सैयद अता हसनैन 

रूना लैला की रूहानी आवाज में ‘दमा दम मस्त कलंदर’ सुनने के साथ ही दिलोदिमाग पर सूफियत की रूमानियत छा जाती है, मगर जब यह खबर सुनने को मिले कि सूफियत की मक्का मानी जाने वाली शहबाज कलंदर की दरगार पर दहशतगर्दों ने दर्जनों बेकसूरों की जान ले ली तो दिल में एक गहरी सी टीस उठती है। प्रेम की शक्ति से पोषित मध्यमार्गी सूफीवाद पर ऐसी चोट क्यों की जा रही है? सूफी इस्लाम की वह धारा है जिसे हिंदुओं और सिखों जैसे दूसरे मजहबों से भी बराबर का आदर मिलता है। ऐसी जगह हमला मन को आकुल ही करता है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? असल में अतीत की तमाम गलतियां इसके मूल में हैं जिनके राजनीतिक एवं सामरिक निहितार्थ भी हैं, मगर कुछ जड़ें खासी गहरी हैं जिन पर ध्यान देने की दरकार है। इसके लिए हमें अतीत के ज्यादा पुराने पन्ने नहीं पलटने होंगे। फिलहाल सबसे बड़ी तात्कालिक चिंता यही है कि पड़ोस में साल भर के अंदर एक और बड़े आतंकी हमले ने दस्तक दी है। इससे पहले बांग्लादेश में बेकसूर लोग इसकी भेंट चढ़े थे। दोनों हमलों की कड़ी एक ही है। यह कड़ी है आइएसआइएस यानी दाएश। हालांकि ढाका हमले में उसकी भूमिका पर संदेह हैं, लेकिन इतना भी नहीं कि उसे संदेह का लाभ दिया जा सके। इराक और सीरिया के अपने गढ़ों में दाएश गहरे दबाव में है। लिहाजा वह दूसरे देशों में अपनी ताकत दिखा रहा है।
शुरू में हमने सोचा कि उसकी दक्षिण एशियाई कड़ी कमजोर होगी, क्योंकि वह उन इलाकों में दाखिल नहीं होगा जहां पहले से ही कायम दहशतगर्द धड़ों से उसे प्रतिस्पर्धा करनी पड़े। अगर पाकिस्तान में हुए इस हमले में दाएश का हाथ है तो समझिए कि उसका दांव काफी ऊंचा लगा हुआ है। इन आशंकओं से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि इसे खुद पाकिस्तान की पैदाइश तहरीके तालिबान ने अंजाम देकर उसे दाएश का नाम दे दिया हो। अमूमन ऐसा देखने को मिलता नहीं कि आतंकी समूह अपने घृणित कार्यों का श्रेय किसी और को लेने दें। शायद यह ट्रंप के खिलाफ संयुक्त रूप से लामबंदी की कोई कोशिश हो जिसमें अंतरदेशीय आतंकी समूहों ने आपसी सहयोग का कोई नया तरीका तलाशा हो। अगर ऐसा है तो स्वाभाविक रूप से भारत भी जल्द ही उसका निशाना बनेगा। यहां भले ही सबकी निगाहें जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर या मध्य भारत पर लगी हों, लेकिन दक्षिण भारत को लेकर खासा सतर्क रहने की जरूरत है।
दूसरा अहम मुद्दा यह है कि कुछ तात्कालिक उपायों से चरपमंथी हिंसा से अस्थायी रूप से तो निपटा जा सकता है, लेकिन उसे व्यापक हल समझना भारी भूल होगी। पाकिस्तानी सैन्य नेतृत्व इस उपलब्धि को लेकर अपनी पीठ थपथपाता है कि पिछले एक दशक में कराची, नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर जैसे इलाकों में बेकाबू होती हिंसा का उसने दमन किया है। अपनी इन्हीं बहुप्रचारित सफलताओं के दम पर राहिल शरीफ पश्चिम एशिया में आतंक विरोधी इस्लामिक गठजोड़ के मुखिया भी बन गए। हिंसा पर कुछ हद तक लगाम लगाने में पाकिस्तानी सैन्य नेतृत्व को श्रेय दिया जा सकता है, लेकिन वह अपनी राष्ट्रीय कार्ययोजना को मूर्त रूप देने में नाकाम रहा है। इस योजना को दिसंबर 2015 में पेशावर आर्मी स्कूल में हुए भयानक आतंकी हमले के बाद बनाया गया था। सेना अपनी व्यापक जिम्मेदारियों के निर्वहन में नाकाम हो रही है, क्योंकि पंजाब केंद्रित आतंकी समूहों को लेकर उसकी नरम नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इन आतंकी समूहों को भारत के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यहां तक कि नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल की भी ऐसे समूहों से नजदीकी रही है।
अमेरिका में बदली नीतियों के अनुरूप जमात-उत-दावा के मुखिया हाफिज सईद पर कसी नकेल आतंक के खिलाफ लड़ाई का प्रभावी तरीका नहीं और अमेरिका में कोई इससे प्रभावित भी नहीं होगा। पंजाब में पीएमएल की ताकत में आतंकी रिश्तों और अन्य आपराधिक गतिविधियों की अहम भूमिका है और चुनाव भी ज्यादा दूर नहीं हैं। लिहाजा सूरतेहाल में बदलाव के हाल-फिलहाल आसार नहीं हैं। अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तान का जुनून जगजाहिर है। वहां उसके दो मकसद हैं। एक तो अपनी पैठ बढ़ाना और दूसरा भारत के प्रभाव को घटाना। इसके लिए भी उसने सामरिक धड़े तैयार किए हैं। आइएसआइ द्वारा खड़े किए तालिबान और हक्कानी नेटवर्क इसकी मिसाल हैं। पाकिस्तान इनसे आसानी से पीछा नहीं छुड़ा सकता। वहीं पाकिस्तान ने 2014 में बड़ा सामरिक मौका गंवा दिया जब अशरफ गनी ने तालिबान को लेकर सभी विकल्प सामने रखे, मगर पाकिस्तान किसी निर्णायक नतीजे पर नहीं पहुंच पाया और अफगानिस्तान सामरिक परिदृश्य से बाहर हो गया। जब आतंकी हमलों का सिलसिला लाल शहबाज कलंदर की दरगाह तक जा पहुंचा तो उसने पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा को कुपित कर दिया और अभी तक तार्किक माने जाने वाले बाजवा ने सख्त सैन्य कार्रवाई का फैसला किया। इसमें बड़ी संख्या में कथित आतंकियों को मारा गया और अफगानिस्तान में आतंकी ठिकानों पर कार्रवाई के लिए सीमा-पार अभियान भी चलाया गया।
इससे अफगानिस्तान के साथ राजनीतिक रिश्ते और तल्ख होंगे। आतंक का फन कुचलने में पाकिस्तानी सेना के दावे पर यकीन कम ही होता है। इस नीति के आधार पर पाकिस्तान अपनी पश्चिमी सीमा की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता। इस इलाके में स्थायित्व को लेकर पाकिस्तान के रणनीतिक सहयोगी चीन का भी दांव लगा है, क्योंकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की पूर्ण सफलता के लिए यहां सुरक्षा परिदृश्य बेहतर होना जरूरी है जिसके निर्माण पर चीन पानी की तरह पैसा बहा रहा है। अफगानिस्तान को लेकर अभी चीन की समझ भी पर्याप्त नहीं है। अफगानिस्तान में रूस की फिर वापसी हुई है और वह चीन और पाकिस्तान के साथ नए समीकरण बना रहा है, लेकिन ऐसे आसार कम हैं कि सामरिक नजरिये से वह पाकिस्तान की रणनीति पर मुहर लगाएगा। इस्लामिक आतंकवाद से उपजी हिंसा को लेकर उसकी अपनी चिंताएं हैं और वह किसी भी लिहाज से इसे फलने-फूलने नहीं देगा।
भारत से बदला लेने के लिए बनाई जिया उल हक की रणनीति को सिरे चढ़ाना पाकिस्तान के लिए मुश्किल होगा। इसके मूल में पाकिस्तान का वह मूर्खतापूर्ण निर्णय है जिसमें उसने सूफीवाद पर सऊदी आयातित सलाफी विचारधारा को तरजीह दी। उसका मानना था कि इससे देश की भावना इस्लामिक बनाई जा सकेगी। अब यही चरमपंथी सलाफी ब्रांड पूरी दुनिया के लिए नासूर बन गया है और इसने खुद पाकिस्तान के हितों पर गहरी चोट की है। पाकिस्तान में सूफी, शिया और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ सलाफी संघर्ष आने वाले दिनों में और तेज होगा और पाकिस्तानी सेना कितने भी जतन कर ले उस पर काबू पाने में नाकाम ही रहेगी। इकलौता उपाय चरपमंथी विचारधारा से किनारा करना है। इसके लिए शैक्षिक तंत्र, संस्थानों में धार्मिक विमर्श और इस्लाम में आस्था के मूल चरित्र में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत है। पड़ोसी की राह बदलने में भारत के लिए भी उसके अंतर्निहित खतरे बने रहेंगे। यह रातोरात बदलने वाला नहीं। यही वजह है कि भारत को समन्वय वाली संस्कृति को प्रभावी रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए। इसमें सूफीवाद बहुत काम आग आएगा। इसके लिए समूचे भारत खासतौर से जम्मू-कश्मीर में ऐसे सूफी मेलजोल को बढ़ाने और सलाफी जड़ों को काटने की जरूरत होगी।
(लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं)