ब्रह्मा चेलानी

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद ईरान के साथ अमेरिकी परमाणु करार का वजूद खतरे में पड़ गया है। इसे ट्रंप के पूर्ववर्ती बराक ओबामा ने किया था, मगर केवल यही इकलौता अहम परमाणु करार नहीं है, जिस पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, बल्कि ओबामा के पूर्ववर्ती जॉर्ज डब्ल्यू बुश द्वारा भारत के साथ किए गए ऐतिहासिक परमाणु करार पर भी संशय बढ़ गया है। ऐसी आशंकाएं बढ़ रही हैं कि यह समझौता ऊर्जा के मोर्चे पर फिजूल साबित हो सकता है। तोशिबा के स्वामित्व वाली वेस्टिंगहाउस के दीवालिया होने की अर्जी ने इसके तहत पहले सौदे पर मुहर लगाने की भारत और अमेरिका की कोशिशों को पटरी से उतार दिया है। भारत ने वेस्टिंगहाउस, जीई-हिताची और फ्रांस की सरकारी कंपनी अरेवा को एक-एक परमाणु पार्क विकसित करने के लिए चुना था। बीती 29 मार्च को दीवालिया होने की अर्जी लगाने से पहले तक भारत-अमेरिका परमाणु करार के तहत वेस्टिंगहाउस पहला परमाणु सौदा हासिल करने की होड़ में सबसे आगे थी। वेस्टिंगहाउस के भारी-भरकम घाटे ने तोशिबा के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया। मूल कंपनी की देनदारियां उसके राजस्व से कहीं ज्यादा बढ़ गई हैं। अब तोशिबा भारत और ब्रिटेन में परमाणु संयंत्र विकसित करने की परियोजनाओं में अपनी मुख्य भूमिका से किनारा कर रही है। विदेशों में परमाणु बिजली संयंत्र निर्माण कारोबार से निकलकर तोशिबा मौजूदा रिएक्टरों के रखरखाव और नए संयंत्र डिजाइन विकास पर ही पूरा ध्यान केंद्रित करना चाहती है। इसमें विरोधाभास यही है कि भारत-अमेरिका परमाणु करार को देखते हुए ही तोशिबा ने 5.4 अरब डॉलर में वेस्टिंगहाउस का जो बेहद महंगा अधिग्रहण किया था वही उस पर भारी पड़ता नजर आ रहा है। भारत की 100 अरब डॉलर से अधिक के रिएक्टर आयात करने की योजना ने पस्त पड़े अमेरिकी परमाणु ऊर्जा उद्योग में नई जान डाल दी थी। आज तोशिबा बिखराव के कगार पर है, क्योंकि 31 मार्च को समाप्त वित्त वर्ष में उसे 9 अरब डॉलर का बहुत तगड़ा घाटा हुआ। इसके लिए वेस्टिंगहाउस ही काफी हद तक जिम्मेदार है।
भारत-अमेरिका परमाणु करार की संभावनाओं पर पलीता लगाने वाला यही इकलौता पहलू
नहीं है। असल में अरेवा और जीई-हिताची
जैसी दो अन्य परमाणु कंपनियों की वित्तीय नैया भी इस समय खूब हिचकोले खा रही है। तोशिबा की ही तरह अरेवा का अस्तित्व भी दांव पर लगा हुआ है। कारोबार में बने रहने के लिए उसे फ्रांसीसी सरकार से कम से कम 5 अरब यूरो के प्रोत्साहन पैकेज की दरकार है। ऐसे किसी भी राहत पैकेज की तस्वीर फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव के बाद ही साफ हो पाएगी। अरेवा की रिएक्टर इकाई ईडीएफ को बेची जा रही है। ईडीएफ भी सरकारी कंपनी है। वहीं जीई-हिताची अपने आर्थिक जोखिम को देखते हुए पहले ही अपने परमाणु परिचालन को सीमित कर चुकी है। इस बीच जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबे भी राजनीतिक झंझावत में फंस गए हैं।
एक स्कूल की जमीन से जुड़े घपले को लेकर जापान में बढ़ी राजनीतिक अनिश्चितता को देखते हुए सवाल उठ रहा है कि क्या जापानी संसद भारत के साथ परमाणु संधि पर मुहर लगाएगी? पिछले साल हुआ यह समझौता छह वर्षों की बातचीत के बाद संभव हुआ, क्योंकि इस पर जापान में काफी विवाद था, क्योंकि उसने पहली बार किसी ऐसे देश के साथ यह समझौता किया जिसने एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए।
