एक हालिया सार्वजनिक सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर चर्चा आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा। इससे कुछ महीने पहले मीडिया को दिए साक्षात्कार में भी उन्होंने इसी तरह का सुझाव दिया था। उनके इन सुझावों का विभिन्न तबकों द्वारा उल्लेख किया जाता रहा है, खासतौर से काले धन पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव सुधारों की हिमायत करने वालों के लिए उनका यह सुझाव खासा आकर्षक है। उनमें से कुछ ने तो राज्य यानी सरकार द्वारा चुनावी खर्च के बंदोबस्त तक का भी सुझाव दिया है, मगर यह ऐसा प्रयोग है जो कनाडा सहित कुछ अन्य देशों में आजमाने पर नाकाम ही साबित हुआ है। हैरानी की बात है कि अभी तक मुझे कोई ऐसा विचार देखने को नहीं मिला, जो विशेष रूप से एक साथ चुनाव कराने के फायदे और नुकसान को लेकर व्यक्त किया गया हो। कुछ लेखकों ने अपने लेखों में परोक्ष संदर्भों के साथ असामान्य रूप से इस विचार को खारिज ही किया है। मैं इस बात से वाकिफ नहीं हूं कि कोई व्यक्ति या संस्था राजनीतिक दलों, मीडिया चैनलों, थिंक टैंकों, गैर सरकारी संस्थाओं या अन्य किसी मंच सरीखे विभिन्न स्तरों पर इस विषय से संबंधित विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए श्वेत पत्र तैयार करने में व्यस्त हो।
भारत में अब चुनाव, चाहे वे विधानसभा के हों या लोकसभा के, बेहद खर्चीले हो गए हैं। चुनाव आयोग द्वारा चुनाव में खर्च की सीमा निर्धारित करने के बावजूद उम्मीदवार अमूमन उससे ज्यादा ही खर्च कर देते हैं और खर्च की यह राशि न केवल एक राज्य से दूसरे राज्य, बल्कि एक चुनाव क्षेत्र से दूसरे निर्वाचन क्षेत्र तक अलग-अलग हो सकती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान खर्च की यह राशि मुद्रास्फीति और राष्ट्रीय समृद्घि से भी ज्यादा तेजी से बढ़ी है। कुछ नेता तो संसदीय या विधानसभा चुनावों में किए गए खर्च को लेकर बिना किसी बात की परवाह किए सार्वजनिक रूप से ही बयान भी दे देते हैं। एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में संसदीय और विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ रहे एक ही राजनीतिक दल के प्रत्याशियों के संयुक्त प्रचार से उनका खर्च कम से कम लगभग 40 प्रतिशत तक कम हो सकता है। तार्किक रूप से अगर काले धन की मांग कम होती है तो उसके सृजन में भी उसी अनुपात में कमी आनी चाहिए। हालांकि नीति निर्माताओं की मंडली और अनौपचारिक बैठकों में इस पर प्रारंभिक बहस शुरू भी नहीं हो पाई है। यहां तक कि चुनाव सुधारों और राज्य द्वारा उनके वित्त पोषण के समर्थक भी इस दिशा में आगे नहीं आए हैं।
भले ही चाहे जैसा हो, मगर एक साथ चुनाव कराने के तमाम फायदे हैं। वास्तव में चुनाव भारतीय जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। यहां चुनाव एक उत्सव की तरह आयोजित किए जाते हैं। हर साल देश के किसी न किसी राज्य में या किसी अन्य तरह के चुनाव होते रहते हैं। इन चुनावों के अलावा निकाय चुनाव होते हैं। इसके अलावा लोकसभा और विधानसभाओं की रिक्त सीटों के उपचुनाव भी होते हैं। अक्सर होने वाले चुनाव राजनीतिक और नागरिक जीवन, दोनों में व्यवधान डालते हैं। राजनीतिक कार्यपालिका यानी सरकार से जुड़े लोगों को चुनावी अभियान में अपना काफी समय लगाना पड़ता है, जिसका अन्यथा किसी कार्यकारी या विधायी कामकाज में सार्थक रूप से उपयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त छात्र और शिक्षक भी प्रभावित होते हैं। परीक्षाएं स्थगित हो जाती हैं और स्कूलों एवं कॉलेजों को चुनाव बूथ बना दिया जाता है और शिक्षकों की तैनाती चुनाव व्यवस्था में कर दी जाती है।
