राजीव मिश्र

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू हुए तीन महीने से ज्यादा हो चुके हैं और राजस्व प्राप्ति तय सीमा के आस-पास ही हो रही है, ऐसे में ‘रेवेन्यू न्यूट्रल प्लस’ पर पहुंच जाने की स्थिति आने से पहले ही यानी तय सीमा से अधिक राजस्व के आने की स्थिति से पहले ही कुछ वस्तुओं की टैक्स दरें कम करने का स्वागत किया जाना चाहिए। लोगों को विकास की मांग करने का अधिकार है, लेकिन साथ ही उनकी यह भी जिम्मेदारी बनती है कि वे विकास के लिए जरूरी टैक्स का भुगतान करें। प्रत्यक्ष कर का भुगतान समाज के प्रभावी वर्ग द्वारा किया जाता है, पर इसके साथ-साथ क्या अप्रत्यक्ष कर का बोझ समाज के सभी वर्गों पर नहीं पड़ता है? ऐसे में राजकोषीय नीति के तहत ऐसी वस्तुएं, जिनका उपभोग आम लोगों द्वारा किया जाता है अगर उन पर अन्य वस्तुओं की तुलना में कर की दर न्यूनतम की जाती है तो यह स्वागत के योग्य तो है ही। जीएसटी परिषद की बैठक के बाद राहत देने के मामले में अभी भी कुछ चूक रह गई लगती है। देश में रोजगार पैदा करने के मामले में बेहद अहम सूक्ष्म, लघु एवं मझौले उद्यम को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था और इनमें से ज्यादातर को जीएसटी के मानदंड का पालन करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था। जीएसटी नियमों के अनुपालन की मुश्किल कई चीजों से जुड़ी हुई थी। मसलन-अपंजीकृत विक्रेताओं और आपूर्तिकर्ताओं को ‘न्यू रिवर्स चार्ज’ जैसे विषयों को अपनाने तथा कुछ अन्य क्षेत्रों के लिए बनाए गए नए नियमों पर समझ और स्पष्टता की कमी थी। ऐसे मामलों में कुछ राहत तो अवश्य मिली है, लेकिन अभी भी कई ऐसे मामले हैं जहां गंभीरता से छानबीन करने की आवश्यकता है और उसमें सबसे महत्वपूर्ण लघु व सूक्ष्म उद्योगों का है।


जीएसटी के लागू होने के पहले इन छोटे उद्योगों को कच्चा माल खरीदते वक्त एक्साइज ड्यूटी नहीं भरनी पड़ती थी, पर जीएसटी के बाद ये इस छूट से बाहर हो गए और कच्चा माल जीएसटी लगने के बाद महंगा हो गया। नतीजतन उत्पादन लागत में बढ़ोतरी हुई और तैयार माल महंगा हो गया। बड़े कॉरपोरेट और छोटे उद्योग के बीच उत्पादन लागत में अंतर होने की वजह छोटे उद्योग पर कच्चा माल खरीदते वक्त एक्साइज ड्यूटी का नहीं लगना था और इस कारण ही ये उद्योग बचे हुए थे। बड़े कॉरपोरेट की नजर इस मामले पर काफी समय से थी। जीएसटी में दोनों की लागत बराबर हो गई, कीमतों का अंतर भी कम हो गया और इसका लघु उद्योगों पर नकारात्मक असर दिखने लगा। उम्मीद थी कि जीएसटी परिषद की इस बैठक में इस विषय पर गहराई से चर्चा होगी, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
छोटे उद्योगों के कमजोर होने का सीधा असर कामगारों पर पड़ता है और बेरोजगारी बढ़ती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खेती के बाद सबसे ज्यादा रोजगार इन छोटे उद्योगों द्वारा ही पैदा किए जाते हैं। एक दूसरा सकारात्मक पहलू यह भी है कि जीएसटी से सूक्ष्म और लघु उद्योग को संगठित क्षेत्र में आने का मौका मिला है और संगठित क्षेत्र का दायरा बढ़ा है। औपचारिक तौर पर काम करने वाले छोटे उद्योगों को बैंकों से कर्ज मिलने में कोई दिक्कत नहीं हो रही है। बैंक कर्ज देने के लिए तैयार हैं। ध्यान रहे कि आज जो बड़े उद्योग हैं वे कभी छोटे या मंझोले उद्योग ही थे। उन्होंने संगठित उद्योगों की श्रेणी में रहते हुए अपना पूरा कारोबार औपचारिक व्यवस्था के तहत किया और इसलिए उन्हें आगे बढ़ने का भी मौका मिला।
