मुंबई में 26/11 के आतंकी हमले के मुख्य गुनहगार जकी उर रहमान लखवी को 18 दिसंबर के दिन पाकिस्तान की एटीसी यानी आतंकवाद निरोधक अदालत ने जमानत दे दी। इसके महज दो दिन पूर्व ही पेशावर के एक स्कूल में नरसंहार की घटना को अंजाम देते हुए टीटीपी यानी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के आतंकियों ने 132 निर्दोष बच्चों की हत्या कर दी थी। लखवी को जमानत मिलने के घटनाक्रम पर भारत में स्वाभाविक रूप से रोष-आक्रोश देखने को मिला। लोगों में असंतोष की एक वजह यह भी थी कि लखवी की रिहाई के आदेश के एक दिन पहले ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने घोषणा की थी कि पेशावर नरसंहार उनके देश के लिए बदलाव का एक अहम मोड़ है। कुछ ने इस घटना को पाकिस्तान के लिए 9/11 की घटना करार दिया, जिसके बाद वहां अच्छे और बुरे आतंकवादियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

लखवी के मामले में भारत की नाराजगी को देखते हुए पाकिस्तान ने उसे एक दूसरे मामले में गिरफ्तार कर लिया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि उसे अभी जेल में ही रहना होगा, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम से आतंकवादी संगठनों को संरक्षण-समर्थन देने के मामले में पाकिस्तान नए सिरे से कठघरे में खड़ा हो गया। आतंकी संगठनों के मामले में पाकिस्तान का दोहरा रवैया पहले भी सामने आ चुका है और अब इसकी ताजा बानगी लखवी के प्रकरण में देखने को मिली है। भारत में लोगों के गुस्से को समझा जा सकता है। यही कारण है कि नई दिल्ली ने इस घटनाक्रम पर निराशा जताई, लेकिन इसे लेकर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पाकिस्तान में लश्करे तैयबा एक पसंदीदा संगठन है और सरकार से अपनी नजदीकी का वह पूरा लाभ भी उठाता है। पाकिस्तान इसे भारत के खिलाफ जारी छद्म युद्ध के लिए एक उपयोगी मूल्यवान संपदा मानता है। अब भले ही पाकिस्तान ने लखवी को जमानत दिए जाने के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करने की बात कही हो, लेकिन सच्चाई यही है कि 26/11 के गुनहगारों के मामले में सुनवाई में कोई तेजी नहीं दिखाई गई। जहां तक लखवी को जेल में रखे जाने की बात है तो वास्तविकता यही है कि गिरफ्तारी के दौरान भी उसे जेल में सरकारी अतिथि का दर्जा मिला हुआ है। जेल में रहते हुए भी वह एक बच्चे का पिता बन जाता है। इससे पता चलता है कि भारत के खिलाफ आतंकी हमले में शामिल गुनहगारों के प्रति पाकिस्तान सरकार किस तरह का बर्ताव करती है। पेशावर की घटना के बाद जो एक नई चीज उभरकर सामने आई है वह यही कि समूचे पाकिस्तान में लोगों में गुस्से और दुख की लहर है। लोग सभी आतंकवादियों के खिलाफ सरकार से कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। सवाल यही है कि क्या इससे सरकार पर वास्तविक रूप में कोई दबाव पड़ेगा और अभी तक शांत रहा पाकिस्तान का राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान इस बारे में साहसिक और बड़े बदलाव वाले कदम उठाएगा?

