या भारत का विश्व व्यापार कुप्रभावित होगा? क्या काले धन की धरपकड़ और उसे कान पकड़कर मूल अर्थव्यवस्था का धारक बनाना गलत है? विरोध में व्यावहारिक कठिनाइयों की चर्चा ज्यादा है, अर्थनीति के मूल तत्व सिरे से गायब हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह जैसे विद्वान अर्थशास्त्री ने भी निराश किया। उन्होंने पुराने अर्थशास्त्री कींस का उद्धरण सुनाया। अर्थशास्त्र का सामान्य छात्र भी कींस के तरलता पसंदगी सिद्धांत को जानता है। मुद्रा की तरलता लोकप्रिय होती ही है। यहां तरलता में बाधा कहां है? बेशक काले धन के स्वामियों की मुद्रा तरलता कुप्रभावित हुई है। डॉ. सिंह ने दस बरस तटस्थ रहकर सरकार चलाई। प्रधानमंत्री का पद प्राधिकार और उनका अर्थशास्त्रीय ज्ञान काम नहीं आया। वह मार्गदर्शन करें कि विमुद्रीकरण से प्राप्त करोड़ों की धनराशि का गरीबों के हित में सदुपयोग करने से क्या राष्ट्रीय विकास में बाधा आएगी? गरीबों की क्रय शक्ति में बढ़ोत्तरी से क्या राष्ट्रीय उपभोग और व्यापार में वृद्धि नहीं होगी? वामपंथी अपने मूल आर्थिक विचार से भटक गए हैं। वे भी काला बाजारियों पर चोट करने के फैसले का विरोध कर रहे हैं। ममता बनर्जी राष्ट्रीय नेता बनना चाहती हैं। उन्होंने यूपी की राजधानी में सभा की। पुलिस सहित 500 लोग भी नहीं आए। कांग्रेस के जनआक्रोश कार्यक्रमों में जन नहीं आए। आक्रोश कांग्रेस के खाते में गया।
विपक्ष आत्मचिंतन करे। आखिरकार क्या वजह है कि विमुद्रीकरण की व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करने वाले लोग विपक्ष के विरोध आयोजनों से अलग हैं? आमजन अर्थशास्त्र के बारीक तत्व और जीडीपी या मुद्रास्फीति जैसे शब्दों का मतलब नहीं जानते। लेकिन वे काले धन और काला बाजार से हमेशा गुस्से में रहे हैं। केंद्र कैशलेस हस्तांतरण की ओर बढ़ रहा है। यह आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक व्यवहार को भी बदलने वाली आर्थिक क्रांति है। विपक्ष को तमाम सुझावों के साथ सरकार से टकराना चाहिए था। संसद में सत्ता का पक्ष सुनना चाहिए था। अपना पक्ष तथ्यों के साथ रखना चाहिए था। गलती विपक्ष की, लेकिन देश संसद से निराश हुआ है। संसद से निराशा अंतत: लोकतंत्र से भी निराशा है। संसद का वर्तमान सत्र विमुद्रीकरण के एक सप्ताह बाद शुरू हुआ था। यह 16 दिसंबर तक प्रस्तावित है। आधा समय बीत गया, लेकिन करोड़ो लोगों को प्रभावित करने वाले विमुद्रीकरण के निर्णय पर विपक्ष और सत्तापक्ष में सार्थक संवाद नहीं हुआ। पीठासीन अधिकारियों ने अपने-अपने कक्षों में तमाम अनौपचारिक प्रयास किए तो भी नहीं। संसद परिसर में विपक्ष की मुद्राहीन हास्यास्पद एकजुटता दिखाई पड़ी तो संसद के बाहर बिखरे विपक्ष का मुद्दाहीन बिखराव। विपक्ष का कोई भी दल इस मुद्दे पर सुस्पष्ट वैचारिक दृष्टिकोण नहीं पेश कर सका है। संख्या की दृष्टि से विपक्ष का कमजोर होना बहुत बुरा नहीं होता जितना वैचारिक दृष्टि से खाली होना। फिर अर्थनीति के प्रश्नों पर दीवालिया होना तो अक्षम्य अपराध जैसा है।
[ लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र में भाजपा विधान परिषद दल के प्रमुख रहे हैं ]