वहीं काफी शोरशराबे के बीच हुए भारत-अमेरिका परमाणु करार के 12 साल बीत जाने के बाद भी ऊर्जा के मोर्चे पर भारत को शायद ही कोई ठोस लाभ हासिल हो पाया हो, लेकिन इसका सामरिक परिप्रेक्ष्य में यह परिणाम देखने को मिला कि अमेरिका भारत को हथियार बेचने वाला सबसे बड़ा विक्रेता देश बन गया। इससे पहले शायद ही अमेरिका को हथियारों का इतना बड़ा खरीदार देश इतनी जल्दी हासिल हुआ हो। परमाणु करार ने दोनों देशों के बीच सामरिक रिश्तों को मजबूती देने में भी अहम भूमिका निभाई। यह भी स्पष्ट है कि परमाणु करार ने सब्जबाग ही दिखाए, क्योंकि वैश्विक स्तर पर परमाणु बिजली का प्रसार पहले ही कम हो रहा है। वास्तव में अपनी पहले से मौजूद क्षमताओं के भारी विस्तार की घोषणाओं में भारत खुद इस सौदे के महिमामंडन का शिकार हो गया है।
पिछली और मौजूदा भारतीय सरकार ने इस सौदे को मुकम्मल रूप देने के लिए अमेरिकी वाणिज्यिक हितों का ख्याल रखने के लिए अतिरिक्त प्रावधान भी किए ताकि करार की राह में अड़चन न आए। मिसाल के तौर किसी परमाणु हादसे की स्थिति में विदेशी कंपनी को जिम्मेदार ठहराने वाले भारतीय कानून में मोदी सरकार ने कार्यपालिका आदेश के जरिये बदलाव कर संभावित हादसों में देनदारी का जिम्मा सरकारी खजाने पर डाल दिया। इसमें उस प्रावधान की भी नए सिरे से व्याख्या हुई जो किसी संभावित पीड़ित को नुकसान के लिए विदेश में मुकदमा दायर करने से रोकता है। वर्ष 1984 में अमेरिकी कंपनी के रासायनिक संयंत्र से गैस लीक होने पर भोपाल में मची तबाही के कड़वे अनुभव और 2011 में जापान के फुकुशिमा हादसे को देखते हुए ये कदम विवादों में फंस गए हैं। भारत ने जापान के देनदारी कानून से कोई सबक नहीं लिया जो परमाणु आपूर्तिकर्ता से ही क्षतिपूर्ति वसूलने और संयंत्र परिचालकों को ही देनदारी का पूरा जिम्मेदार मानता है। फुकुशिमा हादसे में शिकार तीनों संयंत्रों को जीई ने ही विकसित किया था और डिजाइन में बुनियादी खामियों के बावजूद इस अमेरिकी कंपनी को छूट दे दी गई।
फुकुशिमा हादसे के बाद सुरक्षा उपायों ने लागत को और ज्यादा बढ़ा दिया है। इससे दुनिया भर में परमाणु बिजली किफायती नहीं रह गई है। अमेरिका में जहां चार परमाणु संयंत्र बंद होने जा रहे हैं, वहीं मौजूदा परिचालक अन्य संयंत्रों को चालू रखने के लिए सरकार से अतिरिक्त सब्सिडी की मांग कर रहे हैं। जहां तक भारत की बात है, 2030 तक बिजली उत्पादन में परमाणु बिजली की हिस्सेदारी को 12 प्रतिशत तक ले जाने का उसका लक्ष्य दूर की कौड़ी लग रहा है। खस्ता वित्तीय हालत वाली इन विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय करदाताओं की कृपा से देश में बनाए जाने वाले रिएक्टर उनके लिए किसी वरदान से कम नहीं। रिएक्टरों के लिए उनके द्वारा बोली गई ऊंची कीमतों को देखते हुए इन संयंत्रों से बनने वाली बिजली के लिए सरकार को भारी सब्सिडी देनी होगी। अमेरिका में वेस्टिंगहाउस के निर्माणाधीन चार संयंत्रों और फिनलैंड में अरेवा की परियोजना पहले से ही काफी पिछड़ चुकी है और उनकी लागत भी अरबों डॉलर बढ़ गई है। अगर भारत में भी इसी ढर्रे पर बात आगे बढ़ती है तो परमाणु ऊर्जा के मोर्चे पर देश एनरॉन जैसे कई मामलों का गवाह बन सकता है।
[ लेखक सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च में प्रोफेसर एवं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं ]