इसे कोई स्वीकार करे या नहीं, लेकिन यह एक तथ्य है कि आज की राजनीति में तमाशे और दिखावे के लिए गुंजाइश कहीं अधिक बढ़ गई है और वह संसद में भी नजर आने लगी है। राजनीतिक दल अब आम जनता और मीडिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए जानबूझकर तमाशेबाजी करते हैं। चुनावों के समय यह तमाशेबाजी कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। इन दिनों यह बढ़ी हुई तमाशेबाजी संसद के दोनों सदनों में भी देखने को मिल रही है। केरल के लोकसभा सदस्य एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री ई अहमद के निधन के बाद से संसद के दोनों सदनों में विपक्षी दल और खासकर कांग्रेस एवं वामपंथी दल यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके उपचार में लापरवाही की गई और उनके निधन की घोषणा भी देर से की गई।

पता नहीं ऐसा हुआ या नहीं, लेकिन यह जगजाहिर है कि उनके निधन के बहाने यह कोशिश खूब हुई कि एक फरवरी को बजट पेश न किया जाए। सबसे ज्यादा कोशिश उस कांग्रेस की ओर से हुई जिसके समय में दो बार लोकसभा सदस्यों के निधन के बावजूद बजट निर्धारित दिन ही पेश हुआ। 1954 में सांसद जेपी सोरेन के निधन के बावजूद रेल बजट उसी दिन पेश हुआ। इसके बाद 1974 में मंत्री एमबी राणा के निधन के बाद भी आम बजट पेश हुआ। ऐसी नजीर होने के बावजूद ई अहमद के निधन पर बजट टालने की मांग की गई। जो नजीर कांग्रेस के सत्ता में रहते समय स्थापित हुई उसके खिलाफ कांग्रेसी सांसदों की ओर से ही सबसे ज्यादा हंगामा करने को सियासी शरारत के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।

ई अहमद के निधन पर बजट टालने की मांग मुख्यत: कांग्रेस और वाम दलों के सांसदों ने इसके बावजूद की कि अन्य विपक्षी दलों के सांसद इस मांग से सहमत नहीं थे। क्या यह संभव है कि केवल कांग्रेस और वाम दलों के सांसदों पर अज्ञानता तारी हो और उन्हें ही यह जानकारी न रही हो कि निर्धारित दिन बजट पेश करना संवैधानिक जरूरत भी होती है और वह किसी सांसद के निधन के बावजूद टाला नहीं जाता? चूंकि ई अहमद केरल से लोकसभा का प्रतिनिधित्व करते थे इसलिए वहां के मुख्यमंत्री ने इस आशय का बयान जारी करने में देर नहीं की कि उनके निधन के बाद भी बजट पेश करके केंद्र सरकार ने उनके प्रति असम्मान प्रदर्शित किया। कांग्रेस और वाम दलों के सांसदों की मानें तो सरकार ई अहमद के निधन की सूचना इसलिए छिपाना चाहती थी ताकि बजट पर कोई असर न पड़े, लेकिन जब किसी सांसद के निधन पर बजट टालने की कोई परंपरा ही नहीं तो फिर इस आरोप का क्या औचित्य?

चूंकि तमाशे की राजनीति औचित्य की परवाह नहीं करती इसलिए बुधवार यानी बजट वाले दिन अहमद के निधन की घोषणा में देरी का आरोप लगाने वाले सांसदों ने शुक्रवार को भी इसी आरोप को उछालकर हंगामा किया। 1शुक्रवार को लोकसभा को पंगु करने के बाद सोमवार को भी नए सिरे से ई अहमद के मामले को उठाया गया। हंगामा करने वाले सांसदों ने इन तीन दिनों में कभी भी यह बताने-समझाने की कोशिश नहीं कि आखिर ई अहमद के निधन की घोषणा में कथित देरी से सरकार को क्या लाभ मिला? चूंकि यह बताने से इन्कार किया जा रहा है कि ई अहमद के निधन की घोषणा में तथाकथित विलंब से सरकार को क्या हासिल हुआ इसलिए उनके बहाने तमाशा खड़ा करने का एकमात्र मकसद चुनाव वाले राज्यों की जनता को यह संदेश देना ही नजर आता है कि मोदी सरकार ने किस तरह एक मुस्लिम सांसद की अनदेखी की।

यदि ऐसा कोई मकसद नहीं तो फिर इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं रह जाता कि संसद के बीते सत्र को हंगामें की भेंट चढ़ा चुके सांसदों को इस सत्र में भी हंगामा करने के लिए एक और बहाने की तलाश है और वह उन्हें ई अहमद के निधन के रूप में मिल गया है। हालांकि सांसद ई अहमद का उपचार करने वाले राममनोहर लोहिया अस्पताल ने विपक्षी सांसदों के सभी आरोपों को खारिज करने के साथ स्पष्टीकरण भी जारी किया, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा। इस स्पष्टीकरण के अनुसार, प्रोटोकॉल इसकी इजाजत नहीं देता कि उपचार के दौरान किसी को आईसीयू में जाने दिया जाए और ई अहमद की डॉक्टर बेटी को मॉनीटर दिखाया गया था। इस स्पष्टीकरण के बाद भी पता नहीं किस आधार पर लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस के नेता सदन इस पर जोर देने में लगे हैं कि उनका निधन तो बहुत पहले हो गया था, फिर भी सरकार उनके शव को बजट पेश होने तक अस्पताल के कब्जे में रखना चाहती थी।

यह आरोप तब सही हो सकता था जब ई अहमद के निधन की घोषणा वास्तव में बजट पेश करने के बाद की जाती। तथ्य यह है कि ई अहमद के निधन की घोषणा मंगलवार रात सवा दो बजे कर दी गई थी।1यदि ई अहमद के परिजनों को यह लगता है कि उनके उपचार में हीलाहवाली की गई और इसकी पड़ताल होनी चाहिए तो फिर जांच की मांग का कुछ औचित्य समझ आता है, लेकिन इस आरोप का तो कहीं कोई औचित्य ही नहीं दिखता कि सरकार उनके निधन की सूचना छिपाना चाह रही थी और उनके शव को बजट पेश होने तक रोक कर रखना चाहती थी। उपचार में अनदेखी और निधन की घोषणा में कथित देरी के आरोप दो अलग-अलग मामले हैं। यदि विपक्ष इन आरोपों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन की अपनी मांग पर अड़ता है तो इसका सीधा मतलब होगा कि वह संसद के इस सत्र को भी नहीं चलने देना चाहता।

इस मांग पर गौर करने का इसलिए कोई मतलब नहीं, क्योंकि एक तो इसमें संदेह है कि सांसद ऐसी कोई जांच करने की योग्यता रखते हैं और दूसरे, अनुभव यही बताता है कि इस तरह की समितियां जांच के नाम पर लीपापोती करने के अलावा और कुछ नहीं करतीं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के नाम पर संयुक्त संसदीय समिति ने लीपापोती का जैसा काम किया उसके बाद शायद ही किसी को यह भरोसा हो कि ऐसी समितियां किसी मामले की जांच नीर-क्षीर ढंग से कर सकती हैं। सच तो यह है कि भविष्य में किसी भी मामले की जांच संयुक्त संसदीय समिति को नहीं सौंपी जानी चाहिए।

(लेखक राजीव सचान दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)