कुछ अखबारों में इस आशय से जुड़ी खबरें प्रकाशित हुई हैं कि पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा के बाद कुछ राज्यों में बोर्ड परीक्षाएं टाल दी गई हैं। ऐसा किया जाना कुछ छात्रों, विशेषकर उन छात्रों के भविष्य की संभावनाओं को पलीता लगाएगा, जो उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना चाहते हैं। इसका सबसे बड़ा खामियाजा सरकारी खजाने को भुगतना पड़ता है, जिसे चुनावी खर्च, अर्धसैनिक बलों की आवाजाही और प्रशासनिक अमले की तैनाती इत्यादि के लिए संसाधन उपलब्ध कराने होते हैं। इन सभी में धनराशि खर्च होती है, जिसे विकास या देश की जनता के कल्याण पर भी लाभप्रद रूप में खर्च किया जा सकता है। इसके अलावा बार-बार चुनाव होने से सबसे ज्यादा नुकसान नीति निर्माण के मोर्चे पर होता है। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक कार्यपालिका (सत्तारूढ़ दल) राजनीतिक मजबूरियों के चलते अहम सुधारों को चुनाव होने तक टाल देती है और खुद अपने और विपक्षी दलों के दबाव में लोकलुभावन कदमों का एलान करती है, जो देश के सीमित वित्तीय संसाधनों को खाली कर आर्थिक वृद्घि पर कुठाराघात करता है।
भारत प्रतिस्पर्धी लोकलुभावन नीतियों वाला लोकतंत्र बन गया है। कुछ बड़े सुधार हमेशा अटके रहते हैं, क्योंकि देश के किसी न किसी इलाके में कभी न कभी चुनाव चलते ही रहते हैं। इसका लब्बोलुआब यही है कि देश में हमेशा चलने वाले चुनाव बेतहाशा खर्च, विभिन्न क्षेत्रों में सुधारों में देरी, राजनीतिक एवं नागरिक जीवन में व्यवधान और राजनीतिक कार्यपालिका को फंसाए रखने का सबब बनते हैं। इससे पेशेवर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की संख्या में भी इजाफा होता है। इसके केवल दो ही नुकसान प्रतीत होते हैं। पहला, ऐसा निर्णय कुछ राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल को लंबा अथवा छोटा कर सकता है। दूसरा, राज्यपाल के जरिये लंबे समय तक केंद्र सरकार के शासन की संभावना जन्म ले सकती है। हालांकि पहले वाले विकल्प को लेकर आग्रह जुड़े होंगे, लेकिन यह एक बार होने वाली पीड़ा के समान होगा। वहीं एक साथ चुनाव कराने को लेकर बनाए कानून में उचित उपबंधों को शामिल कर इन आपत्तियों को कम किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मीडिया, चुनाव पंडितों, शोध एजेंसियों, प्रिंटिंग प्रेस, लाउडस्पीकर सेवाओं, चुनाव के लिए लोगों का इंतजाम करने वालों, वाहन, कुर्सी, टेंट और ज्योतिषियों सहित भारतीय अर्थव्यवस्था के तमाम अन्य वर्गों के लिए भी यह बड़ा झटका होगा। चुनाव अर्थव्यवस्था का अनुमानित वार्षिक आकार तकरीबन 20,000 करोड़ रुपये लगाया गया है। हालांकि अर्थव्यवस्था के अपने संरचनागत समायोजन होते हैं और इसका आकार किसी भी सूरत में राज्य या राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं करेगा।
संभवत: कुछ और नुकसान और चुनौतियां भी हों, जिन पर मेरी दृष्टि न गई हो। फिर भी इस पर चर्चा शुरू करना बहुत उपयोगी होगा, जिसमें मीडिया, नीति निर्माताओं, समाज विज्ञानियों, नेताओं और अर्थशास्त्रियों को मंथन करना चाहिए। यहां तक कि अगर राष्ट्रीय बहस का निष्कर्ष यही निकलता है कि इसे अमल में लाने से बहुत फायदा नहीं है, फिर भी यह कुछ ऐसे विचारों को जन्म दे सकता है, जो सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सुधार के लिए कुछ मंत्र दे सकते हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था भी लाभान्वित हो।
[ लेखक जीएन वाजपेयी, सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं ]