पिछले बजट में कृषि को अनुदान दोगुना किया गया था। उस बजट को किसान का बजट कहकर चौतरफा सराहना हुई थी। तब सरकार ने 2020 तक किसान की आय को दोगुना करने का वायदा किया था। तबसे सिंचाई, ई-मार्केट, ऋण तथा बीमा की योजनाएं लागू की गई हैं, लेकिन किसान की आय में तनिक भी वृद्धि नहीं
दिखाई देती है। अब सरकार ने किसान की आय को 2022 तक दोगुना करने का वादा किया है। उम्मीद है कि आगामी बजट में कृषि के क्षेत्र को अनुदान में पुन: वृद्धि की जाएगी, परंतु इसके सफल होने की संभावना में संदेह है, जैसा कि पिछले बजट में हुआ है। किसान की मूल समस्या कृषि उत्पादों के दाम की है, जिस पर सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है। दाम में वृद्धि के अभाव में सिंचाई आदि में निवेश किसान के लिए अभिशाप बन गए हैं। यह कटु सत्य एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। ब्रिटिश हुकूमत ने देश में सिंचाई योजनाओं और रेल लाइनों का जाल बिछाया था, परंतु देश की अर्थव्यवस्था का पतन ही होता गया। मुगलकाल में विश्व आय में भारत का हिस्सा 23 प्रतिशत था। 1947 में यह घटकर एक प्रतिशत रह गया। सिंचाई योजनाओं से हमारा कृषि उत्पादन बढ़ा, किंतु दाम न्यून रहने के कारण हमारा किसान पिटता गया। रेल लाइन से देश की संपत्ति को इंग्लैंड ले जाया गया और भारत गरीब होता गया।
पिछले बजट के बाद कृषि में किए गए निवेश का यही हाल रहा है। सरकार ने निवेश किया, किसान ने उत्पादन बढ़ाया, लेकिन दाम निरंतर गिरते गए और किसान मरता गया। सिंचाई में निवेश के साथ-साथ उचित दाम के प्रति उदासीनता से बजट का प्रभाव उल्टा हो गया। किसान की आय बढ़ाने के लिए कृषि उत्पादों के दाम में वृद्धि हासिल करनी होगी। इसमें शहरी उपभोक्ताओं का हित आड़े आता है। गेहूं और अरहर के दाम बढ़ने दिए जाएं तो किसान की आय बढ़ेगी, लेकिन शहरी उपभोक्ताओं को कठिनाई होगी। इसका हल निकालने के लिए सरकार ने आयातों का सहारा लिया है जैसे वर्तमान में पीली मटर का आयात किया जा रहा है। इन आयातों के माध्यम से देश के किसानों को ऊंचे दाम मिलने से वंचित किया जा रहा है। सरकार की पॉलिसी किसान के हितों के विपरीत है। घरेलू दाम ऊंचे हों तो आयात करके सरकार किसानों को मारती है और घरेलू बाजार में दाम नीचे हों तो निर्यातों पर प्रतिबंध लगाकर सरकार किसानों को मारती है। सरकार को चाहिए कि किसानों को वैश्विक मूल्यों का दोनों तरफ सामना करने के लिए छोड़े। विश्व बाजार में दाम नीचे हों तो आयात अवश्य होने दें, परंतु तब विश्व बाजार में दाम ऊंचे हों तो किसान को निर्यात करने की छूट भी मिलनी चाहिए। ऐसा करने से किसान को कुछ राहत अवश्य मिलेगी, लेकिन ध्यान रहे कि यह भी दीर्घकालीन हल नहीं है। चूंकि विश्व बाजार में कृषि उत्पादों के दाम निरंतर गिर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन के अनुसार 2011 से 2016 के बीच कृषि मूल्यों का वैश्विक सूचकांक 229 से घटकर 161 रह गया है। अत: विश्व बाजार से जुड़ने से हमारे किसान को राहत नहीं मिलेगी, क्योंकि विश्व बाजार ही लगातार टूट रहा है। केवल विश्व बाजार में दाम ऊंचे हों तो किसान को निर्यात से कुछ आय होगी।
ऐसे में हमारे समर्थन मूल्य की नीति ही कारगर सिद्ध हुई है। घरेलू दाम में वृद्धि करके हमने घरेलू उत्पादन को बढ़ाया है और किसान को कुछ राहत दी है, परंतु इस नीति से दूसरी समस्या उत्पन्न हो गई है। समर्थन मूल्य में वृद्धि से उत्पादन बढ़ता है, फूड कॉर्पोरेशन को अधिक मात्रा में खरीद करनी पड़ती है और स्टॉक बढ़ता जाता है, जैसा कि कुछ वर्ष पूर्व गेहूं का हुआ था। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से यह पूछा था कि गेहूं को सड़ने देने के स्थान पर इसको जनता को क्यों न बांट दिया जाए। इसलिए कृत्रिम रूप से कृषि उत्पादों के दामों को ज्यादा समय तक बढ़ाकर नहीं रखा जा सकता है। अंतत: कृषि उत्पादों के दाम गिरते जाते हैं। किसानों की परिस्थिति दुरूह बनी रहती है।
सरकार को सिंचाई, ई-मार्केट, ऋण तथा बीमा की योजनाओं के साथ-साथ मूल्यों में वृद्धि, उत्पादन में वृद्धि तथा बढ़ी हुई उपज के निस्तारण की व्यवस्था करनी होगी। यहां डब्ल्यूटीओ आड़े आता है। डब्ल्यूटीओ में व्यवस्था है कि निर्यात पर सब्सिडी नहीं दी जाएगी। फलस्वरूप बढ़े हुए उत्पाद को सब्सिडी देकर निर्यात करना संभव नहीं है। उत्पादन बढ़ता है, स्टॉक बढ़ता जाता है और दाम गिराने ही पड़ते हैं।
इस समस्या के निदान को अमेरिका से सबक लेना चाहिए। डब्ल्यूटीओ में कुछ तरह की सब्सिडी देने की छूट है, जैसे किसान को जमीन परती छोड़ने के लिए सब्सिडी दी जाए तो डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन नहीं
होता है। हमें भी किसान को इस प्रकार की सब्सिडी देकर राहत पहुंचानी होगी। इस फॉर्मूले को लागू करने के लिए बजट में भारी प्रावधान करना होगा। वर्तमान में देश के सामने रक्षा और आतंकवाद की विशेष चुनौती है। तथापि हमें इस दिशा में बढ़ना ही चाहिए, चाहे वर्तमान में कदम छोटे ही लिए जाएं। यह किसान की समस्या का स्थाई समाधान है। इन आयामों को देखते हुए हमें सिंचाई आदि केविस्तार से किसान की आय को दोगुना करने का ख्वाब छोड़ देना चाहिए। वास्तविकता यह है कि सिंचाई में निवेश से किसान का घाटा बढ़ जाता है, क्योंकि दाम घट जाते हैं और सिंचाई में लगी लागत भी वसूल नहीं होती है। दाम बढ़ाए जाएं तो उत्पादन बढ़ता है और उसका निर्यात करने में डब्ल्यूटीओ आड़े आता है। निर्यात न कर पाने के कारण स्टॉक बढ़ता है और दाम गिरते हैं। हमें यह सत्य स्वीकार करना चाहिए कि किसान की आय में गिरावट जारी रहेगी। किसान के बच्चे शहर को पलायन करेंगे। गांव वीरान होते जाएंगे। विकसित देशों में मात्र एक प्रतिशत आबादी कृषि से जीवनयापन करती है। उस दिशा में हमें बढ़ना ही पड़ेगा।
किसान की आय बढ़ाने का दूसरा तरीका थोड़ा कठिन है। आज नीदरलैंड से पूरी दुनिया को ट्यूलिप के फूलों का निर्यात किया जाता है। इससे वहां के किसानों को इतनी आय होती है कि वे अपने मजदूरों को 7,000 रुपये की दिहाड़ी देते हैं। हमारे किसान अति बुद्धिमान हैं। उन्हें उन्नत दाम के कृषि उत्पादों की तरफ ले जाना चाहिए जैसे ऑर्गेनिक शहद, गुलाब, ट्यूलिप व ग्लाइडोलस के फूल, विशेष आकार के तरबूज आदि। इस दिशा परिवर्तन को कुछ सुझाव इस प्रकार हैं। कृषि मंत्रालय की कृषि अनुसंधान की तमाम इकाइयों को आदेश देना चाहिए कि उन्नत मूल्यों के कृषि उत्पादों पर रिसर्च करें। दूसरे, हमारे किसानों को विदेशी किसानों के साथ रखना चाहिए ताकि वे उनकी कार्य प्रणाली को सीख सकें। पुष्कर के गुलाब उत्पादकों के साथ हमारे विधायकों एवं आइएएस अधिकारियों को टे्रनिंग के लिए नीदरलैंड भेजना चाहिए। तीसरे, उन्नत कृषि उत्पाद निर्यात कॉर्पोरेशन नाम की सार्वजनिक इकाई स्थापित करनी चाहिए। चौथे, उन्नत मूल्यों के कृषि उत्पादों की बीमा की योजना बनानी चाहिए। बहरहाल इतना स्पष्ट है कि सिंचाई, मृदा हेल्थ कार्ड, बीमा और सस्ते ऋण से हमारे किसानों का कल्याण नहीं होने वाला है जैसा कि 2016-17 के बजट का हश्र बताता है।
[ लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलुरु में प्रोफेसर रह चुके हैं ]