रामिश सिद्दीकी

प्रत्येक वर्ष 13 जुलाई को कश्मीर घाटी में यौमे शहादत मनाया जाता है। इस बार भी यह दिवस मनाने की तैयारी हो रही है। इस दिन को ऐसा नाम देने की वजह वह घटना बताई जाती है जिसमें 1931 को इसी तारीख को महाराजा हरी सिंह के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते वक्त 22 कश्मीरी मारे गए थे। कश्मीरी रहनुमाओं ने बिना सोचे-समझे इन सबको शहीद के खाते में डाल दिया और फिर उनकी याद में यौमे शहादत मनाने का सिलसिला कायम किया। धीरे-धीरे आतंकी भी शहीद का दर्जा पाने लगे। पिछले वर्ष आठ जुलाई को हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी को भारतीय सुरक्षा बलों ने मार गिराया था। उसके बाद से कश्मीर में लंबे समय तक तनाव की स्थिति बनी रही। सबको पता है कि बीती आठ जुलाई को बुरहान की याद में अलगाववादी संगठनों ने किस तरह कश्मीर बंद का एलान किया। उन्होंने सभी कश्मीरियों से 13 जुलाई के दिन उन आतंकियों के घर जाने की अपील की है जो सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए हैं। इसी बीच दस जुलाई को आतंकियों ने अमरनाथ यात्रा पर आए मासूम तीर्थयात्रियों की बस पर अंधाधुंध गोलीबारी कर सात बेगुनाहों की जान ले ली। इस हमले में करीब एक दर्जन लोग घायल भी हुए हैं। उम्मीद है कि भारतीय सेना और सुरक्षा बल के जवान इन ख़ूनी दरिंदों और उनके आकाओं को सबक सिखाने में कामयाब होंगे। अमरनाथ तीर्थयात्रियों पर हमले की घटना से सारा देश सन्न है। कई कश्मीरी नेताओं ने भी इस हमले की निंदा की है, लेकिन इस सवाल का जवाब आना शेष है कि क्या कश्मीर के लोग ऐसे खूंखार आतंकियों को शहीद मानकर उनका गुणगान करते रहेंगे? बेहतर हो कि कश्मीरी और खासकर अलगाववादी नेताओं के पीछे लामबंद कश्मीरी यह जानने की कोशिश करें कि शहीद का क्या मतलब होता है? यदि वे ऐसा नहीं करते तो फिर उनमें और भेड़ बकरियों में फर्क करना कठिन होगा। कश्मीरी अवाम को देखना होगा कि उनके कथित रहनुमा उन्हें किस ओर ले जा रहे हैं?
कुरान के हिसाब से जिसने ख़ुदा की बात को सही से समझा और अपनाया वह ‘शहीद’ है। ऐसे शख्स को ‘ख़ुदा है’ की सच्चाई में जीने वाला भी कहा जाता है। जब व्यक्ति आध्यात्मिकता के रास्ते पर चलता है तो वह अध्यात्म की अनेक मंजिलों से गुजरता है। ऐसे ही व्यक्तिको कुरान ने शहीद या शुहादा कहा है। कुरान के मुताबिक शहीद का दर्जा पाने के लिए व्यक्ति को अपने जीवन को इस्लाम के उच्चतम आदर्शों पर चलना होता है, फिर चाहे उसे कोई भी नुकसान हो। कुरान में इसके पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि शहीद का दर्जा सिर्फ ख़ुदा की तरफ से ही इंसान को मिल सकता है और कोई व्यक्ति किसी दूसरे को यह दर्जा नहीं दे सकता। इसका एक हवाला हजरत मुहम्मद साहब के जीवन में मिलता है। जब सऊदी अरब के मदीना से 90 मील दूर स्थित नखलिस्तान ‘ख्यबर’ में आत्मरक्षा के लिए लड़े गए युद्ध में हजरत मुहम्मद साहब के साथ लड़ते हुए कुजमानूज ज़ुफरा मारे गए तो वहां के मुसलमानों में यह चर्चा होने लगी कि कुजमानूज शहीद हो गए और सीधा जन्नत चले गए। जब हजरत मुहम्मद साहब ऐसी चर्चा से अवगत हुए तो उन्होंने कहा कि वह तो दोजख यानी नर्क में गया। यह सुनकर सब मुसलमान हैरान हो गए। उनको हैरानी देख हजरत साहब ने कहा कि कुजमानूज की मौत का कारण तो पता करो। लोगों ने पूछताछ की तो पता चला कि कुजमानूज ने जी-जान से लड़ाई लड़ी, लेकिन जब वह बुरी तरह घायल हो गया तो उसने अपनी ही तलवार से अपनी जान ले ली। इस्लाम में आत्मघात अपराध है और यही वजह रही कि हजरत साहब ने उसे नर्क का भागीदार बताया।
आज ‘शहीद’ शब्द का इस्तेमाल उन लोगों को सम्मान देने के लिए किया जाने लगा है जो अपना फर्ज निभाते हुए अपनी जान दे देते हैं, किंतु इस्लाम में यह एक प्रकार की दुआ होती है उन लोगों के लिए जिन्होेंने अपना कर्तव्य निभाते हुए अपनी जान दी। आज कश्मीर हो या पाकिस्तान या अन्य मुस्लिम देश वहां किसी के लिए भी शहीद शब्द का बहुत आसानी से इस्तेमाल हो जाता है। अब तो हालत यह है कि खूंखार आतंकियों और हत्यारों तक को शहीद की उपाधि दे दी जाती है।
पाकिस्तान में पंजाब प्रांत के पूर्व गर्वनर सलमान तसीर के हत्यारे मुमताज कादरी को फांसी के बाद शहीद के तौर पर जाना जाता है। उसकी याद में मजार बना दी गई है और वहां पर उर्स का आयोजन किया जाता है। यह काम ऐसे शख्स के लिए किया जाता है जो सरकारी सुरक्षा कर्मी था और उसका फर्ज सलमान तसीर की हिफाजत करना था, लेकिन उसने उनकी ही जान ले ली। पाकिस्तान में लश्कर और जैश के तमाम आतंकियों को भी शहीद मानकर उनका गुणगान होता है। अभी चंद दिन पहले कश्मीर में सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए लश्कर के एक आतंकी को शहीद मानकर पाकिस्तान में उसका गुणगान किया गया। दुर्भाग्य से यह काम कश्मीर में भी हो रहा है। बुरहान वानी और सब्जार बट्ट जैसे आतंकी सुरक्षा बलों का निशाना बनते ही कथित तौर पर शहीद करार दिए गए। आखिर इस तरह के कामों से कश्मीरियत की रक्षा कैसे होगी? सवाल यह भी है कि जब इस्लाम में सिर्फ देश यानी ‘स्टेट’ को युद्ध करने का अधिकार है और वह भी आत्मरक्षा में तब फिर लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे हथियारबंद संगठन क्यों अस्तित्व में हैं और उन्हें सहयोग और समर्थन क्यों मिल रहा है? इस्लाम में छद्म युद्ध के लिए भी कोई जगह नहीं है। आखिर जो इस्लाम के नाम पर बेगुनाहों को मार रहे हैं वे शहीद कैसे हो सकते हैं? ऐसे अपराधी तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं हैं। मजहब की आड़ में पनपता आतंकवाद इस्लाम के इतिहास की सबसे दुखद घटना बन चुका है। इस कलंक को मिटाने के लिए पूरे मुस्लिम समाज को आगे आने की जरूरत है। उसे यह देखना होगा कि कोई भी इस्लाम की आड़ में किसी तरह का गैर इस्लामी काम न करने पाए। आज कश्मीर में जो लोग बुरहान वानी और सब्जार बट्ट जैसे आतंकियों को शहीद कहते हैं वे कश्मीरियत के साथ इस्लाम को भी बदनाम करने का काम कर रहे हैं। कुरान में इस्लाम को जीवन का अग्रदूत माना गया है। इस्लाम में सबसे बड़ा गुण शांति है। जो शांति के रास्ते पर चलेगा वही ख़ुदा के नजदीक यानी असल शहीद कहलाएगा।
[ लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार हैं ]