नई दिल्ली [ कमल के बाज] । किसी ने पुश्तैनी धंधे को आगे बढ़ाने के लिए पकौड़े तलना शुरू किया था तो किसी ने नौकरी न मिलने पर कोई धंधा करने के फेर में। किसी ने चाय बेचने के धंधे को चमकाने के लिए भी पकौड़ा बनाना-बेचना शुरू किया था। उनका धंधा चाहे मंदा चलता रहा हो या तेज। उन पर या फिर बेचारे पकौड़े पर कभी किसी तरह की कोई चर्चा नहीं हुई। तब भी नहीं जब देश भर में चाय पर चर्चा चल रही थी और इस दौरान कहीं-कहीं चाय के साथ पकौड़े भी खाए जा रहे थे। पता नहीं तभी किसी को यह क्यों नहीं सूझा कि चर्चा ही करनी है तो चाय के साथ पकौड़े की भी कर ली जाए। एक पंथ दो काज तो हो ही जाता, पकौड़े पर चर्चा का प्रकाश पड़ते ही बेसन, तेल, कड़ाही वगैरह का भी भाग्योदय हो जाता। वक्त बीतता गया और चाय पर चर्चा भी धीमी पड़ गई तो पकौड़े बेचने वालों ने यह मान लिया कि उनके नसीब में कैसी भी चर्चा इसलिए नहीं, क्योंकि शायद नेताओं ने और चाहे जो काम किए हों, किसी नेता ने कभी पकौड़े नहीं बनाए-बेचे। उन्होंने पकौड़ों की इतनी घोर उपेक्षा पर पूछताछ की तो किसी ने बताया कि दरअसल पकौड़े के चर्चा में आने के आसार इसलिए नहीं, क्योंकि पटना वाले नेता जी की कृपा से समोसा बहुत पहले बाजी मार ले गया और उसके बाद पिज्जा, इडली, डोसा, कोला, नूडल्स, चिप्स ने चर्चाओं को अपनी ओर मोड़ा।

अखिल भारतीय पकौड़ा निर्माता संघ बनना चाहिए

हालांकि आलू और प्याज जब-जब चर्चा में आए तब-तब पकौड़े वालों के मन में एक उम्मीद जगती, लेकिन न जाने कितनी बार ऐसा हुआ कि चर्चा आलू-प्याज या फिर टमाटर तक ही सीमित हो जाती रही। आखिरकार पकौड़े बनाने वालों ने उम्मीद बिल्कुल ही छोड़ दी, लेकिन किस्मत वैसे ही पलटी जैसी तले जाते समय पकौड़े उलट-पुलट किए जाते हैैं। एक दिन अचानक पकौड़े पर चर्चा ने राष्ट्रीय बहस का रूप ले लिया। पहले वह टीवी पर चर्चा में आया, फिर अखबारों में और फिर संसद में भी। पकौड़े का तो पता नहीं, उन्हें तलने वालों की बांछें खिल गई हैैं। वे तबसे और खुश हैैं जबसे कुछ नेता किस्म के लोगों ने पकौड़े बनाने-बेचने शुरू कर दिए हैैं। हालांकि वे ऐसा सरकार का विरोध करने के लिए कर रहे हैैं, लेकिन पकौड़े वालों को तो केवल इतने से मतलब है कि लंबे समय तक उपेक्षित रहा और कभी-कभी तो दिन-दिन भर ग्राहकों के इंतजार में कड़ाही में तैरता रहा पकौड़ा अब हाथों-हाथ लिया जा रहा है। उन्हें भरोसा है कि जल्द ही अखिल भारतीय पकौड़ा निर्माता संघ जैसा कोई संगठन बनेगा और उसके जरिये वे देश को अपनी समस्याएं और साथ ही पकौड़े का इतिहास और स्वाद भी बता पाएंगे।

मीडिया में आने के बाद अब पकौड़े ज्यादा बिकने शुरू हो गए

इसी सिलसिले में एक पकौड़े वाले से बात की तो उसने बताया कि हम सब बहुत खुश हैैं। अब पकौड़े ज्यादा बिकने शुरू हो गए हैैं। लोग खाते भी हैैं और ले भी जाते हैैं और इस सबके बीच थोड़ी-बहुत चर्चा भी कर जाते हैैं। अपनी खुशी बयान करते हुए उसने एक शिकवा भी बयान किया कि टीवी चैनल वाले उन्हें तंग कर रहे हैैं। वे उनके पास आते हैैं और अजीब-अजीब सवाल करते हैैं। उन्हें ऐसे सवालों से गुरेज नहीं, लेकिन जब वे यह पूछते हैैं कि कैसा लग रहा है तो थोड़ी कोफ्त होती है। भला यह भी कोई पूछने की बात है। पकौड़ा तलने में तो लगना ही पड़ता है। मैैंने उससे हमदर्दी जताई तो उसने थोड़ा खुलकर बताया कि कोई-कोई तो यह पूछने लगता है कि कच्चे पकौड़े किस ब्रांड के हैैं और वे कहां बनते हैैं? हालांकि हम यह बता देते हैैं कि भाई कच्चे पकौड़े किसी फैक्ट्री में नहीं बनते, लेकिन मुश्किल तब होती है कि जब वे यह पूछने लगते हैैं-‘यह पीले रंग का घोल कैसे बनता है?’ कुछ चैनल वाले तो यह भी गुजारिश करके गए हैैं कि हमारे स्टूडियो में पकौड़ा तल कर दिखाएं।

अफसोस है कि पकौड़े के साथ चटनी पर कोई चर्चा नहीं हो रही

कुछ तो इस कोशिश में भी दिखे हैैं कि हम उन्हें पकौड़ा बनाना सिखा दें। ऐसे लोगों से हमारे साथी संशकित हो रहे हैैं। किसी ने बताया है कि लगता है कि वे तुम लोगों का पकौड़ा ज्ञान लेकर कोई पकौड़ा स्टार्ट-अप खोलने का इरादा बना रहे हैैं? अब तो पकौड़े पर सवाल करने आने वालों से हम साफ कह दे रहे हैैं -‘भाई, पकौड़े पर सवाल बाद में करो, पहले कम से कम सौ ग्राम पकौड़े खरीदो।’ उसके इतना कहते ही मैैंने सौ के बजाय दो सौ ग्राम पकौड़े खरीद लिए। इस पर उसे कुछ भरोसा हुआ और उसने पकौड़े बनाने-तलने के कुछ खास गुर बताए। साथ ही इस पर अफसोस जताया कि पकौड़े के साथ चटनी पर कोई चर्चा नहीं हो रही है। हम चलने को हुए तो उसने एक सवाल भी किया- ‘भाईसाहब, यह बताइए कि जब पकौड़े पर इतनी बातें हो रही हैैं तो क्या आपको यह नहीं लगता कि अब पकौड़े पर गाने बनने चाहिए और टीवी सीरियल-फिल्मों में भी हमें ढंग से दिखाया जाना चाहिए?’ आपका जो भी सोचना हो, मैैंने तो उससे यही कहा कि बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए।

[ हास्य-व्यंग्य ]