जीएसटी में अभी किए गए बदलाव तो अच्छे हैं, क्योंकि छोटे विक्रेता और आपूर्तिकर्ता पहले काफी परेशान थे। उन्हें यह नहीं पता था कि ‘न्यू रिवर्स चार्ज’ से कैसे निपटना है। यह इनके लिए एक अतिरिक्त ‘ट्रांजेक्शन’ है। उन्हें लगता है कि अगर इस रकम को बाद में वापस भी कर दिया जाए तो भी वे इसका हिस्सा बनने का सिरदर्द क्यों पालें? भारत में करीब 45 लाख सूक्ष्म, लघु एवं मझौले उद्यम हैं और इनमे से लगभग एक-तिहाई ने इन्ही कारणों से जीएसटी के लिए अब तक पंजीकरण नहीं करवाया है। समस्या सिर्फ जीएसटी की दरों से ही नहीं, बल्कि इसका लेखा-जोखा रखने से भी थी। खासतौर पर सालभर में लगभग 37 रिटर्न दाखिल करने के मामले में छोटा व्यापारी अपने आप को उलझा हुआ महसूस कर रहा था। अब सरकार ने इसे आसान और सहूलियत भरा बना दिया है और अब तीन महीने में रिटर्न दाखिल करने की बात हुई है और अब शायद छोटे-से-छोटा दुकानदार भी इसे अपने स्तर पर आसानी से पूरा कर सकेगा। दूसरी तरफ पुराने स्टॉक के मामले में जीएसटी लागू करने की समय सीमा को दिसंबर तक बढ़ाने के निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन क्या आम लोगों द्वारा प्रयोग में लाने वाली वस्तुओं पर फिर से एक और नजर डालने की आवश्यकता नहीं है? मसलन टू व्हीलर पार्ट्स पर 12.5 फीसद टैक्स को बढ़ाकर 28 प्रतिशत वाले स्लैब में डाल देने का क्या औचित्य? क्या इससे आम आदमी पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ा है? ऐसे ही पहले ज्यादातर दवाइयों पर पांच फीसद का वैट लगता था, लेकिन जीएसटी के अंदर इसे 12 फीसद वाले स्लैब में डाल दिया गया। ऐसे कई उदहारण दिए जा सकते हैं जिस पर फिर से सोचने की दरकार है।
परेशानी एक और है। कई बड़ी कंपनियों ने अपने पूंजीगत व्यय को रोक दिया है, क्योकि बाजार में भेजे गए पहले की तैयार वस्तुओं का भुगतान विभिन्न स्तरों पर रुक रहा है या अवरुद्ध हो रहा है। इस वजह से निर्माताओं को इनपुट टैक्स क्रेडिट प्राप्त करने में परेशानी हो रही है। दूसरे और तीसरे स्तर के विक्रेताओं के लिए तो समस्या कहीं अधिक गंभीर है। एक ओर बड़े कॉरपोरेट खरीदारों या मूल उपकरण निर्माताओं ने कर दायित्वों और आपूर्ति वस्तुओं और सेवाओं के लिए टैक्स सेट ऑफ के मामले में अनिश्चितता के कारण भुगतान रोक दिए हैं तो दूसरी ओर उपभोक्ता वस्तुओं की मांगों में कमी आई है।
इस तरह की समस्या आएगी। यह संभावित थी और इसलिए अरुण जेटली का और सजग रहना वक्त की मांग है। जीएसटी परिषद की बैठक में ऐसी कई बाते थीं जिन पर चर्चा नहीं हुई। ऐसी आशा की जानी चाहिए कि सरकार इन त्रुटियों पर जल्द विचार करेगी और भारतीय अर्थव्यवस्था में आ रही तात्कालिक परेशानियों को दूर करने में कोई कोर-कसर नहीं रखेंगी।
[ लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ]