सुब्रमण्यम स्वामी की ओर से श्रीराम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में प्रतिदिन सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका डाली गई थी उस पर जब सर्वोच्च अदालत ने यह कहा कि क्या कोर्ट के बाहर इस संवेदनशील मसले पर आपस में सहमति नहीं बन सकती है तो ऐसे सवाल उठ खड़े हुए कि कहीं सर्वोच्च न्यायालय अपने कर्तव्य बोध से दूर जाने की कोशिश तो नहीं कर रहा है? अदालत को यह पता होना चाहिए था कि इसके पहले भी दोनों पक्षों में मेल-मिलाप के प्रयास किए जा चुके हैं। इसी तरह सरकारी और गैर सरकारी, दोनों स्तरों पर समझौता कराने की गंभीर कोशिशें भी की जा चुकी हैं।

यह भी सभी को ज्ञात होगा कि इन कोशिशों के दौरान कुछ लोगों ने किस तरह भगवान श्रीराम के अस्तित्व को चुनौती देने की कोशिश की। हद तो तब हो गई कि जब संप्रग सरकार ने रामसेतु मसले पर सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र देकर श्रीराम के अस्तित्व को ही नकार दिया था। आखिर श्रीराम जन्मभूमि का ताला खुलवाने से लेकर मंदिर के शिलान्यास एवं विवादित ढांचे के ध्वंस होने तक कांग्रेस किस बात का इंतजार करती रही? 1986 में विश्व हिंदू परिषद ने इस विषय को एक जन आंदोलन के रूप में खड़ा किया।

1989 के बाद राम मंदिर के प्रश्न पर भाजपा का भी समर्थन मिला। उसकी राष्ट्रीय कार्य परिषद की बैठक में प्रस्ताव के रूप में यह स्वीकार किया गया कि श्रीराम मंदिर निर्माण राष्ट्रीय अस्तित्व का प्रश्न है। इसके बाद राम मंदिर के प्रश्न पर देश में बहस चल पड़ी, परंतु देश के तत्कालीन सत्ताधारी इस विषय को समझ नहीं सके कि जिस देश का विभाजन द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के कारण हुआ हो उसके राष्ट्रीय अस्तित्व के प्रश्नों को नकारना कितना घातक हो सकता है? अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वंस के बाद कुछ ऐसे निर्णय लिए गए जिससे हिंदू-मुस्लिम के बीच खाई और गहरी होती गई।

राम मंदिर आंदोलन को हथियाने के लिए कांग्रेस ने क्या-क्या कर्म नहीं किए? तत्कालीन गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवैद्यनाथ की अध्यक्षता में विश्व हिंदू परिषद द्वारा संचालित श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के समानांतर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा रामजन्म भूमि पुनरोद्धार समिति, विश्व हिंदू परिषद के श्रीराम जन्मभूमि न्यास एवं न्यास मंच के विरुद्ध स्वामी स्वरूपानंद के ही नेतृत्व में रामालय न्यास का निर्माण कराने से लेकर चंद्रा स्वामी द्वारा अयोध्या में सोमयज्ञ का आयोजन और कांग्रेस समर्थित भारत साधु समाज द्वारा अखिल भारतीय संत समिति के विरुद्ध वातावरण बनाने की पहल कांग्रेस के स्तर पर प्रत्यक्ष-परोक्ष स्तर पर की गई।

इस परिस्थिति में भी मुस्लिम समाज मस्जिद को लेकर उतना पूर्वाग्रही नहीं था। नरमपंथी एवं सदाशयता दिखाने वाले मुस्लिम वर्ग ने यह कहा कि विवादित स्थल पर की गई नमाज खुदा को कबूल नहीं होती और इसलिए यह स्थान हिंदुओं को दे देना चाहिए। इसके जवाब में कांग्रेस समर्थित संतों ने यह दिखाना चाहा कि हिंदू समाज धड़ों में विभाजित है। उन्होंने ही यह चर्चा भी आगे बढ़ाई कि एक ही जगह पर मंदिर-मस्जिद दोनों बनें। इस तरह बैताल फिर उसी डाल पर कहावत चरितार्थ की गई। अयोध्या मसले को लेकर यह प्रश्न उठ सकता है कि हिंदू समाज का असल प्रतिनिधित्व कौन करता है? बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, निर्मोही अखाड़ा अथवा अन्य वे लोग जो न्यायालय में पक्षकार बने हैं?

न्यायालय द्वारा निर्णय इन्हीं पक्षों पर तो बाध्यकारी होगा। शाहबानो प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला संसद द्वारा पलटकर कांग्रेस ने पहले ही एक राह दिखा रखी है। न्यायालय के बाहर पूर्व आइएएस किशोर कुणाल से लेकर पलोक बसु अथवा कांची के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती जी तक इस मसले को सुलझाने की कोशिश कर चुके हैं। उनके प्रयास इसलिए विफल हुए, क्योंकि इन वार्ताओं में एक अघोषित शर्त थी कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद को न तो पक्ष बनाया जाए और न ही श्रेय दिया जाए। प्रश्न यह उठता है कि जिन लोगों ने इस आंदोलन को अपना रक्त देकर सींचाजब वे पक्षकार ही नहीं होंगे तब तक इस मसले का हल कैसे निकलेगा?

जिस कालखंड में बाबर के कहने पर मीर बकी ने श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को तोड़ा उस समय वैष्णव परंपरा के अखाड़ों का गठन ही नहीं हुआ था फिर स्वामित्व को लेकर उनके पीछे कौन से राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंक रहे हैं? क्या महंत ज्ञानदास जी एवं जफरयाब जिलानी के बैठने मात्र से इस समस्या का समाधान निकल जाएगा? जिनके पास हिंदू समाज का प्रचंड जनसमर्थन है अथवा जो मुस्लिम समाज में बड़ा प्रभाव रखते हैं उनमें से कोई भी न्यायालय के अंदर पक्षकार नहीं है। पहले हुई वार्ताओं के विफल होने का कारण भी यही था।

समाज तो उन पक्षों केसाथ खड़ा है जो पक्षकार ही नहीं हैं फिर वार्ता करने वाले लोगों की कौन सुनेगा? उनकी बातों को तवज्जो कौन देगा? क्या न्यायालय की ओर से किए गए निर्णय को समाज के बीच मनवाने की सामथ्र्य इन पक्षकारों में है? अच्छा होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्वयं पहल करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-संघचालक एवं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष को साथ लेकर इस विवाद का हल निकालने का प्रयास करें।

स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती

(लेखक अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री हैं)