हसीना फारस को अच्छी तरह मालूम है कि कठमुल्लों से कैसे लड़ा जाए। उनका महाराष्ट्र के प्रमुख शहर कोल्हापुर का मेयर बनना उन घोर प्रतिक्रियावादी मौलवियों और कठमुल्लों के मुंह पर करारा तमाचा है, जो औरतों को समाज में बराबरी के अधिकार देने-दिलवाने का विरोध करते रहते हैं। आज हसीना पूरे देश की मुस्लिम महिलाओं के लिए प्रेरणा की स्नोत बनकर उभरी हैं। दरअसल, कोल्हापुर के कठमुल्ला हसीना और अन्य मुस्लिम महिलाओं के नगर निगम चुनाव लड़ने का विरोध कर रहे थे। इनका कहना था कि महिलाओं का चुनाव मैदान में आना इस्लाम सम्मत नहीं है। पता नहीं कहां से उन्होंने किसी महिला के चुनाव लड़ने को मजहब से जोड़ दिया। इसके बावजूद हसीना चुनाव लड़ीं और विजयी भी रहीं।मौलवियों ने फतवा सुना दिया था। इसके बावजूद 19 मुस्लिम औरतें चुनाव मैदान में उतरीं। पांच को कामयाबी भी मिली। इनका चुनाव लड़ना और जीतना कहीं न कहीं इस बात को मजबूती देता है कि अब मुस्लिम महिलाएं अंधकार के युग में रहने वाले मुल्ला-मौलवियों के फतवों को खारिज करने लगी हैं। अब वह मुख्यधारा में शामिल होने को तत्पर हैं।
हसीना फारस कट्टरता और संकीर्णता का सामना करते हुए मेयर चुनी गईं। हालांकि उन्हें पर्दे के पीछे जिंदगी जीने के लिए धकेला जा रहा था। उन्हें यह सब कुछ नामंजूर था। अब हसीना से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वह देश भर की मुस्लिम महिलाओं को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाने के लिए आगे आएंगी। उनकी असली लड़ाई तो अब शुरू हुई है। तीन तलाक और हलाला जैसे गंभीर मसलों से देश की करोड़ों मुसलमान औरतों का जीना कठिन होता जा रहा है। हसीना फारस सरीखी औरतों को इन असहाय महिलाओं को मुक्ति का रास्ता दिखाना होगा। इस लिहाज से हसीना जैसी महिलाओं पर बड़ी जिम्मेदारी आ गई है।
हसीना फारस भी मानती हैं कि जमाना बदल रहा है, जिससे मुस्लिम महिलाएं दूर नहीं रह सकतीं। दिक्कत यह हो रही कि मुस्लिम समाज अपने को बदलने के लिए कतई तैयार नहीं है। वहां पर बहस के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। कोई बदलाव के रास्ते पर चलने की चेष्टा करता है तो उसकी टांग खींच ली जाती है या तोड़ दी जाती है। इस लिहाज से हसीना फारस की उपलब्धि महत्वपूर्ण है। अब यह जाहिर हो चुका है कि तीन तलाक मामले में मुस्लिम समाज के रूढ़िवादी तत्व कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। वे पूरे मुस्लिम समाज पर हावी हैं। वे मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी में मानो उम्मीद की किरण देखना ही नहीं चाहते। उनके खौफ से कोई बोलता तक नहीं। इनकी ख्वाहिश है कि मुस्लिम औरतें अपने सीलन भरे घरों में ही दफन हो जाएं। वक्त का यह तकाजा है कि तरक्की पसंद मुसलमान अब हसीना फारस जैसी औरतों का साथ दें और अपने हकों के लिए सड़कों पर उतरें। इन्हें अपने समाज की प्रतिगामी ताकतों को धूल में मिलाना ही होगा। चुनौती कठिन है, पर नामुमकिन नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिम समाज में अपने हकों के लिए लड़ने वाली औरतों की कमी है। अब लेखिका नूर जहीर का ही उदाहरण लें। तीन तलाक और हलाला पर नूर जहीर लगातार कट्टरपंथियों से दो-दो हाथ कर रही हैं। उन्हें अपने तर्कों से पानी पिला रही हैं। इन बहस में नूर जहीर ने एक नया आयाम जोड़ा है। उनकी मांग है कि मुस्लिम महिलाओं को भी उतनी ही आसानी से तलाक देने का अधिकार मिले जितनी आसानी से मर्दों को मिलता है। औरत भी तीन बार तलाक कह सके और जब चाहे मर्द को छोड़ सके।
बेशक, अन्य समाजों की तुलना में मुस्लिम औरतें आर्थिक रूप से कहीं कम स्वावलंबी हैं। ये आर्थिक रूप से पूरी तरह पुरुषों पर ही निर्भर हैं। शायद इसी वजह से अंधेरे और घुटन में सांसें ले रही हैं। तालीम की रोशनी मुस्लिम लड़कियों को सही तरह से नहीं मिल पाती। अगर किसी समाज की हालत और प्रगति के बारे में जानना हो तो यह देखें कि उस समाज में औरतें किस स्थिति में हैं। जिस जंग को तलवार, बंदूक और तोप से नहीं जीत सकते उसे आप तालीम से जीत सकते हैं।
भारत की कुल आबादी में लगभग 17.22 करोड़ मुस्लिम हैं। जाहिर है, इनमें औरतें आधी हैं। शिक्षा, आर्थिक सामाजिक और पारिवारिक स्थिति के मामले में मुस्लिम महिलाएं बदतर हालात में हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत की लगभग 60 फीसद मुस्लिम महिलाएं शिक्षा से वंचित हैं। मात्र 10 फीसद महिलाएं उच्च शिक्षा ग्रहण कर पाती हैं, जबकि शेष 30 फीसद महिलाएं दसवीं कक्षा तक अथवा उससे भी कम तक की शिक्षा पाकर घर की बहू बनने के लिए मजबूर होती हैं। शिक्षा की तरह आत्मनिर्भरता के मामले में भी मुस्लिम महिलाओं की हालत चिंताजनक है। सच्चर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक हिंदू महिलाओं के 46.1 फीसद के मुकाबले केवल 25.2 फीसद मुस्लिम महिलाएं ही रोजगार के क्षेत्र में हैं। यानी लगभग 75 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं को पैसे के लिए अपने शौहरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जिसके चलते वे अपनी मर्जी से अपने ऊपर एक भी पैसा खर्च करने के काबिल नहीं हैं।
यह सभी आंकड़े न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि बहुत ही डरावने हैं, और मुस्लिम समाज के लिए एक चेतावनी भी हैं। यह सच है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए धार्मिक कारण काफी हद तक जिम्मेदार हैं। दरअसल धर्म की मनमर्जी व्याख्या से इनकी दुर्दशा हो रही है, जिसमें पर्दा जैसी रुकावट और रूढ़िवादी सोच शामिल है। अब भी बड़ी तादाद में मुस्लिम परिवारों में लड़कियों को क्यों पढ़ाएं वाली मानसिकता है? ससुराल में जाकर चूल्हा-चौका ही तो संभालना है? और यह भी कि लड़की अगर ज्यादा पढ़ लिख जाएगी तो शादी के लिए रिश्ते नहीं आएंगे, इस सोच के चलते कई बार लड़कियां खुद तालीम हासिल करने से पीछे हट जाती हैं या हटा दी जाती हैं।
इन तमाम अवरोधों के बावजूद भारत में अनेक मुस्लिम महिलाओं ने बेहद सराहनीय काम किए हैं। रजिया सुल्तान भारत की पहली मुस्लिम महिला शासक थीं। अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल ने हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करने के लिए उत्कृष्ट कार्य किए थे। अब हमारे समाने हसीना फारस हैं। फिर मुस्लिम समाज में औरत की यह बदतर हालत क्यों हैं? तमाम निराशा और कठिनाइयों के बावजूद लगता है कि हालात सुधरेंगे। मुस्लिम महिलाएं अपने हकों के लिए घरों से बाहर निकलेंगी। आखिर, उनके सामने हसीना फारस जैसी कर्मठ और जुझारू महिलाओं के उदाहरण जो हैं।
[ लेखक आरके सिन्हा, राज्य सभा के सदस्य हैं ]