कुछ दिन पूर्व ही ब्रिस्बेन में जी-20 देशों के शासनाध्यक्षों की बैठक संपन्न हुई, जिसमें मेजबान ऑस्ट्रेलिया ने अंतिम रूप से तैयार किए घोषणापत्र में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को शामिल नहीं करने का हरसंभव प्रयास किया। अमेरिका और यूरोपीय संघ की ओर से दबाव डाले जाने के बाद ही तैयार किए गए अंतिम घोषणापत्र में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को जगह मिल पाई। ब्रिस्बेन घोषणापत्र में अंततोगत्वा एक पैराग्राफ जोड़ा गया, जो जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के लिए प्रभावी कार्रवाई की वकालत करता है। ऐसा इसलिए ताकि निरंतर रूप से आर्थिक विकास को जारी रखा जा सके और व्यावसायिक निश्चितता तथा निवेश को बरकरार रखा जा सके। इस बारे में जी-20 ने पूर्व में किए गए समझौतों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई और 2015 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कनवेंशन के 21वें सम्मेलन को लेकर अपनी सहमति जताई।

जी-20 देश जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान के प्रति अनिच्छुक दिखे। हालांकि दुनिया के दो सर्वाधिक प्रदूषण करने वाले देशों अमेरिका और चीन के राष्ट्रपतियों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिए आपसी समझौते की घोषणा की। इस समझौते के मुताबिक चीन 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड में कटौती करने के लिए अपना सवरेत्तम प्रयास करेगा, जबकि अमेरिका 2030 तक इसमें 28 फीसद की कटौती करेगा जो कि उसकी पूर्व की प्रतिबद्धता के मुताबिक वर्ष 2005 के स्तर पर होगा। इस समझौते को लेकर अमेरिकी मीडिया ने तारीफ करते हुए कहा है कि जलवायु परिवर्तन के मसले में किया गया यह समझौता प्रदूषण फैलाने वाले दोनों ही देशों के लिए एक बेहतर डील अथवा सौदा है। नई दिल्ली स्थित सीएसई यानी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट ने अपने एक विश्लेषण में बताया है कि अमेरिका और चीन दोनों ही देशों ने कुछ न करने की पारस्परिक सुविधा के लिहाज से यह समझौता किया है जो दोनों ही देशों को प्रदूषण फैलाने की अनुमति प्रदान करता है। इस समझौते के मुताबिक चीन ने कोई लक्ष्य नहीं तय किया है। आगामी 16 वर्षों में उसे प्रदूषण फैलाने वाली गैसों का उत्सर्जन कम करना है, लेकिन ध्यान रहे कि इस समय तक प्रति व्यक्ति गैस उत्सर्जन का स्तर तकरीबन 12 से 13 टन होगा। इसी तरह अमेरिका ने 2020 तक उत्सर्जन में 17 फीसद कटौती का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसका मतलब है कि उसे फिलहाल राहत की सांस मिल गई है और यहां भी 2030 तक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन का स्तर 12 से 13 टन के बराबर होगा।

अमेरिका और चीन, दोनों ने ही अपने हिसाब से लक्ष्यों का निर्धारण किया है और दुनिया न केवल उनको चुपचाप देख रही है, बल्कि उनकी सराहना भी कर रही है। इसके विपरीत भारत की स्थिति यही है कि वर्तमान में यहां प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन तकरीबन 1.6 टन के बराबर है और 2030 तक इसके 4 टन से अधिक बढऩे की संभावना नहीं है। अमेरिका और चीन दोनों ही 40 फीसद से अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं, लेकिन इस समझौते के बाद वे बिना किसी बाधा के अगले 16 वर्षों तक ऐसा करते रहेंगे, जिसका वैश्विक जलवायु पर खतरनाक प्रभाव होगा। इसका सबसे खराब प्रभाव विकासशील और सबसे कम विकसित देश महसूस कर रहे हैं। निराशाजनक यह है कि ये देश उस गड़बड़ी की कीमत चुका रहे हैं जो उन्होंने की ही नहीं है। तापमान में वृ़द्धि के कारण वैश्विक जलवायु के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इसका प्रभाव ग्लेशियरों के पिघलने और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी के रूप में देखने को मिलेगा। इसका सबसे अधिक खतरनाक प्रभाव खाद्यान्नों और पीने के पानी पर पड़ेगा। तमाम विशेषज्ञों का कहना है कि इससे विभिन्न देशों के बीच और देश के अंदर भी राजनीतिक संकट बढऩे की संभावना है।

ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन का एक तिहाई हिस्सा वास्तव में कृषि और वनों से होता है। इस बारे में 15 कृषि शोध केंद्रों का संचालन करने वाली संस्था सीजीआइएआर यानी कंसल्टेटिव ग्रुप ऑन इंटरनेशनल एग्रीकल्चर रिसर्च का कहना है कि जलवायु परिवर्तन में बदलाव लाने के लिए कृषि क्षेत्र से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को सीमित किया जाना महत्वपूर्ण है। वनों के उन्मूलन और भूमि प्रयोग में बदलाव से तकरीबन 12000 मेगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन प्रति वर्ष वातावरण में होता है। ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में इतना अधिक योगदान जलवायु असमानता को जन्म देगा। जलवायु परिवर्तन में कृषि की उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए जी-20 देशों से खाद्य सुरक्षा के मुद़्दे पर दूरदर्शी नीति अथवा रुख की अपेक्षा थी, लेकिन यह उम्मीद अधूरी रही। खाद्य सुरक्षा को लेकर 2010 में सियोल में एक सहमति बनी थी और कृषि तथा खाद्यान्न कीमतों में अस्थिरता को लेकर 2011 में फ्रांस की अध्यक्षता में एक एक्शन प्लान अथवा कार्ययोजना तैयार की गई थी, लेकिन यह सारी पहल कृषि बाजार सूचना तंत्र के निर्माण पर ही जाकर थम गई। इसी तरह पश्चिमी अफ्रीका में खाद्यान्न भंडार के लिए किया गया प्रयास भी नाकामी की भेंट चढ़ गया। इस पृष्ठभूमि में ही जी-20 के एजेंडे से खाद्यान्न सुरक्षा का मुद्दा गायब नजर आया। 2013 के घोषणापत्र में जी-20 ने खाद्य सुरक्षा के मुख्य विषय पर बल दिया था। इसके तहत कृषि उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ वैश्विक खाद्य तंत्र की मजबूती के लिए निवेश तथा व्यापार को जरूरी माना गया। इसे आर्थिक विकास और रोजगार को प्रोत्साहन देने के लिए भी जरूरी समझा गया। उत्पादकता बढ़ाने के लिए छोटे किसानों की मदद की बात कही गई, लेकिन कुल मिलाकर यह प्रस्ताव उस समस्या के समाधान की दिशा में कोई पहल नहीं करता, जिस कारण आज वैश्विक कृषि जलवायु परिवर्तन के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है। सीजीआइएआर भी इस बात को स्वीकार करता है कि खाद्यान्नों से संबंधित उत्सर्जन और इसका जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव फसलों के उत्पादन के तरीकों को पूरी तरह बदलने वाला है।

इस बारे में वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम का भी कहना है कि स्थितियों से हमने कोई सबक नहीं लिया है। बढ़ते तापमान और जल की कमी से विकासशील देशों में 2050 तक गेहूं की 13 फीसद और चावल की उपज 15 फीसद तक गिरने की संभावना है। सीजीआइएआर के मुताबिक भी आलू, केला और दूसरी नकदी फसलों की उपज में तीव्र गिरावट देखने को मिलेगी। भारतीय कृषि शोध संस्थान यानी आइएआरआइ ने भी आने वाले वर्षो में उत्पादन में गिरावट की बात कही है, लेकिन इस बारे में कोई समन्वित प्रयास देखने को नहीं मिल रहा है। खेती के टिकाऊ और पर्यावरण अनुकूल उपायों पर जोर देने की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है।

(देविंदर शर्मा: लेखक खाद्य एवं कृषि नीतियों के विश्लेषक हैं)