काले धन की जड़ पर प्रहार करने के लिए प्रधानमंत्री की ओर से आठ नंवबर को 500 और 1000 रुपये के नोटों को बंद करने की घोषणा से संभवत: काले धन के कारोबारियों से ज्यादा उनके राजनीतिक विरोधी स्तब्ध रह गए हैं। कुछ हफ्ते पहले ही पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक कर प्रधानमंत्री मोदी ने दिखा दिया था कि उनके पास निर्णय लेने की क्षमता है। अब काला धन रखने वालों के खिलाफ हालिया कदम से उनकी छवि और ज्यादा मजबूत हुई है। यह सही है कि इस कार्यक्रम को लागू करने में गड़बड़ियां नजर आई हैं और सरकार के विभिन्न विभाग नोटबंदी से पैदा हुई चुनौतियों को संभालने के लिए संघर्ष रहे है। इसके परिणामस्वरूप बैंकों के बाहर लंबी कतारें नजर आ रही हैं और लोगों को अपने पैसे निकालने में दिक्कतें हो रही हैं। फिर भी देश की अधिकांश जनता ने नोटबंदी के फैसले को सराहा है। प्रधानमंत्री मोदी के कुछ कट्टर आलोचकों को छोड़कर कोई भी उनकी मंशा पर संदेह नहीं कर रहा है। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है, क्योंकि यह स्मरण करना कठिन है कि पिछली बार कब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने समूचे देश के लोगों का इतने बड़े पैमाने पर भरोसा हासिल किया था और वह भी तब जब अचानक हुई नोटबंदी से देश का हर वर्ग प्रभावित हुआ है।
इस बीच विपक्ष नए नोटों की अल्प उपलब्धता पर तनाव बढ़ाने में लगा हुआ है। हालांकि लोग विपक्ष के झांसे में नहीं आए हैं, लेकिन देश की जनता की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकारी तंत्र को अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता है। नोटबंदी की योजना के लगभग तीन हफ्ते बीत जाने के बाद हालत पर नजर डालें तो एक बात बिल्कुल स्पष्ट है। देश के पास एक ऐसा प्रधानमंत्री है, जो लीक से हटकर सोचने की क्षमता रखता है और जो नेहरूवादी प्रतिष्ठान की यथास्थिति वाली मानसिकता को समाप्त करने के प्रति प्रतिबद्ध है। यद्यपि उन्होंने नौकरशाही को कुछ हद तक प्रोत्साहित किया है, लेकिन अभी भी वह पिछले सत्तर सालों की जड़ता और सुस्ती में फंसी हुई है और उनके साथ अपना तालमेल बैठाने में कठिनाई महसूस कर रही है। नोटबंदी कार्यक्रम को लागू करने में उत्पन्न होने वाली समस्याएं इस बात की सूचक हैं कि प्रधानमंत्री और उनका प्रशासनिक अमला, जिसके सहारे वह योजनाओं को लागू कर रहे हैं, दोनों एकसमान गति से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई कडे़ कदम उठाने का सार्वजनिक रूप से ऐलान किया है। इसका तात्पर्य है कि हमें आगे कुछ बड़ी योजनाओं का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री के पास अपनी योजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने के लिए जरूरी योग्य प्रशासनिक तंत्र है?
बीते दो-तीन हफ्ते के अनुभव बताते हैं कि सरकार को अपना प्रबंधकीय कौशल बढ़ाने के लिए कुछ नई रणनीतियां अपनानी होंगी। इसका एक तरीका प्रबंधन विशेषज्ञों को सरकार में सीधे प्रवेश देना है, जो कि अभी सरकारी तंत्र से बाहर हैं। भारत की जटिलताओं और प्रधानमंत्री जिस तीव्रता से बदलाव लाना चाहते हैं, उसे देखते हुए यह जरूरी है कि सरकारी और निजी क्षेत्र के प्रतिभावान लोगों को एकजुट कर एक नया तंत्र खड़ा किया जाए, ताकि कुछ विशेष योजनाओं को बेहतर तरीके से क्रियान्वित किया जा सके। ऐसा करने के लिए प्रधानमंत्री को परंपरा की जंजीरों को तोड़ना होगा, सरकार के अंदर और बाहर की प्रतिभाओं को आकर्षित करना होगा और अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उनकी मदद लेनी होगी। सरकार के अंदर वह विभिन्न विभागों में कार्यरत तकनीकी और प्रबंधकीय कौशल से युक्त अधिकारियों का चुनाव कर सकते हैं और इन्हें निजी क्षेत्र से आए विशेषज्ञों के साथ काम करने को प्रेरित कर सकते हैं। साथ ही निजी क्षेत्र से प्रधानमंत्री वैसे लोगों का चुनाव कर सकते हैं जिन्होंने ग्रामीण बाजार में विशेषज्ञता हासिल की हो या जिन्होंने निचले तबके से जुड़े बाजार पर पकड़ बनाने के लिए नया तरीका अपनाया हो। इसके लिए ठीक वह उसी तरह अपनी टीम का चुनाव कर सकते हैं जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति करते हैं। अमेरिकी प्रशासन में शीर्ष स्तर पर नियुक्त होने वाले अधिकांश लोग निजी क्षेत्र से होते हैं। उनका कार्यकाल राष्ट्रपति के कार्यकाल तक होता है और इस दौरान वे पूरी तरह सरकार में रम कर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हैं। अमेरिकी नौकरशाही भी बिना अंदर या बाहर की भावना लाए उनका स्वागत करती है और इस प्रकार दोनों एकजुट होकर देश के लिए काम करते हैं।
अब जब मौजूदा नौकरशाही की क्षमता पर सवाल खड़े हो गए हैं तब मोदी राष्ट्रीय योजनाओं के प्रबंधन के लिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों के लिए सरकार का दरवाजा खोलने की संभावनाओं पर विचार कर सकते हैं। यह संभव हो सकता है, यदि वह उस भारतीय नौकरशाही की खामियों को दुरुस्त कर दें जिसे बाहरी विशेषज्ञों का विरोध करने और उनकी रचनात्मकता को खारिज कर देने वाले तंत्र के रूप में जाना जाता है।
भारत में नौकरशाही को यहां की लोकतांत्रिक प्रणाली के अनिवार्य परिणाम के तौर पर अपने राजनीतिक आकाओं को स्वीकारना पड़ता है। मगर वह जब तक एक मंत्री को स्वयं के अनुरूप नहीं पाती तब तक वह उनके प्रति तिरस्कार की भावना रखती है। नौकरशाही में बाहरी लोगों के प्रवेश के विचार का भी बड़े पैमाने पर विरोध होता है। राजनीतिक आकाओं को तो एक अपरिहार्य बुराई मानकर स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन बाहरी विशेषज्ञों के प्रशासनिक व्यवस्था में प्रवेश का हर स्तर पर विरोध किया जाता है। जिसके पास उल्लेख करने के लिए बैच, सेवा और साल का तमगा नहीं है, उसका सरकार में कोई स्थान नहीं है। इस ढर्रे को बदलना होगा। एक नए भारत, जो कि प्रधानमंत्री मोदी का सपना है, के लिए एक नए प्रशासनिक तंत्र की आवश्यकता होगी। भारत की वास्तविकताओं को देखें तो पाते हैं कि यहां अभी भी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले और निरक्षर लोगों की अच्छी-खासी संख्या है। यहां आकांक्षाओं से भरा मध्यवर्ग बेहतर जीवनशैली के लिए लालायित है। केंद्र और राज्य सरकारें अपनी योजनाओं को बेहतर तरीके से क्रियान्वित करना चाहती हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग लाभान्वित हो सकें। ऐसे में जमीनी स्तर पर समस्याओं का सामना कर रही नौकरशाही और सरकार से बाहर के प्रबंधन विशेषज्ञों को मिलाकर एक नया तंत्र खड़ा करना नितांत जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहें तो पारंपरिक और नवीन सोच का एक मिश्रित तंत्र खड़ा करना होगा। इसे हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री को प्रशासनिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा और सरकार के कामकाज के तरीके पूरी तरह बदलने होंगे। यह अगली बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक होगी जिसे उन्हें आरंभ करना होगा।
[ लेखक ए. सूर्यप्रकाश, प्रसार भारती के अध्यक्ष हैं ]