शायद हमने गलत समझ की वजह से पिछले 70 सालों में प्रजातंत्र को मजाक बना दिया है। समान नागरिक संहिता का विरोध, भारत-विरोधी और पाकिस्तान-समर्थक नारे देश की छाती दिल्ली के जेएनयू में लगाने वालों में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देखना, एक साथ केंद्र और राज्य के चुनाव कराने की अवधारणा की कुछ क्षेत्रीय दलों द्वारा मुखालफत, आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने के लिए केंद्र को अधिक शक्ति देने के खिलाफ राज्यों का खड़ा होना, केंद्र के तमाम जनकल्याण के कार्यक्रमों के प्रति राज्य सरकारों का इसलिए उदासीन होना कि इसका श्रेय केंद्र की सरकार को मिलेगा, इसके कुछ उदाहरण हैं। गौर करें, भारत जिस किस्म का आतंकवाद पिछले 30 सालों से झेल रहा है उसका आयाम न केवल देशव्यापी है, बल्कि मूल रूप से वैश्विक है। आतंकवादी बाहरी मुल्कों से आते हैं, देश में भी पाकिस्तानी कुप्रयासों से उनकी पौध लगाई जाती है। हाल के दौर में पाकिस्तानी एजेंसियों ने बांग्लादेश और नेपाल को नर्सरी के रूप में विकसित किया है, लेकिन जैसे ही केंद्र सरकार ने कुछ साल पहले कानून में बदलाव करके आतंकवाद निरोधक राष्ट्रीय इकाई को राज्यों में स्थापित कर उन्हें राज्यों की पुलिस के समान अधिकार देने चाहे, कई राज्य तनकर खड़े हो गए इस तर्क के साथ कि यह संघीय ढांचे के खिलाफ है और इससे उनकी स्वायत्तता बाधित होती है। अमेरिका हमसे बड़ा संघीय संविधान है और वहां राज्यों को बेहद अधिक अधिकार हैं, लेकिन जब 9/11 को वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ तो एक साल में वहां केंद्र ने निर्बाध शक्तियां होमलैंड सिक्यूरिटी एक्ट के तहत अपने पास ले लीं। किसी राज्य ने एक शब्द भी नहीं कहा।
हमारे देश में ताजा चर्चा है समान नागरिक संहिता को लेकर। यानी क्या देश में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह प्रथा बनी रहनी चाहिए या संविधान के अनुच्छेद-14, 19 और 21 के अनुरूप हर नागरिक को चाहे वह किसी भी धर्म का हो या किसी भी लिंग का, समान अधिकार होने चाहिए? यह बात देश की सर्वोच्च अदालत ने पूछी है, किसी पार्टी ने नहीं या किसी धार्मिक-सामाजिक संगठन ने नहीं। विधि आयोग ने 16 सवाल बनाकर जनता से उनकी राय जाननी चाही है। अचानक ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तनकर खड़ा हो जाता है, तमाम उन बातों की दुहाई देते हुए जिनकी वजह से संविधान निर्माताओं को मजबूरी में कुछ प्रावधान करने पड़े (जैसे अनुच्छेद-25 में धर्म का प्रचार), लेकिन इस दबाव को निष्क्रिय करने के लिए नीति-निर्देशक तत्वों में फिर से एक बार समान नागरिक संहिता बनाना राज्य का कर्तव्य बताया। अब वर्तमान स्थिति पर विचार करते हैं। धर्म का मूल भाग और उस धर्म के अनुयायियों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली परंपराओं में अंतर होता है। परंपराएं धर्म का मूल भाग नहीं होतीं। लिहाजा अनुच्छेद-25 में मिलने वाला मौलिक अधिकार परंपराओं पर लागू नहीं होता। सर्वोच्च अदालत में दो माह पहले इसी मामले में दायर एक प्रति-हलफनामे में पर्सनल लॉ बोर्ड ने स्पष्ट कहा कि तीन तलाक और बहु-विवाह अवांछित हैं। अगर यह इस्लाम धर्म का मूल भाग होता तो अवांछित न होता। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है।
फिर अगर पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दुनिया के 22 देश जिसमें अधिकांश इस्लामिक राज्य हैं, इस शोषक और पुरुष-प्रधान कुप्रथा को छोड़ चुके हैं तो भारत में इसे क्यों बनाए रखने पर मुसलमान उलमा का एक वर्ग जोर दे रहा है? मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य में इसी अदालत ने कहा था कि अगर कोई प्रथा या कस्टम मौलिक अधिकारों को बाधित करता है तो गैर कानूनी है। सबसे पहले मिस्र ने इस तीन तलाक की प्रथा से निजात पाई और वह भी आज से 87 साल पहले 1929 में कानून संख्या 25 बनाकर। दरअसल इस्लाम के चार स्कूलों में से एक हन्बली के विद्वान इब्न तैमियाह ने 13वीं सदी में पहली बार तीन तलाक की व्याख्या करते हुए कहा था कि एक बैठक में तीन बार तलाक कहना मुकम्मल नहीं माना जाएगा और इसे एक बार कहा हुआ तलाक समझा जाएगा। मिस्न ने यह बदलाव इसी के मद्देनजर किया था, लेकिन इसके बाद पूरी दुनिया के इस्लामिक देशों में इसे माना जाने लगा और तदनुरूप कानून बनाए गए। सूडान ने इसे 1935 में लागू किया था। कालांतर में धुर इस्लामिक राष्ट्र जैसे इराक, जॉर्डन, इंडोनेशिया, संयुक्त अमीरात और कतर भी तैमियाह की व्याख्या के अनुरूप कानून लाए। उधर एक अन्य धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए मुस्तफा कमाल के शासन में तुर्की में 1926 में स्विस नागरिक संहिता को अंगीकार किया गया। यह संहिता पूरे यूरोप की सबसे प्रगतिशील संहिता मानी जाती थी, लेकिन किसी मुसलमान ने नहीं कहा कि यह इस्लाम के खिलाफ है।
पाकिस्तान में 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा ने पहली पत्नी को तलाक दिए बगैर अपनी सेक्रेटरी से शादी कर ली। पूरे पाकिस्तान में गुस्से का सैलाब आ गया। मजबूरन एक कमीशन बनाया गया, जिसने 1956 में व्यवस्था दी कि एक बैठक में तीन बार कहा गया तलाक एक बार माना जाएगा। और तब से सुधार शुरू हुआ। आखिर क्या वजह है कि भारत के उलमा का एक वर्ग इस्लाम को इतना कमजोर मानता है कि स्त्रियों को समान अधिकार देने की व्यवस्था में उसे खतरा नजर आ रहा है? दरअसल कमजोर भारतीय इस्लाम नहीं है, बल्कि देश के उलमा हैं जिन्हें अपनी संस्था के अस्तित्व पर खतरा नजर आने लगा है। पूरी दुनिया की न्याय व्यवस्था में माना जाता है कि जीने का अधिकार तब तक संपूर्ण नहीं हो सकता जब तक उसमें विश्वास और गरिमा के साथ जीना शामिल न हो। प्रश्न यह भी नहीं है कि कितनी मुसलमान औरतें इस प्रथा की शिकार हैं। अगर एक भी है तो वह प्रथा सभी समाज पर दाग है। आधुनिक धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के जनक होल्याके ने नैतिकता की परिभाषा देते हुआ कहा कि नैतिकता व्यक्ति के उन्नयन पर आधारित होती है और उसका किसी भगवान या भविष्य की दुनिया के वादे से कोई मतलब नहीं होता। लिहाजा इसे कभी भी भगवान और धर्म से परे रखना चाहिए। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है। इसे बनाए रखने में मुस्लिम उलमा के सभी वर्ग मदद करें तो शायद यह इस्लाम की भी बड़ी सेवा होगी।
[ लेखक एनके सिंह, ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव हैं ]