अहिंसा का अर्थ हम प्राय: हिंसा के विलोमार्थी शब्द के रूप में लेते हैं, जिसका आशय जीव हत्या न करना और मांसाहार से दूर रहना आदि है। यह बात ठीक भी जान पड़ती है। मांसाहार जीवहत्या के बगैर संभव नहीं है। इसीलिए दोनों ही हिंसा की श्रेणी में आते हैं। मौजूदा संदर्भ में सवाल यह उठता है कि अहिंसा को क्या यूं एक सीमित दायरे में बांधा जा सकता है? जी नहीं, अहिंसा का क्षेत्र व्यापक है और अहिंसा का संक्षेप में अर्थ है-समस्त हिंसक वृत्तियों का त्याग। कैसी हैं ये हिंसक वृत्तियां, इन्हें जानना होगा, समझना होगा। तभी हम उनसे मुक्ति पा सकते हैं। दूसरों को सताना, दुख पहुंचाना निश्चित रूप से हिंसा है। किन्तु क्या स्वयं को सताना हिंसा नहीं है? आदमी तीन तरह के होते हैं। पहला परपीड़क यानी ऐसे लोग जो दूसरों को सताकर सुकून का अनुभव करते हैं। दूसरा स्वपीड़क यानी आत्मपीड़क, ऐसे लोग दूसरों को न सताकर स्वयं को सताकर सुख का अनुभव किया करते है। धर्मान्धता के वशीभूत होकर अत्यधिक व्रत उपवास, कांटों की सेज पर लेटना आदि से लेकर आत्महत्या तक कर डालने से ऐसे लोग नहीं चूकते। मेरी राय में अहिसंक वे हैं, जो इन दोनों के पार हैं। जो इन दोनों वृत्तियों का अतिक्रमण कर चुका है। यानी जो दूसरों को सताता नहीं और न ही स्वयं को सताता है, जो स्वस्थ व प्रसन्न भाव से संतोषपूर्वक जीता है। इसके अतिरिक्त सबल वर्ग द्वारा निर्बल का किया गया किसी भी प्रकार का शोषण एक खतरनाक हिंसा है। कारण यह कि इसमें शोषित व्यक्ति तिलतिल कर मरता है। यानी कड़वे वचनों द्वारा हिंसा एक खतरनाक हिंसा है। कारण यह कि कड़वे वचन हमें यूं चोट पहुंचाते हैं कि जीवन भर नहीं भूलते।
द्वापर युग में द्रौपदी का दुर्योधन को अंधे का पुत्र अंधा कहना ही महाभारत की आधारशिला रख गया था। महावीर तो कहते थे कि मन में किया गया किसी के प्रति बुरा विचार भी हिंसा है। यानी नकारात्मक विचार उठा कि हिंसा हुई। कारण यह कि मन में उठे विचार ही भविष्य में उठने वाले कृत्य की आधार शिला रखते हैं। हम पहले विचार करते हैं। शीघ्र ही भविष्य में वही विचार नये कर्म की पृष्ठभूमि बनते हैं। स्पष्ट है कि हम एक स्वस्थ जीवन तभी जी सकते हैं, जब हमारा मन इतना शुद्ध हो जाए कि किसी के प्रति हमारे मन में जरा भी बुरा विचार न उठे। यही सच्ची अहिंसा है।
[ अजय गोंडवी ]