प्रशांत मिश्र

बहुदलीय लोकतंत्र की राजनीतिक चिंतनधारा में विकल्प केंद्र बिंदु है। भारत जैसे सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधता से भरे सामाजिक परिवेश में विकल्पशून्यता की कल्पना बेमानी है। लोकतांत्रिक ढांचे में एक मजबूत सरकार या सत्तापक्ष की जितनी जरूरत है उतना ही अहम है एक धारदार और मजबूत विपक्ष का होना, मगर बीते कुछ सालों में भारतीय राजनीति के कैनवास पर विपक्ष के सिकुड़ते-सिमटते दायरे ने सियासी शून्यता जैसे सवालों को बरबस जन्म दिया है। नए साल में विपक्षी सियासत के पहरेदारों खासकर कांग्रेस को न केवल इन सवालों की चुनौतियों से रुबरू होना पड़ेगा, बल्कि इसका समाधान भी निकालना होगा। समाधान तभी निकलेगा जब कांग्रेस नकारात्मक को छोड़कर सकारात्मक राजनीति की ओर बढ़ेगी। विपक्षी सियासत के बीते एक साल के सफरनामे पर गौर करें तो तस्वीर बहुत धूमिल है। कांग्रेस में राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष की कमान थामने के बाद लंबे समय से चल रही दुविधा का अंत जरूर हुआ है, मगर नेतृत्व का चेहरा बदलने भर से ही कांग्रेस का सियासी कायाकल्प हो जाएगा, ऐसी कोई सूरत अभी दिखाई नहीं दे रही। पार्टी की रीति-नीति के हिसाब से सोनिया गांधी के बाद राहुल ही कांग्रेस के कर्णधार होंगे, इसमें शायद ही लोगों के मन में कोई संदेह रहा हो। यह हकीकत भी किसी से छिपी नहीं कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से पार्टी की सियासत का संचालन राहुल ही कर रहे हैं और इस दौरान 15 राज्यों में शासन करने वाली कांग्रेस 2017 खत्म होते-होते चार सूबों तक सिमट कर रह गई है।
सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी के इस हालत में पहुंचने के बाद भी अभी तक कोई ऐसा बुनियादी बदलाव होता हुआ नजर नहीं आया है जिससे भविष्य की उम्मीद दिखायी दे। इस बात को आज भी नकारा नहीं जा सकता कि भाजपा के बाद कांग्रेस ही दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है, मगर मसला चाहे उत्तर प्रदेश चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर सूबे में अपने अस्तित्व के समर्पण का कदम हो या फिर बिहार में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से दो-चार लालू परिवार के साथ खड़े होने का। इन दोनों कदमों से यह जाहिर हुआ कि कांग्रेस को अपनी राजनीतिक क्षमताओं पर ज्यादा भरोसा नहीं और गठबंधन की बैशाखी के सहारे ही वह भाजपा के प्रभुत्व को चुनौती देने की राजनीति को आगे बढ़ा रही है। विपक्षी दल के तौर पर विकल्प की राजनीति के लिहाज से पुराने ढर्रे की यह सियासत बदलते भारत की आकांक्षाओं पर आगे खरा उतरेगी, इसमें संदेह है। शायद यही वजह रही कि नीतीश कुमार जैसे मंझे हुए राजनीतिज्ञ ने दुबारा एनडीए-भाजपा के साथ जाने का फैसला किया। इसे लेकर कोई दो मत नहीं हो सकता कि विपक्ष का काम सरकार की खामियां और विफलताएं उजागर करना है, मगर विपक्ष की पूरी ऊर्जा केवल इसी में लगे और वैकल्पिक सियासी एजेंडा दिखाई-सुनाई न दे तो फिर ऐसी राजनीति केवल प्रतिक्रिया की बुनियाद पर आधारित होकर रह जाती है। जनता ऐसी राजनीति पसंद नहीं करती। कर ढांचे में बदलाव के लिए जीएसटी जैसे क्रांतिकारी कदम और भ्रष्टाचार के खिलाफ नोटबंदी सरीखे सख्त फैसले का कांग्रेस जैसी अनुभवी पार्टी की ओर से विरोध उसकी प्रतिक्रियावादी राजनीति का ही प्रमाण बना। इसे लोकसभा में कांग्रेस की 44 की संख्या पर पहुंचने की कमजोरी कही जाए या सत्ता से बाहर रहने की बेचैनी, पर वास्तविकता यही है कि सहयोगी क्षेत्रीय दलों के दबाव में कांग्रेस अपना वैकल्पिक राजनीतिक एजेंडा भूलती जा रही है।
नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ जाने से पहले कई बार खुले तौर पर कांग्रेस को वैकल्पिक सकारात्मक एजेंडे के साथ जनता के बीच जाने की खुली सलाह दी थी। उसने इसकी अनदेखी की और इसका राजनीतिक परिणाम यह रहा कि विपक्षी गोलबंदी का अभियान नीतीश के एनडीए के साथ जाते ही धराशायी हो गया और इस तरह विपक्षी राजनीति को खड़ा करने के लिए डाली गई नींव 2017 में ही पूरी तरह ध्वस्त हो गई। राष्ट्रपति चुनाव हो या उपराष्ट्रपति चुनाव, विपक्षी राजनीति का पताका लहराते रहने का संदेश देने के लिए कांग्रेस ने 17-18 पार्टियों को इकट्ठा कर माहौल बनाने का प्रयास जरूर किया और इस क्रम में नीतीश के झटके से उबरने का संदेश देने की भी कोशिश की, पर जमीनी सियासत के धरातल पर देखा जाए तो विपक्षी गोलबंदी का यह मंच आपसी अंतर्विरोधों का अखाड़ा है। शायद इसीलिए चंद मौकों पर अपनी-अपनी सियासत बचाने की मजबूरी के अलावा विपक्षी गोलबंदी का यह कुनबा किसी प्रभावी भूमिका में नजर नहीं आया। मसलन पश्चिम बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस एक तरफ हैै तो कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां दूसरी तरफ। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की आपसी लड़ाई का इतिहास सबके सामने है। इन अंतर्विरोधों के बीच राहुल गांधी के लिए शरद पवार, ममता बनर्जी और मायावती जैसी धुरंधर नेता को साधे रखना कितना आसान होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है। राहुल गांधी के लिए इन नेताओं के बीच अपनी सदारत कबूल कराना सहज नजर नहीं आ रहा, खासतौर से यह देखते हुए कि इन क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक आकांक्षाएं भी एक खास परिधि से बाहर नहीं झांकती।
तमाम सियासी झटकों के बावजूद अभी तक कांग्रेस वैकल्पिक सियासी एजेंडे की राह पर जाती दिखाई नहीं पड़ रही है। पार्टी के नए शहंशाह राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के बाद शब्दों के जरिये सकारात्मक एजेंडे की बात कही है तो यह उम्मीद की जाती है कि कांग्रेस शायद अपनी भूलों से सीखकर आगे बढ़ेगी, लेकिन वास्तविकता यही है कि गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर हुआ है तो इसमें सबसे बड़ा योगदान हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर जैसे उन नए चेहरों का है जो कांग्रेस की सियासी परिधि के बाहर के हैं। गुजरात के चुनावी निष्कर्ष को अपनी कामयाबी मान लेना कांग्रेस के लिए बड़ी भूल होगी। जिस तरह हार्दिक-मेवाणी-अल्पेश जैसे नए चेहरे सामने आकर राजनीति में अंतर पैदा कर रहे हैं वह कांग्रेस के लिए ज्यादा चिंता की वजह है। अपनी ताकत का अहसास होने के बाद ये चेहरे कांग्रेस की कमजोरी देखकर खुद ही ताल ठोकने मैदान में उतर जाएं तो हैरत नहीं होगा।
अपनी कमजोर हुई राजनीतिक पकड़ की वजह से दिल्ली में आम आदमी पार्टी जैसे नए विकल्प उभरने का उदाहरण कांग्रेस के सामने है। पार्टी इसका बड़ा खामियाजा भुगत रही है। भाजपा का जनाधार जिस मुकाम पर पहुंच गया है उसमें अगले कुछ दशक तक पार्टी की जमीन उखड़ती नहीं दिख रही। जाहिर तौर पर जब मुकाबले में एक तरफ बेहद मजबूत खिलाड़ी हो तो कांग्रेस के लिए तत्काल विकल्प बनने की राह इतनी आसान भी नहीं, लेकिन मुकाबले में बने रहने का संदेश देना भी सियासी रूप से उतना ही अहम है। राजनीति में विकल्प के रूप में अपनी प्रासंगिकता को जीवंत बनाए रखना है तो फिर नए साल में कांग्रेस को अपनी राजनीतिक चिंतन की दशा-दिशा को भी नया स्वरूप देना होगा, अन्यथा इतिहास उसे माफ नहीं करेगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैैं ]