अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के साथ नए उभरते राष्ट्रवाद को लेकर दुनियाभर के मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक तबके में खासी बैचेनी है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में 2016 के सर्वाधिक प्रचलित शब्द के रूप में ‘पोस्ट ट्रूथ’ यानी उत्तर सत्य शब्द को जोड़ा गया है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे कुछ प्रमुख देशों से अंग्रेजी भाषा की जो धारा विश्व स्तर पर बहती है उसमें ‘पोस्ट ट्रूथ’ शैली का खासा उपयोग हुआ है। द्वापर में युधिष्ठिर द्वारा बोले गए अर्ध-सत्य ‘अश्वत्थामा हतोहत...’ के बीज मंत्र से शुरू हुई सत्य के लहूलुहान होने की यह यात्रा विश्व-पटल पर आज भी जारी है। सत्य ने हर युग में आघात सहे हैं, छल-कपट को झेला है। अनेक आक्रमणकारियों ने ‘सत्य’ की ओट में छुपकर हमले किए हैं। कई सौ वर्षों तक छद्म सत्य का आवरण ओढ़कर आधी से अधिक दुनिया को अपना गुलाम बनाए रखा गया। फिर सत्य के संदर्भ में आज यह नई शब्दावली क्या है? दरअसल, पिछले पचास से अधिक वर्षों से विश्व-स्तर पर भी और भारत में भी माक्र्स और मैकाले की चिंतन योजना ने लंबे पैर पसारे हैं। राष्ट्र और समाज से अधिक महत्व व्यक्ति की स्वतंत्रता को दिया जाने लगा था। व्यक्ति अपनी आकांक्षा, सोच में राष्ट्र और समाज से बड़ा हो चला था। व्यक्ति का निर्माण करें, वही राष्ट्र का निर्माण करेगा या राष्ट्र का निर्माण करें, व्यक्ति उसमें अपने आप शमिल हो जाएगा? ये बहुत बारीक प्रश्न हैं, लेकिन शुरुआत में जितने सूक्ष्म रूप में ये नजर आते हैं, अंतिम परिणाम में उतने ही भिन्न दिखते हैं।
उत्तर सत्य से पूर्व विद्वानों-आलोचकों ने अपनी सुविधा के लिए आकर्षक शब्दों का आविष्कार किया। इसे इन्होंने व्यक्तिकी स्वतंत्रता, नव-उदारवाद, स्त्री-स्वतंत्रता के खुलेपन की पुकार का दौर बताया। इस प्रक्रिया में संस्कृति, परंपरा, मूल्य, राष्ट्र, अध्यात्म, चरित्र, विश्वास को धीरे-धीरे किनारे कर दिया गया। भारत में राजनीतिक सत्ता के इर्द-गिर्द के वातावरण ने भी कथित उदारवादी चिंतन को पैर पसारने में भरपूर सहयोग किया। तो क्या आज उदारवाद अप्रासंगिक हो गया या विश्व-स्तर पर उसके खात्मे की शुरुआत हो चुकी है। ब्रिटेन की ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ ने इस बदलते मूल्य-बोध को ही अकादमिक पहचान दी है। असल में उदारवाद एक ऐसा मुखौटा है, जो उदारता के नाम पर कई स्तरों पर खतरनाक ढंग से अनुदार था। वह एकदम एकतरफा सोच का परिणाम था। अपने से इतर सोच को सिरे से खारिज ही नहीं करता था, बल्कि उसे हेय समझता था। सत्ता का छद्म विरोध वास्तव में सत्ता से चिपकने का रास्ता था। सत्ता-बुद्धिजीवी, पत्रकारिता, अकादमिक एजेंसियों का ऐसा गठजोड़ बना था, जो स्वयं को उदारवादी कहता था, लेकिन अपने व्यवहार में, हिंसक ढंग से अनुदार था। जो इनसे सहमत नहीं था उसे धर्मभीरु, अंधविश्वासी, असहिष्णु, खाप पंचायती, हिटलरवादी, पुरातनपंथी कहकर बुरी तरह से धकियाते थे। इतिहास बताता है कि साधारण मनुष्य और सामाजिक संदर्भ किसी भी एक पक्ष की अतिवादी स्थिति को कभी भी बहुत दूर तक स्वीकार नहीं करते। इस अर्थ में उदारवादी चिंतन अपने धर्म से, सामाजिक मूल्यों से, परंपरा और संस्कृति से कटा हुआ था।
स्पष्टत: ‘उत्तर सत्य’ या ‘पोस्ट ट्रूथ’ परिवेश का निर्माण एक दिन की घटना नहीं है। आज लोकतंत्र और टेक्नोलॉजी के विकास ने विश्वस्तर पर नई परिस्थितियां पैदा की हैं, जहां पर उदारवादी मुखौटा टूट कर बिखर रहा है। अब सीधी चुनौतीपूर्ण बहसें होने लगीं। अनेक सीधी बहसों में पूर्व के निर्णय और कथनी-करनी के अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। यह समझना शोधार्थियों के लिए रोचक हो सकता है कि उत्तर सत्य की शुरुआत के लक्षण यूरोप, ब्रिटेन और अमेरिका से पहले भारत में दिखाई पड़ते हैं। उत्तर सत्य युगीन राजनीति और भाषा-संदर्भ इसकी तस्दीक करते हैं। भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के नेतृत्व में बिंदास भाषा का प्रयोग करते हुए अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक उदय हुआ। राजनीति में ‘तू चोर है, वो चोर है, सारे चोर हैं’, ‘मैं जेल में डाल दूंगा’ जैसे जुमले ‘भारत माता की जय’ के उद्घोष के साथ मंच पर छा गए। मीडिया ने भी इस आग में खूब घी डाला। लिहाजा उत्तर सत्य युगीन राजनीति में केजरीवाल को अप्रत्याशित सफलता मिली। मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के तमाम विश्लेषण बेमानी सिद्ध हुए। लोकसभा चुनाव में इसी प्रकार के आक्रामक उत्तर सत्य युगीन मुहावरे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सुनाई पड़े। उदारवाद से उकताई हुई उत्तर सत्ययुगीन जनता ने अप्रत्याशित चुनाव परिणाम दिए। मीडिया बुद्धिजीवी अपने आकलन में फिर से फेल हुए।
ब्रिटेन में लोगों को ‘राष्ट्र-विकास’ के हवाले से कठोर अभियान में बताया गया कि ‘यूरोपीय संघ’ से अलग होना बेहद जरूरी है। जब तक मीडिया और बुद्धिजीवी इस उत्तर सत्य युगीन चेतना को पहचान पाते, अप्रत्याशित परिणाम सामने था। फिलीपींस में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार अनेक लोगों की हत्या करने में अपनी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका खुद ही पूरी ठसक के साथ स्वीकार करते हैं। चुनावी अभियान में राष्ट्र के हवाले से खरी-मुंहफट भाषा शैली ने उनके विजयी होने में खासी मदद की। हाल ही में अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए। डोनाल्ड ट्रंप को प्रोग्रेसिव, उदारवादी मीडिया और बुद्धिजीवियों ने शुरू से ही खारिज कर दिया। ट्रंप को तानाशाह, सीमित सोच वाला, अक्खड़-अल्हड़, गैर-अनुभवी, लोभी, बिजनेसमैन बताया जाने लगा। उन्होंने भी राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए हिलेरी के प्रति संशय पैदा किया और हिलेरी की सही जगह जेल बताई। उत्तर सत्ययुगीन चेतना को ट्रंप की ये बातें बहुत पसंद आई। इस प्रकार एक के बाद एक हो रही पराजय ने कथित बुद्धिजीवियों को फिर से सोचने को मजबूर कर दिया है। वे अपने उदार होने की धुन में कितना बेसुरा गा रहे थे, इसका उनको अहसास ही नहीं था। सारे श्रोता अर्थात जनता उठकर जा चुकी थी। वास्तव में, उत्तर सत्य युगीन चेतना उग्र राष्ट्रवाद के सिर उठाने की घटना नहीं है, बल्कि संवेदनशील राष्ट्र के निर्माण की योजना है। इसके केंद्र में ‘नेशन फस्र्ट’ की थ्योरी है।
[ लेखक वीरेंद्र भारद्वाज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं ]