संजय गुप्त
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरह 20 माह के अंदर राजद और कांग्रेस के साथ बने अपने महागठबंधन को तोड़कर फिर से भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के साथ जाने का फैसला किया वह बिहार के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करने वाला घटनाक्रम है। उनके इस फैसले से विपक्ष कहीं ज्यादा कमजोर राजनीतिक जमीन पर दिखने लगा है। नीतीश ने अपने फैसले से साबित किया कि वह सुशासन के प्रति प्रतिबद्ध नेता की अपनी छवि से समझौता करने को तैयार नहीं। उन्हें सुशासन बाबू की उपाधि तब मिली थी जब उनका दल जदयू भाजपा के साथ मिलकर बिहार में सरकार चला रहा था। इस दौरान उन्होंने बिहार को बदहाली से बाहर निकालने का जो काम किया उसकी तारीफ आज भी होती है। 2013 में जब भाजपा और जद-यू स्वाभाविक सहयोगी के तौर पर काम कर रहे थे तब नीतीश ने भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम का विरोध करना आरंभ कर दिया। उन्होंने भाजपा की ओर से मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के पहले ही उसके साथ 17 साल पुराने रिश्ते तोड़ लिए। उस वक्त यह माना गया था कि उन्होंने अपना वोट बैंक बचाए रखने के लिए ऐसा फैसला लिया, क्योंकि वह भाजपा से तभी से दूरी बनाने लगे थे जबसे मोदी के बारे में यह चर्चा होने लगी थी कि वह राजग की ओर से पीएम पद के दावेदार हो सकते हैं। भाजपा से रिश्ते तोड़ने के बाद उन्होंने राजद और कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार चलाई, लेकिन जब 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के आगे बिहार में जदयू और राजद का लगभग सफाया हो गया तो वह लालू यादव से हाथ मिलाने के लिए मजबूर हुए। जल्द ही कांग्रेस भी उनके साथ आ गई और इस तरह महागठबंधन बना। इस महागठबंधन का उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण भाजपा को पराजित करना था। इस उद्देश्य की प्राप्ति हुई और फिर नीतीश कुमार यहां तक कहने लगे कि वह भारत को संघ मुक्त बनाने का काम करेंगे।
राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना नीतीश कुमार के लिए राजनीतिक रूप से भले ही सुविधाजनक रहा हो, लेकिन यह उनकी छवि पर भारी पड़ रहा था। नीतीश और लालू का राजनीतिक जीवन लगभग एक साथ शुरू हुआ था, लेकिन दोनों के राजनीतिक तौर-तरीके हमेशा से अलग रहे। इसीलिए महागठबंधन को बेमेल माना गया। इस गठजोड़ की नींव कमजोर थी। जल्द ही यह दिखने भी लगा था कि खोखली पंथनिरपेक्षता पर आधारित यह गठजोड़ ज्यादा दिन नहीं चलेगा। बेमेल गठबंधन के कारण बिहार में विकास का काम शिथिल होने लगा था और कानून एवं व्यवस्था से जुड़े सवाल भी बार-बार सिर उठाने लगे थे। लगता है कि नीतीश को तेजस्वी के गंभीर आरोपों से घिरने के पहले ही यह अहसास होने लगा था कि महागठबंधन में रहने के कारण उनकी राजनीतिक पूंजी का क्षरण हो रहा है। शायद इसी कारण उन्होंने भाजपा की ओर झुकाव दिखाना शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने नोटबंदी के फैसले की तारीफ की और फिर बेनामी संपत्ति वाले विधेयक की। इसके बाद जब भाजपा ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का फैसला किया तो उन्होंने उनका भी समर्थन किया। हालांकि नीतीश का यह रवैया राजद और कांग्रेस को रास नहीं आया, लेकिन वह अपने फैसले से डिगे नहीं। दरअसल उसी समय यह स्पष्ट होने लगा था कि वह जल्द ही महागठबंधन से अलग हो सकते हैं। इसके आसार तब और बढ़ गए थे जब तेजस्वी इस्तीफा न देने पर अड़ गए। राष्ट्रपति चुनाव के बाद नीतीश ने जिस तरह आनन-फानन इस्तीफा दिया और भाजपा ने उन्हें समर्थन देने का ऐलान किया उससे यही लगता है कि सब कुछ पहले ही तय हो गया था।
बिहार में यकायक हुए राजनीतिक परिवर्तन से 2019 के आम चुनाव में भाजपा के खिलाफ एकजुट होकर उतरने के विपक्ष के मंसूबे पूरी तरह ध्वस्त हो गए हैं। नीतीश को विपक्ष की संभावित एकता की प्रमुख धुरी माना जा रहा था और अब जब वह राजग से जुड़ गए तो विपक्ष के पास ऐसा कोई नेता नहीं बचा है जिसे मोदी को चुनौती देने वाले सशक्त चेहरे के रूप में पेश किया जा सके। कांग्रेस के लिए यह एक बड़ा झटका है, क्योंकि उसकी सोच यह थी कि वह क्षेत्रीय दलों की मदद से मोदी को चुनौती देने में सफल रहेगी। कांग्रेस को इस तरह का झटका पहली बार नहीं लगा। अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी के कारण उसे बार-बार मात खानी पड़ रही है। इसके बावजूद वह चेतने और यह समझने को तैयार नहीं कि मौजूदा रीति-नीति से काम चलने वाला नहीं है। राहुल को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि वह नीतीश कुमार को महागठबंधन के साथ रखें और किसी तरह लालू यादव को तेजस्वी के इस्तीफे के लिए मना लें। आखिर मामला भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों का था जिसके छीटें कांग्रेस पर भी पड़ रहे थे। इसके बावजूद राहुल नीतीश कुमार को यह आश्वासन नहीं दे पाए कि वह भ्रष्टाचार के मामले में सख्त रवैया अपनाएंगे और तेजस्वी से इस्तीफा देने को कहेंगे। पता नहीं क्यों राहुल लालू यादव को इसके लिए नहीं मना पाए कि विपक्षी एकता के लिए वह तेजस्वी के मंत्री पद को महत्व न दें जबकि एक समय उन्होंने ही भ्रष्ट नेताओं को राहत देने वाले अध्यादेश को फाड़ा था। जब बिहार में उथलपुथल जारी थी तब वहां के कांग्रेसी नेता राहुल से मिलने के लिए समय मांगते रहे, लेकिन वे तीन-चार दिन बाद भी खाली हाथ रहे। राहुल अपने नेताओं की ऐसी अनदेखी पहले भी कर चुके हैं। यही कारण है कि उनके नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं।
विपक्षी दल महागठबंधन से अलग हुए नीतीश कुमार पर चाहे जो आरोप लगाएं, यह स्पष्ट है कि नीतीश के लिए बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन बनाए रखना तभी संभव था जब उनकी छवि पर कोई दाग न आए। वह शायद इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि अगर लालू परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप इसी तरह लगते रहे तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उनके लिए जनता को समझाना कठिन होगा। नीतीश ने भाजपा के साथ फिर से नाता जोड़कर अब तक हुए नुकसान की एक हद तक भरपाई कर ली है। उनके इस फैसले का एक लाभ यह भी होगा कि अब बिहार के लिए केंद्र की तमाम योजनाएं संकीर्ण राजनीति का शिकार नहीं होंगी। बिहार के राजनीतिक घटनाक्रम ने एक बार फिर साबित कर दिया कि 2014 के बाद से भाजपा को नेतृत्व दे रहे नरेंद्र मोदी और अमित शाह किसी भी मौके को छोड़ना नहीं चाहते। वे लगातार अपनी जमीन मजबूत करते जा रहे हैं और दूसरी ओर कांग्रेस बार-बार मौके गंवाती जा रही है और अपनी राजनीतिक जमीन भी खो रही है। कांग्रेस की इस दुर्गति के लिए खुद उसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी ही अधिक जिम्मेदार हैं। उनकी राजनीतिक अकुशलता लगातार सामने आ रही है। कांग्रेस को इस पर विचार करना चाहिए कि नाकामी का सामना करने बाद भी वह कब तक नेतृत्व के लिए राहुल गांधी की तरफ देखती रहेगी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं  ]