घरेलू आतंकी समूहों के खिलाफ जुलाई 2007 में शुरू हुई कार्रवाई पाकिस्तान में जारी आंतरिक युद्ध के मद्देनजर एक निर्णायक मोड़ थी। उस समय पाकिस्तान सेना प्रमुख और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने इस्लामाबाद स्थित लाल मस्जिद में छिपे बैठे आतंकियों के खिलाफ एक सैन्य कार्रवाई शुरू की। यह कार्रवाई मुशर्रफ के अंत की शुरुआत साबित हुई। वह तमाम राजनीतिक पार्टियां जो उन्हें समर्थन दे रही थीं और कट्टरपंथी मौलवियों से लाभान्वित हो रही थीं उन्होंने इस कार्रवाई के साथ ही मुशर्रफ सरकार से दूरी बना ली। इससे साथ ही यह प्रचारित किया गया कि मुशर्रफ के नेतृत्व में पाकिस्तान सेना इस्लाम की दुश्मन बन गई है। इसी समय अलकायदा नेता अयमान अल-जवाहिरी ने पाकिस्तान की जनता को संबोधित करते हुए आह्वान किया कि यह अपराध या तो खून अथवा पश्चाताप से धुला जा सकता है। यदि आपने इसका प्रतिकार नहीं किया तो मुशर्रफ आपमें से किसी को नहीं छोड़ेगा। आपकी मुक्ति केवल जिहाद से ही संभव है। इसके तत्काल बाद ही टीटीपी यानी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का जन्म हुआ और बाद के वर्षों में यह समूह पाकिस्तान सरकार के खिलाफ कई ङ्क्षहसात्मक गतिविधियों में शामिल हुआ। इसी संगठन ने दिसंबर 2007 में बेनजीर भुट्टो की हत्या की। बावजूद इसके तमाम दल और नेता तालिबानी विचारधारा की प्रशंसा करते हैं और मानते हैं कि दोनों ही संगठनों का उद्देश्य सच्चे इस्लाम की स्थापना है।

मुशर्रफ के बाद जनरल कयानी सेना प्रमुख बने। उन्होंने कट्टरपंथी विचारधारा के प्रति रणनीतिक नरमी दिखाई और इस धारणा को मजबूत किया कि पाकिस्तान के लिए भारत और अमेरिका दो बड़े खतरे हैं। इसी विचारधारा के तहत आतंकवाद को न्यायोचित ठहराया गया। इससे सेना में भी ङ्क्षहसा की भावना का प्रसार हुआ और पाकिस्तान में कई आतंकी गतिविधियां हुईं। इसमें नौसेना के एक जहाज के अपहरण की कोशिश भी शामिल है, जिसमें एक आंतरिक तत्व शामिल था। भारत और अमेरिका विरोधी रवैये के चलते लश्करे तैयबा और हक्कानी जैसे आतंकी समूहों को संरक्षण दिया गया। यहां तक कि टीटीपी को भी, जो आज सेना और सरकार को चुनौती दे रहा है। जनरल कयानी ने एक अस्पष्ट आतंक निरोधी नीति तैयार की, लेकिन उनके उत्तराधिकारी जनरल राहिल शरीफ ने आक्रामक रुख अपनाया और जून माह में जर्ब-ए-अज्ब आपरेशन चलाया। इससे टीटीपी और वजीरिस्तान क्षेत्र में फैले इसके आधार को नुकसान पहुंचा, जिस कारण बाद में ङ्क्षहसा और बदले की कार्रवाई शुरू हुई, जिसके तहत ही पेशावर के एक स्कूल को निशाना बनाया गया। जनरल राहिल शरीफ ने इस संगठन के खिलाफ आक्रामक सैन्य अभियान चलाने की अनुमति दी और टीटीपी ने अपनी इसी प्रतिशोध भावना के तहत सेना और सैन्य अधिकारियों के बच्चों को जानबूझकर निशाना बनाया। प्रतिङ्क्षहसा का यह दौर अभी थमने वाला नहीं है।

इस संदर्भ में पेशावर हमले के पीछे जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद ने भारत का हाथ होने की बात कही है और मुशर्रफ ने इसका समर्थन किया है। इससे साफ है कि पाकिस्तान का वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व जरूरी कड़े कदम शायद ही उठाए। हालांकि तमाम बुराइयों और गलत बातों के चलते राज्य और समाज के ताने-बाने को नुकसान पहुंच रहा है। इन समस्याओं के मद्देनजर ईमानदार कदम उठाने की आवश्यकता है। जब तक बदलाव की यह प्रक्रिया आकार नहीं ले लेती है तब तक पेशावर सरीखे हमले की और घटनाएं होती रहेंगी। ऐसे में भारत के लिए भी मुंबई जैसी और घटनाओं को रोक पाना एक चुनौती बनी रहेगी। पाकिस्तान को यह सबक सबसे पहले सीखना होगा कि कट्टरवादी और विनाशक विचारधारा को प्रश्रय नहीं दिया जा सकता।

(सी. उदयभाष्कर: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)