आरपी सिंह

पाकिस्तानी सेना द्वारा संघर्षविराम का उल्लंघन कर दो भारतीय जवानों के शव क्षत-विक्षत करने की कायराना हरकत ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। इसी दिन बैंक की कैश वैन लूटने के दौरान पांच पुलिस कर्मी और दो अन्य सुरक्षा कर्मी मारे गए। इससे पहले 27 अप्रैल की सुबह पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकी दस्ते ने कुपवाड़ा में भारतीय सेना के शिविर पर हमले को अंजाम दिया। इस हमले का मकसद भारत को यही संदेश देना था कि आतंकी सेना का मनोबल तोड़ने के लिए उसे कहीं भी निशाना बना सकते हैं। सीमा पर और सीमा के अंदर की इन घटनाओं को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। घाटी के हालात दिनों दिन और बिगड़ते जा रहे हैं। अब यह मामला राजनीतिक या आतंक तक सीमित नहीं रह गया है। कट्टरपंथियों ने इसे धार्मिक रंग दे दिया है। अलगाववादियों को भीड़ पर गजब का नियंत्रण हासिल हो गया है और वे मनमाफिक गतिविधियां चला रहे हैं। युवाओं और यहां तक कि महिलाओं और बच्चों की ओर से की जाने वाली पत्थरबाजी की तस्वीरें विचलित करने वाली हैं। लगता है कि घाटी में सेना के लिए कोई सम्मान नहीं रह गया है। सोशल मीडिया के चलते समूची नियंत्रण रेखा से सटे इलाकों में बेहद कम समय में भीड़ जुटाना बेहद आसान हो गया है जो पत्थरबाजी और घेराव के जरिये सुरक्षा बलों के काम में खलल डालती है। ऐसे हालात सुरक्षा बलों के हौसले, मनोबल और लड़ने की इच्छाशक्ति को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कश्मीर में बिगड़ते हालात के लिए अतीत की केंद्र एवं राज्य सरकारें जिम्मेदार रही हैं। 2010 के उत्पात के बाद उमर अब्दुल्ला सरकार ने सुरक्षा बलों के सम्मान के साथ समझौता करते हुए सैन्य बलों की विशेष शक्तियों में कटौती का आधार तैयार किया।
अपने चुनाव अभियान में पीडीपी ने अफस्पा हटाने और सुरक्षा बलों की कथित अत्यधिक तैनाती के मुद्दे को जोरशोर से उठाया। सत्ता में आने के बाद उसने आतंकियों को लेकर नरम रवैया ही अपनाया, क्योंकि उसके कुछ कार्यकर्ता आतंकियों के हमदर्द हैं। ऐसे हालात के बाद भी सुरक्षा बलों को यही सिखाया जाता है कि वे उकसावे की स्थिति में पलटवार न कर धैर्य का ही परिचय दें। शुरुआती दौर में सीआरपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिसकर्मियों पर ही गालियों की बौछार हुआ करती थी। उन्हें छेड़ने के लिए बच्चों को भी प्रोत्साहित किया जाता था। जहां अद्र्धसैनिक बलों और पुलिस की सक्रियता घटी है वहीं आतंकियों के हमदर्दों की आक्रामकता बढ़ी है। जब उन्होंने पत्थरबाजी शुरू की तो सुरक्षा बलों ने ताकत का इस्तेमाल करने में हिचक ही दिखाई। धीरे-धीरे पत्थरबाजों की बढ़ती भीड़ की हिम्मत इतनी बढ़ गई कि वे आतंकियों के खिलाफ सुरक्षा बलों के अभियान में बाधा डालने लगे। सुरक्षा बलों के लिए आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति बन गई है। अगर वे उकसावे पर प्रतिक्रिया दें तो कानूनी कार्रवाई का डर और ऐसा न करें तो उत्पीड़न और अपमान से सामना। सुरक्षा बलों को अतीत में कभी ऐसी उलझन से दो-चार नहीं होना पड़ा। केंद्र सरकार भी ऐसी गड़बड़ी को दुरुस्त करने में नाकाम ही रही है। इससे पहले कि कश्मीर में स्थिति पूरी तरह नियंत्रण से बाहर निकल जाए, सरकार को कुछ सख्त कदम उठाकर बढ़ते खतरे का फन कुचल देना चाहिए। इस समस्या के दो पहलू हैं। एक आंतरिक और दूसरा बाहरी। यहां दोनों मोर्चों पर एक साथ निपटना होगा।
