क्षमा शर्मा

हाल में राज्यसभा के पूर्व सांसद तरुण विजय की ओर से अलजजीरा चैनल में की गई टिप्पणी पर तिल का ताड़ बना दिया गया। टीवी चैनलों से लेकर संसद तक में उनके बयान पर जरूरत से ज्यादा चर्चा हुई। उन्होंने ग्रेटर नोएडा में नाइजीरियाई लोगों के खिलाफ हुई हिंसा के विषय में कहा था, ‘हम रेसिस्ट या रंगभेदी नहीं हैं। अगर हम रंगभेदी होते तो दक्षिण भारत के लोगों के साथ कैसे रहते। हमारे यहां अश्वेत हैं, आसपास अश्वेत हैं। तरुण विजय की बात रंगभेदी लगे तो उसका विरोध जरूर किया जाना चाहिए, लेकिन इसका औचित्य समझना कठिन है कि उनकी बात का हवाला देते हुए समस्त उत्तर भारतीयों पर टीका-टिप्पणियां और कटाक्ष होने लगें। कई चैनलों पर तथाकथित विद्वानों ने मोर्चा संभाल लिया। वे बढ़-चढ़कर बातें बनाने लगे। आखिर उन्हें तरुण विजय के बहाने देश के पचपन करोड़ नागरिकों को निशाने पर लेने का हक किसने दिया? क्या किसी एक व्यक्ति की बात का हवाला देकर समूचे हिंदी भाषी क्षेत्र के खिलाफ हमलावर होना ठीक है? क्या एक व्यक्ति विशेष के विचार को समूचे उत्तर भारत का प्रतिनिधि विचार माना जा सकता है या माना जाना चाहिए? आप हैं कौन जो अपनी भड़ास निकालने के लिए सारे उत्तर भारत पर टूट पड़ें? कुछ लोगों के स्वर से तो ऐसा भी लग रहा था कि जैसे उत्तर भारत और दक्षिण भारत दो अलग-अलग देश हों। इनमें रहने वाले नागरिक, एक देश के नागरिक न होकर शत्रु देश के नागरिक हों। असल में स्वयंभू विद्वानों की बातें सुनकर उनकी सोच-समझ और मानसिकता का पता चल रहा था कि वे उत्तर भारतीयों से किस हद तक द्वेष-भाव रखते हैं।
टीवी की बहसों में बताया जा रहा था कि उत्तर भारतीय तो ऐसे ही होते हैं। उनकी मानसिकता और सोचने का तरीका ऐसा ही है कि वे दक्षिण भारतीयों को उनके रंग के कारण हेय दृष्टि से देखते हैं। बात-बात पर उनका अपमान करते हैं। इससे पहले यह भी कहा जाता रहा है कि उत्तर भारतीयों की कोई संस्कृति ही नहीं होती। संस्कृति की बात चली तो जरा पूछ ही लिया जाए कि क्या आपने किसी उत्तर भारतीय को किसी नेता के पीछे मरते देखा है? क्या किसी उत्तर भारतीय ने अपने नेता का मंदिर बनाया है? उत्तर भारत में लोग नेताओं को एक सामान्य मनुष्य की तरह ही देखते हैं न कि उन्हें भगवान बनाकर पूजते हैं। आज सिर पर बिठाते हैं तो कल नीचे भी उतार देते हैं। यहां किसी अन्य भाषा भाषी के साथ भाषा के आधार पर हिंसा भी नहीं होती। दूसरी ओर हम देखते हैं कि गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों में जहां भी उत्तर भारतीय हिंदी भाषी रहते हैं वहां उनकी भाषा के कारण अक्सर उनका अपमान किया जाता है। उन्हें प्रताड़ना झेलनी पड़ती है-कभी महाराष्ट्र में तो कभी तमिलनाडु में। इस अन्याय और अत्याचार को यह कहकर छिपाने की कोशिश की जाती है कि यह हिंदी और हिंदी भाषियों की साम्राज्यवादी सोच और वर्चस्व के खिलाफ है। आखिर ऐसा क्यों है कि उत्तर भारतीयों को इस कारण सताया जाए कि वे संख्या में ज्यादा हैं या इसलिए कि उनकी भाषा हिंदी है? क्या उत्तर भारतीयों का संख्या में अधिक होना उनका अपराध है। क्या अन्य भाषाओं के मुकाबले हिंदी इतनी निचले दर्जे की है कि जब जो चाहे उसे दो चार खरी-खोटी सुनाकर चलता बने?
