सूर्यकुमार पांडेय

ढेर सारे खरगोश थे। थोड़े से शेर थे। जैसा कि सदा से होता आया है, दोनों ही जंगल में रहते थे। वह जंगल था, इसलिए उसके अपने कतिपय कायदे-कानून भी थे। पहला नियम तो यह ही था कि शेरों के खानदान में शेर ही पैदा होते थे। खरगोशों के घरों में खरगोश जन्म लेते थे। शेर बड़े होकर जंगल में राज करते और जंगल के राजा कहे जाते थे। खरगोश उनकी प्रजा कहलाते थे। शेरों ने अपने लिए जंगल के इलाके बांट रखे थे। उनमें आपस में एक मौन समझौता था, इतना वन-क्षेत्र हमारा, इतना तुम्हारा। प्रत्येक पांच या दस वर्षों के बाद वे अपने वन-क्षेत्रों को आपसी समझौते के आधार पर बदल भी लिया करते थे। शेर खरगोशों की आश्वस्ति के लिए बराबर उनके बीच जाकर यह प्रचारित करते रहते थे कि जब तक हम शेरों का राज है, तुम्हें किसी बाघ या भालू से डरने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी इज्जत हमारे हाथों में है। इसे कोई दूसरा नहीं ले सकता है। वे यदा-कदा अपने मनोरंजन के लिए उन खरगोशों से पूछ लिया करते थे, ‘तुम लोग भी राजा बनोगे!’ इस पर खरगोशों की ओर से भी सदैव सकारात्मक प्रतिक्रिया ही मिला करती थी।
राजा कौन नहीं बनना चाहता है? उन खरगोशों के मन में भी राजा बनने के सपने होते थे। कुछ युवा खरगोश तो राजा का स्वांग बनाकर जब-तब कुलांचे मारते और सबको आनंदित करते थे। उनके परिवारों के बुजुर्ग और अनुभवी खरगोश यह देखते तो मुस्कुरा भी देते थे। खरगोश शेरों से पूछते थे, ‘क्या हम लोग भी राजा बन सकते हैं?’ तब शेर उनसे कहते थे, ‘क्यों नहीं? तुम हमसे चुनाव लड़ो। जीत जाओ और राजा बन जाओ। आखिरकार यह सारा जंगल तुम्हारा ही तो है। इस पर असली अधिकार तो तुम्हारा ही है। हम भी तो तुम्हारे लिए ही राजा बना करते हैं। हमारे पूर्वजों ने भी तुम्हारी सेवा की है। आज हम कर रहे हैं। तुममें से कोई राजा बन जाएगा, तो हम कुछ दिन आराम कर लेंगे।’ बेचारे खरगोश शेरों के झांसे में आ जाते थे। वे चुनाव लड़ते थे। उनमें से कुछ हार जाते थे। अधिकांश खरगोशों की तो जमानतें तक जब्त हो जाया करती थीं। कुछ शेरों के पेट में पहुंच जाते थे। अंतत: विजय शेरों की ही हुआ करती थी। वे पुन: राजा बनते थे। खरगोश प्रजा रहने के लिए अभिशप्त थे। यही उनकी नियति थी। शेरों को राज करने का नैसर्गिक और जन्मजात वरदान मिला हुआ था। उन्हें राज करने के तमाम छल-छद्म पता थे। इस तरह शेर जंगल में राज करते और जब उनको भूख लगती थी, निरीह खरगोश ही उनका आहार हुआ करते थे।
खरगोशों की नियति ही यह होती है कि वे शेरों के शिकार बनते रहें। संख्या-बल में खरगोश अधिक होते हैं, शेर कम। फिर भी जंगल में शेरों की ही चलती है। ऐसा ही कहानियों में लिखा होता है और यथार्थ में भी यही होता है। तो ऐसा ही हो रहा था। शेर मस्त थे। सर्व सुविधा संपन्न थे। माननीय थे। खरगोश त्रस्त थे। अभावग्रस्त थे। सदैव महंगाई, जंगल में व्याप्त भ्रष्टाचार और बिगड़ती हुई कानून-व्यवस्था का रोना रोते रहते। शेर यदा-कदा खरगोशों को दिलासा देने की खातिर अलग-अलग वन-क्षेत्रों में दावत पार्टियां करते थे और खरगोशों को भी आमंत्रित किया करते थे। दावत से पहले एक शेर दूसरे शेर को देखकर गुर्राने का अभिनय करता। वे आपस में पंजे लड़ाते। उठापटक करते। एक शेर दूसरे को पटक देता। दूसरा तीसरे को धूल चटा देता। खरगोश यह दृश्य देखकर आनंदित होते थे। उन्हें अपने क्षेत्र के राजा से दूसरे इलाके का राजा बेहतर प्रतीत होता था। ड्रामा समाप्त होता। दावत आरंभ होती। शेरों की पार्टी में एक हजार खरगोश आते तो उनमें से आधे ही अपने घरों को लौट पाते थे। खरगोश रोते-बिसूरते और फिर अपने कुनबों की आबादी बढ़ाने में लग लेते। वहीं कुछ खरगोश व्यवस्था परिवर्तन और क्रांति के लिए कुछ न कुछ तिकड़में भिड़ाने की जुगत में लगे रहते।
इसी सिलसिले में किसी दिन एक खरगोश के बच्चे के हाथ नीति कथाओं की एक किताब लग गई। पन्ने पलटे तो उसे कुछ काम सामग्री नजर आई। उसमें शेर और खरगोश वाली पंचतंत्र की वह कहानी भी थी, जिसमें खरगोश शेर को कुएं पर ले जाता है और उसकी परछाई दिखला कर कहता है कि महाराज, कुएं में एक और शेर है। इस तरह वह असली शेर को कुएं में छलांग लगवा देता है। कहानी के अंत में, जैसा कि पुराने समय की कहानियों में हुआ करता है, नैतिक शिक्षा दी हुई थी कि बुद्धि से बल को परास्त किया जा सकता है। उस खरगोश के बच्चे को लगा कि इसी तरह वह भी अपने क्षेत्र के राजा को हटा सकता है। वह शेर के पास जाकर बोला, ‘ हे महाराज, मैं आपका आहार बनना चाहता हूं। मगर उधर कुएं में एक और शेर बैठा हुआ है जो मुझे मना कर रहा है।’ ऐसा कहकर खरगोश का वह बच्चा शेर को उस कुएं के पास ले जाने में सफल हो गया। शेर ने कुएं में झांका, फिर अपनी गर्दन पीछे घुमाकर खरगोश के उस शावक से बोला, ‘बेवकूफ कहीं के! वहां पानी में जो बैठा है, वह मेरी परछाई नहीं, मेरा भाई है।’ इतना कहकर उस शेर ने खरगोश के बच्चे को अपने पंजों में समेट लिया। कुएं का शेर भी बाहर निकल आया और फिर दोनों ने एक साथ ब्रेकफास्ट किया।

[ हास्य-व्यंग्य ]