पाकिस्तान अमेरिकी चेतावनी की अनदेखी कर रहा है, क्योंकि उसकी पीठ पर चीन का हाथ है। असल में पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगित-बाल्टिस्तान यानी जीबी में चीन के हित जुड़े हैं। चीन अपने शिनजियांग प्रांत के कशगर शहर को पाकिस्तान में बलूचिस्तान प्रांत के ग्वादर बंदरगाह को रेल एवं सड़क मार्ग से जोड़ना चाहता है। यह परियोजना चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी का अहम हिस्सा है। अपनी ‘वन बेल्ट वन रोड’ की महत्वाकांक्षी परियोजना को सिरे चढ़ाने के लिए चीन भारत को इस परियोजना से जोड़ने के लिए लुभाने की कोशिश में लगा हुआ है। इसे चीन अपनी आर्थिक वृद्धि को सतत बनाए रखने के लिए बेहद अहम मानता है। चीन की दलील है कि भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव की वजह से इस क्षेत्र की आर्थिक प्रगति नहीं रोकी जा सकती। जीबी में चीन की मौजूदगी से पाकिस्तानी सेना का हौसला बढ़ा है, लिहाजा उसने फिदाईन हमलों और आंतरिक असंतोष को बढ़ावा देकर कश्मीर में अस्थिरता बढ़ाने पर जोर देना शुरू किया है। इन दोनों पहलुओं को निष्प्रभावी करने के लिए भारत को निश्चित तौर पर कारगर रणनीति तैयार करनी चाहिए। बलूचिस्तान, गुलाम कश्मीर और जीबी में अलगाववाद की आग को भड़काने के लिए एक चिंगारी सुलगाने की देर है। ऐसा करते ही पाकिस्तान कश्मीर से अपने कदम पीछे खींचने पर मजबूर हो जाएगा। सिंध और खैबर-पख्तूनवा में भी एक वर्ग के बीच असंतोष बढ़ रहा है। बलूचिस्तान मामले में भी अपेक्षित नतीजों के लिए कुशल रणनीति से काम करना होगा। गुलाम कश्मीर में पाकिस्तानी अत्याचारों से पीड़ित लोगों की मदद के लिए स्पष्ट नीति की दरकार है। जब तक भारत पाकिस्तान के इन इलाकों में कुछ प्रभावी कदम नहीं उठाएगा तब तक पाकिस्तान कश्मीर और भारत के दूसरे इलाकों में अपनी नापाक हरकतों से बाज नहीं आएगा।
केंद्र सरकार को कश्मीर में भी कुछ सख्त कदम उठाने होंगे। पीडीपी सरकार दोनों खेमों की नाव पर पैर रखे हुए है। आतंकियों को लेकर अपने नरम रवैये के चलते मुख्यमंत्री ने कश्मीर में हालात को संभालने में कुशलता नहीं दिखाई। राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया जाना चाहिए और मौजूदा राज्यपाल की विदाई कर उनकी जगह पर सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन जैसे किसी सक्षम व्यक्ति को यह दायित्व सौंपा जाना चाहिए। आतंकियों से निपटने में महारत रखने वाले किसी सेवारत या सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी को राज्यपाल का सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया जाना चाहिए। उसे ही पुलिस-सेना की संयुक्त कमान की बागडोर सौंपी जाए। सभी अभियानों का जिम्मा सेना को ही दी जाए और अद्र्धसैनिक बलों की कमान भी सेना को मिले।
कश्मीर घाटी में अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले प्रचार तंत्र और एनजीओ की भी लगाम कसी जाए। सुरक्षा बलों को पत्थरबाजी जैसी किसी भी हरकत पर ‘न्यूनतम बल प्रयोग’ की नीति को ध्यान में रखते हुए उचित कदम उठाने का निर्देश दिया जाना चाहिए। हुर्रियत जैसे धड़ों को अप्रासंगिक बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर नए नेतृत्व को भी उभारना होगा।
सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, आदि का भरोसा जीतने के लिए उन्हें और उनके करीबियों को नौकरियों और अन्य प्रोत्साहन की पेशकश की जानी चाहिए। खुफिया माध्यमों के जरिये इन अभियानों को अंजाम दिया जाए। हमें भारत के लिए फिर से समर्थन जुटाने की दरकार है जो वहां लगभग पूरी तरह खत्म हो चुका है। खुफिया एजेंसियों को सक्रियता बढ़ाकर युवाओं को गुमराह कर पत्थरबाज बनाने वाले सरगनाओं की धरपकड़ करनी होगी। ‘सख्त, निष्पक्ष और मैत्रीपूर्ण’ नीति का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। हुर्रियत नेताओं को मिली सभी सरकारी सुविधाएं वापस ली जानी चाहिए। जटिल हालात में साहसिक फैसलों की जरूरत होती है। समय आ गया है कि पीएम हालात को सुधारने के लिए कड़े और साहसिक फैसले लें।
[ लेखक भारतीय सेना में ब्रिगेडियर रहे हैं ]