आज कल मशीनें विश्व में ही नहीं, भारत में भी मनुष्यों की जगह ले रही हैं और दशकों की आर्थिक वृद्धि और जनहित की अनेक योजनाओं के बावजूद भी तीन में से एक भारतीय गरीबी रेखा के नीचे है। अधिकतर काम का मशीनीकरण होने से रोजगार में भारी मात्रा में कमी आई है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोध के मुताबिक 47 प्रतिशत नौकरियां आने वाले 20 वर्षों में ऑटोमेशन के चलते खत्म होने की कगार पर हैं। इसी प्रकार से एक ऑस्ट्रेलियाई शोध के मुताबिक तकनीक की वजह से बहुत जल्द यानी 2025 तक उनके देश में 40 प्रतिशत नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा होगा। कुछ इसी तरह के अन्य शोध ने एशिया और यूरोप के उच्च आय वाले देशों को चिंता में डाल दिया है। सिर्फ विनिर्माण के क्षेत्र में शारीरिक श्रम करने वाले लोगों की ही नौकरी खतरे में नहीं है, बल्कि दफ्तरों में काम करने वालों की नौकरियां भी जा सकती हैं, क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता नई सीमाएं लांघ सकती है। यूरोप-अमेरिका की कई नामी कंपनियां रोबोट का सहारा ले रही हैं और एशियाई देशों में स्थापित अपने कारखाने बंद करने की तैयारी में हैं। जाहिर है कि यह परिदृश्य विकासशील देशों के लिए और भी अधिक चिंता की स्थिति है। अगर किसी को लगता है कि तकनीकी क्रांति के इस दौर में हमारे सस्ते मजदूरों की वजह से हम लोग अप्रभावित या कम से कम ज्यादा सुरक्षित रहेंगे तो सरासर गलत होगा। विश्व बैंक ने पूर्वानुमान व्यक्त किया है कि मशीनीकरण की वजह से चौंका देने वाले परिणाम सामने आ सकते हैं। भारत के सभी क्षेत्रों में 69 फीसद, चीन में 77 फीसद और इथियोपिया में 85 फीसद नौकरियों पर गंभीर खतरा है।
उन्नत तकनीक जैसे कि बिना ड्राइवर के वाहन यातायात अर्थव्यवस्था और उससे संबंधित लाखों नौकरियों को काफी बाधित करेंगे, जबकि इस बात पर मतभेद है कि कितनी जल्दी यह सब होगा। इससे संबंधित बहुत से परीक्षण चल रहे हैं और उन्हें अरबों डॉलर का आर्थिक समर्थन हासिल है। इन दिनों दुनिया के कई देशों में यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ) पर चर्चा हो रही है। यूबीआइ सभी नागरिकों के लिए एक न्यूनतम आदर्श आर्थिक सहायता है। हालांकि लोक हितकारी राज्यों (वेलफेयर स्टेट) में इस तकनीक की जड़ें 18वीं शताब्दी में निहित हैं, लेकिन 21वी शताब्दी में यह फिर एक बार वाद विवाद का कारण बन गया है। वैसे तो यह उन देशों में ज्यादा चर्चित है जहां अधिक आय है, लेकिन आजकल भारतीय अर्थशास्त्रियों ने भी इस बारे में अपने विचार व्यक्त करना शुरू कर दिया है। विकासशील और विकसित देशों के उद्देश्य, तर्क और उपलब्ध साधनों में जमीन-आसमान का फर्क है, लेकिन हम यूबीआइ के विचार से सहमत हों या असहमत, उसकी अनदेखी नहीं कर सकते।
अतीत का अनुभव यह कहता है कि हमारे राजनेताओं का पहला कदम नौकरियां बचाने के नाम पर यहां ऐसी किसी नई तकनीक का रास्ता रोकने की कोशिश होगा, लेकिन यह 1980 का वक्त नहीं है जब बैंक कंप्यूटरीकरण को संगठनों के दबाव की वजह से एक दशक तक टालना पड़ा। आज की क्रूर प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में नई तकनीक पर किसी प्रकार का प्रतिबंध बहुत कम वक्त तक ही लगाया जा सकता है और भारत को इस प्रतिस्पर्धा से बाहर रखना उसे चोटिल करने जैसा होगा। अगर आप सोचते हैं कि यूबीआइ की वकालत सिर्फ आदर्श परिकल्पना में विश्वास रखने वाले लोग ही कर रहे हैं जिन्हें वास्तविक दुनिया का जरा भी अंदाजा नहीं है तो आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि इस बार इस पर विचार करने वालों में पूंजीवाद में गहरा विश्वास रखने वाली सिलिकॉन वैली दौड़ में सबसे आगे है। वास्तव में वाइ कॉम्बिनेटर नाम का स्टार्टअप इनक्यूबेटर इन दिनों खूब वाहवाही बटोर रहा है और कैलिफोर्निया में एक व्यवस्थित योजना के तहत पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू हो चुका है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि यह विचार विकसित देशों में अपने चरम पर है। इसी साल जून के महीने में ही 2500 डॉलर प्रति माह वाली यूबीआइ योजना को अपने संविधान में लागू करने वाले संशोधन को स्विट्जरलैंड ने सिरे से खारिज कर दिया। दूसरी ओर फिनलैंड प्रयोग के तौर पर ऐसी योजना लाने वाला है, जिसमें कई हजार नागरिकों को बिना किसी शर्त के मौजूदा आर्थिक सहायता के बदले 600 डॉलर प्रतिमाह दिए जाएंगे।
यूबीआइ को लेकर बहस का मुद्दा यह भी है कि लोगों के काम करने के प्रति उत्साह पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? इस विषय पर भी मतभेद हैं कि इस गणित को विकसित और लोक कल्याणकारी अर्थव्यवस्था में कैसे इस्तेमाल में लाया जाए जिसके ऊपर जनता पर खर्च करना बड़ा बोझ है और इस खर्च में कटौती न कर पाना एक मजबूरी। इस सभी बातों पर प्रकाश डाला है अर्थ जगत की जानी-मानी पत्रिका द इकोनॉमिस्ट ने। उसका यही मानना है की यूबीआइ लोगों को काम करने के प्रति हतोत्साहित किए बिना गरीबी के मकड़जाल से निकालने में कामयाब होगी।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रणब बर्धन, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के विजय जोशी, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के मैत्रीश घटक का तो कहना है कि यूबीआइ भारत जैसे देशों के लिए और भी अधिक फायदेमंद है। इसका सीधा कारण है कि विकसित देशों में यूबीआइ फंडिंग के लिए पैसा निकालने का मतलब है गरीबों और लाचार लोगों के लिए चल रही योजनाओं पर भारी कटौती करना। भारत में ज्यादातर समाजसेवी योजनाएं गरीबों के लिए व्यर्थ की कवायद साबित हो रही हैं, क्योंकि इनमें से अधिकतर योजनाएं भ्रष्टाचार से भरी हुई हैं और कहीं न कहीं अमीरों के समर्थन में हैं। कॉरपोरेट टैक्स में थोड़ी कटौती और पैसे के बेजा इस्तेमाल को यूबीआइ के लिए अमल में लाना भारत के लिए वरदान साबित हो सकता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी भी इस बात का समर्थन करता है। आठ फीसद सकल घरेलू उत्पाद होने से और भारतीय अर्थव्यवस्था के अपने निम्न स्तर से वापस पटरी पर आने का एक नुकसान भी हुआ है और वह यह कि अब पहले के मुकाबले रोजगार के अवसर कम पैदा हो रहे हैं। पिछले कुछ दशकों में वे बढे़ थे। कई अर्थशास्त्रियों की तरह प्रोफेसर सुदीप्तो मंडल का मानना है कि यूबीआइ को लागू करने में बहुत से राजनीतिक रोड़े हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था के ढांचे का आम लोगों के हित में पुन: निर्माण करना बड़े और ताकतवर वर्गों की नींव हिला देगा। हमने पहले ऐसी प्रणाली का अनुसरण करने के बहुत से अवसर गंवा दिए जो दूसरे विकासशील देशों ने अपनाए, लेकिन अब जब विकसित देशों की अर्थव्यवस्था सिमट रही है तब भारत सबसे तेजी से विकास की ओर बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन कर उभरा है। फिर भी हमारी बड़ी जनसंख्या की सारी जरूरतें तभी पूरी होंगी जब हम पारंपरिक सोच से हटकर कुछ नया सोचें।
[ लेखक बैजयंत जय पांडा, बीजद के लोकसभा सदस्य हैं ]