क्षमा शर्मा

कुछ दिन पहले की बात है गीता कपूर नाम की अभिनेत्री को उनका बेटा मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती कराकर भाग गया। गीता कपूर पाकीजा जैसी कई मशहूर फिल्मों में काम कर चुकी हैं। अस्पताल में भर्ती कराकर भागने वाला उनका बेटा भी फिल्म इंडस्ट्री में ही कोरियोग्राफर है। अस्पताल में उनका बेटा कभी उन्हें देखने नहीं आया। गीता की एक बेटी भी है जो पुणे में रहती है। उसने भी अपनी मां की खैर-खबर लेने की कोई जरूरत नहीं समझी। गीता कपूर की खबर जब सुर्खियों में आई तो इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन डायरेक्टर्स एसोसिएशन ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस को पत्र लिखकर एक प्लाट देने की मांग की। इस पर वृद्धाश्रम बनाकर जरूरतमंद बूढ़े कलाकारों और तकनीशियनों को रखा जाएगा। इसे फिल्म निर्माताओं के सहयोग से संचालित किया जाएगा। उन्हें मुफ्त चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई जाएगी। मधुर भंडारकर, रोहित शेट्टी, डेविड धवन, महेश भट्ट, मुकेश भट्ट, अशोक पंडित आदि इस मुहिम को चलाने में लगे हैं। मधुर भंडारकर ने कहा कि अगर हम अपने ही लोगों की देखभाल नहीं करेंगे तो कौन करेगा?
वैसे भी फिल्म जगत में सफलता तक ही पूछ है। बाद में कोई किसी को नहीं पूछता। बड़े-बड़े नामों को भुलाते देर नहीं लगती। इन लोगों का कहना है कि फिल्म इंडस्ट्री के बुजुर्गों के मसले पर वे लंबे समय से काम कर रहे हैं। गीता कपूर प्रकरण के बाद इसमें और तेजी आई है। मधुर भंडारकर की बातें सुनकर पुराने जमाने के न जाने कितने कलाकार याद आने लगे। भगवान से लेकर भारत भूषण तक इसमें गिने जाएंगे, मगर बुढ़ापे के दिन उन्हें बहुत कष्ट में गुजारने पड़े। एक्स्ट्रा की भूमिकाएं तक करनी पड़ीं। इनमें बेगम पारा का मामला भी है जिन्हें कपड़े सिलकर गुजर-बसर करनी पड़ी। मुंबई में फिल्म वालों के लिए वृद्धाश्रम का खुलना अच्छी बात है। छोटे शहरों में भी ऐसा होना चाहिए, क्योंकि आज शहर दर शहर, गांव-गांव, बूढ़े अपने-अपने घरों से बेदखल किए जा रहे हैं। उनके खान-पान, इलाज, देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं। बूढ़ों को सताने में जो संबंधी अक्सर सबसे अधिक चर्चा में आते हैं, वे अपने ही बच्चों खास तौर से बेटे-बहू के होते हैं। आखिर ‘बागबां’ जैसी फिल्में हकीकत बयान करने के कारण ही तो सुपर हिट रहीं।
बुजुर्गों के लिए काम करने वाली संस्था हैल्पेज के अनुसार, अपने देश में इन दिनों हालत यह हो गई है कि दो में से एक बुजुर्ग अपने बच्चों द्वारा सताया जाता है, घर से निकाल दिया जाता है, त्याग दिया जाता है। पांच साल पहले यह संख्या पांच में से एक थी। बूढ़ों को सताए जाने के मामलों में बीमारी-हारी के अलावा जमीन-जायदाद प्रमुख मुद्दा होती है। अदालतें अकसर बूढ़ों के पक्ष में फैसला देती रहती हैं। बच्चों को दंड भी देती हैं, मगर साल दर साल बूढ़ों की मुसीबतें बढ़ती ही जाती हैं। अब से कुछ साल पहले तक बूढ़े अपने बच्चों और परिवार के लोगों की ज्यादती सहने के बावजूद उनकी शिकायत लेकर कोर्ट और थाने जाने से बचते थे, लेकिन अब बहुत से लोग कानून का सहारा लेकर अपने घरों से बच्चों को हटाए जाने की मांग करते हैं। सरकार ने 2007 में मेटेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंटस एंड सीनियर सिटीजन एक्ट पारित किया। इसके अनुसार हर प्रदेश के प्रत्येक जिले में एक वृद्धाश्रम बनाने की योजना है। प्रदेश के स्तर पर बुजुर्गों के लिए ट्रिब्यूनल बनाने की बात भी है जिसमें जाकर बूढ़े अपनी जान-माल की सुरक्षा की मांग कर सकते हैं। बहरहाल इस अधिनियम के प्रावधान बुजुर्गों के हितों की चाहे जितनी बातें करते हों, लेकिन बुजुर्गों के लिए अभी तक राज्य सरकारों ने शायद ही ऐसी कोई पहल की है। वैसे भी बुजुर्गों का काम सिर्फ वृद्धाश्रम बनाने से नहीं चलेगा। अपनों द्वारा ठुकराए जाने का जो मलाल होता है,उसका क्या कोई इलाज है? उस अकेलेपन और अपमान के अहसास का क्या जो उनके करीबी जन उन्हें कराते हैं? वे बार-बार यह अहसास दिलाते हैं कि उनकी जरूरत अब घर में तो क्या इस धरती पर ही नहीं रही। उन्होंने जिनके लिए अपनी उम्र और अपने सारे संसाधन लगा दिए, वे ही दो जून की रोटी के लिए दुत्कारते हैं। बुजुर्गों में भी पति-पत्नी में से किसी एक के जीवित रह जाने पर स्थिति और खराब होती है। न कोई सुनने वाला न कोई कहने वाला और अपनी सुध लेने वाला बचता है।
गीता कपूर जब 41 दिन बाद अस्पताल से जा रही थीं तो उन्हें लग रहा था कि वह अपने घर जा रही हैं। आखिर कौन सा घर? कोई परिजन इतने दिनों में उनसे मिलने तक नहीं आया था। अस्पताल ने एक वृद्धाश्रम में उन्हें भेजने की व्यवस्था खुद की और एक डॉक्टर को उन्हें वहां छोड़कर आने की जिम्मेदारी सौंपी। डॉक्टर का कहना था कि उनके लिए यह बेहद हृदयविदारक था कि कैसे उन्हें यह सूचना दें कि वह घर नहीं, बल्कि वृद्धाश्रम में जा रही हैं। उनके किसी बच्चे को उनका इंतजार नहीं है। जबकि गीता सुबह से ही घर जाने की खुशी में खुद ही तैयार हो रही थीं। गीता कपूर की दुखभरी कहानी इस दौर के बुजुर्गों की करुण कथा कहती है। बुजुर्गों की स्वीकार्यता समाज में कैसे बढ़े, उन्हें बेकार और व्यर्थ न समझा जाए, उनके अनुभव और ज्ञान का लाभ नई पीढ़ी को मिले, इस पर सरकारों, समाज सेवी संगठनों और सर्वोपरि परिवार वालों को सोचना होगा।
[ लेखिका साहित्यकार एवं स्तंभकार हैं ]