अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति स्थापना के प्रयासों के बजाय युद्धों में उलझते देख रहे हैं ब्रह्मा चेलानी

मुअम्मर गद्दाफी को बेदखल कर लीबिया को एक विफल राष्ट्र में तब्दील करने का काम करने वाले अमेरिका के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अब सीरिया और इराक में नए युद्ध की शुरुआत की है। यह अलग बात है कि अमेरिका अभी भी अफगानिस्तान युद्ध में उलझा हुआ है। सीरिया में हवाई हमले की स्वीकृति ओबामा के कार्यकाल में मुस्लिम देशों में चलाया गया सातवां सैन्य अभियान है। जाहिर है इस तरह के अभियानों के उद्देश्य और उनकी खुद की कानून के शासन के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर कुछ परेशान करने वाले सवाल खड़े होते हैं। हालांकि आतंकी समूह आइएस के खिलाफ लड़ाई अपरिहार्य है, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई तभी अधिक प्रभावी होगी जब अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन किया जाए और वैश्विक नियामकों पर बल दिया जाए। ऐसा करते समय संकीर्ण भूराजनीतिक हितों को आड़े नहीं आने दिया जाना चाहिए। अमेरिका ने 2001 में ओबामा के पूर्ववर्ती जॉर्ज डब्ल्यू बुश के नेतृत्व में आतंक के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत की थी, लेकिन दिनोंदिन अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद की यह बुराई न केवल और गहरी हुई है, बल्कि इसका विश्वव्यापी फैलाव हुआ है।

जिहादी ताकतें आतंकवाद को धर्म की पवित्रता को बनाए रखने के लिए एक हथियार के तौर पर पेश करती हैं, जिस कारण तमाम देशों में इसकी जड़ें गहरी हुई हैं। जब एक बार इराक, सीरिया और लीबिया जैसे स्थिर देशों में अराजकता फैल जाती है और राज्य बिखर जाते हैं तो वे संक्रामक आतंकवाद के नए केंद्र बन जाते हैं। ऐसे ही हालात अफगानिस्तान-पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों के हैं जहां मौजूद आतंकी खतरे से पूरा विश्व जूझ रहा है। ओबामा शांति स्थापना के प्रयासों के बजाय युद्ध में उलझ रहे हैं जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन है। ओबामा ने यही साबित किया है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सैन्य आक्रामकता की दृष्टि से वह अमेरिका के सर्वाधिक मुखर राष्ट्रपति हैं। मिस्र की राजधानी काहिरा में 2009 में उन्होंने अमेरिका और मुस्लिम देशों के बीच पारस्परिक हित और एक-दूसरे के प्रति सम्मान के आधार पर एक नई शुरुआत की बात कही थी। हालांकि अमेरिका में मौजूद एक वर्ग ने क्रमिक अथवा श्रृंखलाबद्ध बमबारी के माध्यम से पूर्व में बरती जा रही कड़ाई को जारी रखा। अभी भी यह वर्ग ओबामा को सीरिया में आइएस आतंकियों के खिलाफ युद्ध की शुरुआत के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मंजूरी लेने से रोक रहा है। इस प्रश्न का उत्तर बहुत स्वाभाविक है।

ओबामा पूर्व की तरह ही अमेरिका की शर्तो पर खुले युद्ध के पक्ष में हैं। उनकी इस सोच के कारण अंतरराष्ट्रीय रुख कमजोर रहा और अनेक राष्ट्र खुलकर अमेरिका के साथ नहीं आए। इस वजह से व्हाइट हाउस को सीरिया-इराक परिक्षेत्र में एक लंबी सैन्य लड़ाई की बात को स्वीकार करना पड़ा। सीरिया-इराक परिक्षेत्र के 22 अरब देशों में से केवल पांच या कहें इस्लामिक सहयोग संगठन के कुल 57 देशों में से पांच देश ही सीरिया में चल रहे युद्ध में ओबामा के गठबंधन में शामिल हुए। अमेरिका इस बार एक आतंकवादी समूह आइएस पर हमले को लक्षित कर रहा है, लेकिन उसका बल नए हथियारों के प्रयोग पर है। वह इसके लिए एफ-22 स्टील्थ बमवर्षक विमानों का उपयोग कर रहा है। इतना ही नहीं, ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र को संबोधित करते समय सीरिया पर बमबारी के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों की परवाह नहीं की। एकतरफा अमेरिकी कार्रवाई के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय कानूनों का मजाक उड़ाने की यह हालिया घटना है। वास्तव में ओबामा ने अपने देश को एक और युद्ध में झोंकने से पूर्व अमेरिकी कांग्रेस की स्वीकृति लेना भी जरूरी नहीं समझा। ओबामा जानते हैं कि सीरिया में पैदा हुई इस्लामिक ताकतों का उभार सीआइए के प्रशिक्षण से ही हुआ है और राष्ट्रपति बशर असद को उखाड़ फेंकने के लिए विद्रोहियों को पेट्रोडॉलर के रूप में भारी राशि मुहैया कराई गई है। जब 2013 के मध्य में इस्लामिक स्टेट महत्वपूर्ण बढ़त हासिल कर रहा था तो ओबामा ने अपनी आंखें बंद कर रखी थीं। वाशिंगटन के लिए उस समय आइएस आतंकी गुड टेररिस्ट अथवा अच्छे आतंकवादी थे जो असद की सत्ता को चुनौती दे रहे थे और ईरानी हितों को नुकसान पहुंचा रहे थे। बाद में वे अमेरिका के हितों के लिए खतरा बन गए और दो अमेरिकी पत्रकारों का उन्होंने सिर भी कलम कर दिया। यदि संयोग से राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अलकायदा को संरक्षण दिया तो ओबामा अनचाहे ही इस्लामिक स्टेट के गॉडफादर बन गए हैं जिसने खुद को हत्यारों का प्रमुख घोषित कर लिया है। पूर्व में सीआइए ने असद को सत्ता से बेदखल करने के लिए सीरियाई विद्रोहियों को मदद दी, लेकिन अब ओबामा एक ऐसी एजेंसी का गठन करना चाहते हैं जो जमीनी तौर पर सीरिया में इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई लड़े, इसके लिए हजारों की संख्या में चरमपंथियों को प्रशिक्षण दे और उन्हें हथियार मुहैया कराए।

वास्तव में भारत में आतंकवाद की समस्या में अमेरिका का भी योगदान है। अस्सी के दशक में सीआइए ने कई अरब डॉलर राशि के साथ अफगान विद्रोहियों को सैन्य सहायता प्रदान की और इसके एक बड़े हिस्से का प्रयोग आइएसआइ ने कश्मीर और पंजाब में आंतकवाद फैलाने के लिए किया। पाक सेना और आइएसआइ के जासूसों के साथ अमेरिकी नजदीकी की भारी कीमत भारत-पाकिस्तान को चुकानी पड़ रही है। यह भी कम हास्यास्पद नहीं कि भारत-अमेरिका के बीच सामरिक सहभागिता के लिए आज आतंकवाद निरोध एक मुख्य आधार है। काहिरा में ओबामा ने कहा था कि हम अफगानिस्तान में अपनी सैन्य टुकडि़यां नहीं रखना चाहते, लेकिन आज उनका इरादा बदल गया है और अब वह असीमित समय के लिए वहां अमेरिका सैनिक छावनी अथवा अड्डा चाहते हैं। काबुल में राजनीतिक संकट खत्म होने के बाद नई अफगान सरकार ने अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रक्षा समझौता किया है, जिसके तहत ओबामा अमेरिका अड्डे के लिए कानूनी आधार चाहते हैं जहां करीब 10 हजार अमेरिकी सैनिक तैनात होंगे। इससे तालिबान के उभार अथवा उसके हमलों को रोका जा सकेगा और वाशिंगटन को पाकिस्तानी जनरलों पर नजर रखने में मदद मिलेगी।

कुल मिलाकर खुद अमेरिका के लिए भी लगातार हस्तक्षेप की नीति लाभकर नहीं है। 2001 के बाद ऐसे अभियानों पर अमेरिका का सैन्य खर्च 4.4 ट्रिलियन डॉलर पहुंच गया। इससे दुनिया के अनेक क्षेत्रों की सुरक्षा को खतरा पैदा हुआ है और वहां अस्थिरता फैली है। एक ऐसे समय में जब विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका का क्षरण हो रहा है और उसे अपने घरेलू मुद्दों पर नए सिरे से काम करने की आवश्यकता है, वह युद्ध में उलझ रहा है। ऐसे युद्धों से उसे बहुत कुछ शायद ही हासिल हो सके। दुर्भाग्य से देखने को यही मिल रहा है कि एक युद्धप्रिय व्यक्ति के तौर पर बुश को जहां अपनी सत्ता गंवानी पड़ी, वहीं उनके उत्तराधिकारी ओबामा भी निरंतर युद्धों में उलझ रहे हैं।