जो चैनल गोरा बनाने वाली क्रीम का दिन-रात प्रचार करते हैं उन्हें अचानक रंगभेद के खिलाफ उत्तर भारतीयों को निशाना बनाने का नया मौका हाथ आ गया। इनमें एक ही चैनल अपवाद है और उसकी स्क्रीन पर अक्सर यह संदेश भी नजर आता है कि गोरेपन की क्रीम रेसिस्ट यानी रंगभेद वाली है। यहां यह भी बताते चलें कि गोरेपन की क्रीम की सर्वाधिक बिक्री दक्षिण भारतीय राज्यों में ही होती है। बड़ी संख्या में पुरुष भी इसे खरीदते हैं। एएंडएम नाम की पत्रिका ने इस पर एक सर्वे किया था और इससे संबंधित आंकड़े भी छापे थे। हाल ही में करुणानिधि के बेटे और डीएमके नेता स्टालिन ने हिंदी के खिलाफ अभियान शुरू किया। डीएमके का हिंदी विरोध किसी से छिपा नहीं है।
कुछ साल पहले मुझे चेन्नई से पुद्दुचेरी जाने का मौका मिला था तो पूरे रास्ते तमिल, अंग्रेजी और हिंदी में स्थानों के नाम लिखे हुए थे, मगर गौर करने वाली बात यह थी कि हिंदी में लिखे नामों पर कालिख पोती हुई थी। जल्लीकट्टू आंदोलन के दौरान भी तमिल स्वाभिमान के नाम पर हिंदी को निशाना बनाया गया था। क्या यह उत्तर भारतीयों और उनकी अपनी भाषा हिंदी के खिलाफ अन्याय नहीं है? शायद स्टालिन यह भूल गए कि जिस हिंदी विरोध की लहर पर सवार वे सत्ता हासिल करते आए हैं, अब यह लहर उतार पर है। हाल में मेरी घरेलू सहायिका की बेटी की शादी तमिलनाडु में हुई है। वह लड़की आजकल अपने गांव के स्कूल में हिंदी पढ़ाती है। अब तमिलनाडु में भी बच्चे हिंदी पढ़ना चाहते हैं। उनके माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे हिंदी सीखें ताकि जब वे रोजगार के सिलसिले में हिंदी प्रदेशों में जाएं तो उन्हें कोई दिक्कत महसूस न हो। हालांकि अपने हित साधने के लिए हिंदी प्रदेशों में आने पर कोई आपत्ति नहीं, लेकिन लगे हाथों हिंदी प्रदेश के लोगों पर हाथ साफ करने में भी कोई गुरेज नहीं। यह बिल्कुल दोहरा रवैया है।
यह किसी से छिपा नहीं कि गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी भाषियों के साथ कैसा सलूक होता है? उन्हें कितनी हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है। दिल्ली में पूर्वोत्तर के किसी छात्र-छात्रा के साथ दुव्र्यवहार की तो खूब चर्चा होती है, लेकिन इन जगहों पर हिंदी भाषियों के साथ होने वाली बदसलूकी का कोई जिक्र नहीं होता। उन्हें तरह-तरह के घटिया नामों से पुकारा जाता है। यहां यह कहने का आशय कतई नहीं कि उत्तर भारत में दक्षिण भारतीयों या पूर्वोत्तर के लोगों के साथ अशोभनीय व्यवहार होना चाहिए। उसकी निश्चित तौर पर निंदा की जानी चाहिए, मगर कभी-कभी अपने गिरेबान में भी झांक लेना चाहिए। साथ ही हमेशा दूसरों की ओर उंगली उठाना और अपने प्रदेश के स्वाभिमान की आड़ में अपनी हर गलती को छिपा लेना और दूसरे की आलोचना करना, किस तरह जायज है?
[ लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार एवं स्तंभकार हैं ]