मुरली मनोहर श्रीवास्तव

यकीन मानिए कि मैं राग दरबारी और ऑफिस पुराण माने जाने वाले ऑफिस-ऑफिस जैसी कोशिशों को धूमिल करने या उसकी महत्ता को नकारने का प्रयास नही कर रहा हूं, वरन मैं अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों को नमन करते हुए ऑफिस रस को साहित्य में मान्यता दिलाने के लिए संघर्ष शुरू कर रहा हूं। आशा ही नहीं मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं अपने जीवनकाल में ही ऑफिस रस को आधिकारिक मान्यता दिला दूंगा और आने वाले समय में निश्चय ही हिंदी साहित्य के भावी इतिहासकार और समीक्षक इसे रसराज की उपाधि से नवाजेंगे। तब यह छोटा सा दस्तावेज ऑफिस रस पर एक कालजयी रचना के रूप मे प्रस्तुत किया जाएगा। हालांकि साथ में यह भी जुड़ा रहेगा कि यह ऑफिस रस के प्रारंभिक काल की रचना है जिसमें अपार त्रुटियां हैं। इतनी भीमकाय भूमिका बांधने और स्वयं को इस विधा में भविष्य के युगप्रवर्तक के रूप में खुद को प्रस्तुत करने के बाद अब मैं आपकी अनुमति से ऑफिस रस पर चर्चा का श्रीगणेश भी करता हूं। मैंने मान लिया है कि इतने महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के लिए आपकी अनुमति महज एक औपचारिकता है।
देखिए, मैं कुछ लक्षण लिख रहा हूं जो आपको किसी व्यक्ति के भीतर ऑफिस रस प्रवाहित होने के लक्षणों की जानकारी देने में सहूलियत भरे साबित होंगे। जैसे ही किसी व्यक्ति के भीतर ऑफिस रस प्रवाहित होना प्रारंभ होता है उसके चेहरे पर अनेक भाव एक साथ आने शुरू हो जाते हैं। घृणा, करुणा, प्रेम, दया, ममता, उत्साह, जुगुप्सा और निराशा सभी का सम्मिलित प्रभाव उसके चेहरे पर दिखाई देने लगता है, परंतु इनमें से कोई भी भाव स्थाई नहीं रहता। हर भाव पल प्रतिपल बदलता रहता है। उसके चेहरे के भाव पढ़ कर एक कुशल ऑफिस मर्मज्ञ समझ जाता है कि उसके मन में क्या चल रहा है। जैसे ही कोई ऑफिस रस से प्रेरित किसी व्यक्ति के संपर्क में दूसरा ऑफिस कर्मचारी आता है वह स्वत: ही ऑफिस रस से संक्रमित हो जाता है और दोनों के मध्य नेत्रों के माध्यम से संवाद होने लगता है। इस रस के प्रवाहित होते ही निंदा रस किसी सेवक की भांति वाणी पर स्थायी भाव सा विराजमान हो उठता है और हृदय आनंद के सागर में गोते लगाने लगता है। मैंने आनंद शब्द प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि ऑफिस रस में सुख से आगे बढ़कर व्यक्ति के भीतर आनंद रस प्रवाहित करने की क्षमता है इसीलिए मैं इसे रसराज की उपाधि से विभूषित करना चाहता हूं।
विश्वास मानिए मैं ऑफिस रस को साहित्यिक मान्यता दिलाने के लिए सैकड़ों व्यावहारिक रचनाएं लिखूंगा और इस धारा के रचनाकारों का एक संगठन बनाऊंगा जो इस रस की स्थापना के लिए कागजी स्तर पर संघर्ष करेंगे, वहीं कुछ युवा और उत्साही साहित्यकार इसे आधिकारिक मान्यता दिलाने के लिए साहित्य अकादमियों पर झंडा बैनर लेकर प्रदर्शन करेंगे। मुझ पर ऑफिस रस को स्थापित करने के लिए घोर स्वार्थी होने का आरोप भी लगे तो चलेगा। वस्तुत: घोर स्वार्थी होना ऑफिस रस का मूल भाव है। मतलब यह कि अपने लाभ के लिए किसी को बड़ी से बड़ी हानि पहुंचाने से गुरेज न होना इस रस का उद्गम स्नोत है। इसे ही ध्यान में रख कर ऑफिस के बाकी क्रियाकलाप किए जाते हैं, जो स्वत: ही हृदय में पैदा हो रहे अन्य भावों के मिश्रण से इंद्रधनुषी रस (रंग नहीं) ऑफिस रस का निर्माण करते हैं। जहां हर रस के प्रवाह का एक समय होता है वहीं ऑफिस रस का प्रवाह एक निर्बाध अनवरत प्रक्रिया है। यह घर में, सड़क पर, चाय के ठीहे पर कहीं भी प्रवाहित हो सकता है। कई बार ऑफिस गए बगैर भी इस रस का आनंद लिया जा सकता है। इस रस के प्रवाह से लोगों में परमानंद की अनुभूति होती है। ऑफिस रस की लत मदिरा और ड्रग्स से भी अधिक खतरनाक है। जिसे एक बार ऑफिस रस की लत लग गई वह इसकी प्रॉपर डोज के बिना रह ही नहीं पाता है। वह कहीं भी रहे, किसी भी हाल में पड़ा हो, इस रस की प्राप्ति के लिए छटपटाता रहता है। बस यह समझ लीजिए कि अस्पताल में बिस्तर पर पड़े जिस कर्मचारी का इलाज करने में सभी डॉक्टर और दवाएं फेल हो जाती हैं उसे उस के साथी ऑफिस रस प्रवाहित कर बिस्तर से उठा कर खड़ा कर देते हैं। यहां तक कि कई प्राणी जो ऑफिस रस के अभाव में प्राण त्याग देते हैं उनकी भटकती आत्माएं ऑफिस कॉरिडोर में दूसरों की रस चर्चा से रसास्वादन करती पाई जाती हैं। इसमें सेवा मुक्त हुए लोग भी शामिल हैं जो इस रस के अभाव में घर मे मानसिक रोगी तक हो जाते हैं। ऑफिस रस वर्तमान युग में सभी रसों से अधिक प्रभावी होता जा रहा है। अत: समय आ गया है कि इसे साहित्य में ग्यारहवें रस की मान्यता प्रदान की जाए।

[ हास्य-व्यंग्य ]