रुचि का अर्थ है-स्वभाव या आदत। यह व्यक्ति के जन्म लेते ही इसके साथ आती है और जीवन भर इसके साथ रहती है। इसे बदल पाना संभव नहीं होता है। जब रुचि को स्वभाव कहा गया तो यह कह दिया गया कि यह अपरिवर्तनीय है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि जिसका जन्म हुआ है उसका मरण अवश्य होगा। इसी तरह से जिसका मरण होता है उसका जन्म भी अवश्य होता है। इसलिए व्यक्तिका जो स्वभाव होता है वह उसके पिछले जन्म के संस्कारों के साथ जुड़ा होता है और यह स्वभाव सभी का अपना अलग-अलग होता है। यह स्वभाव जब कुत्सित विचारों से प्रभावित होता है, तब चाहे कोई बालक हो, युवक हो, प्रौढ़ हो अथवा वृद्ध हो ऐसा व्यवहार करने लगता है जो न उसके स्वयं के लिए कल्याणकारी होता है और न उसके परिवार और समाज के लिए ही कल्याणकर होता है। ऐसा बालक उद्दंड, क्रोधी और सभी की उपेक्षा करने वाला होता है और वह किसी की भी उपेक्षा करने में संकोच नहीं करता। फिर चाहे उसके माता-पिता ही क्यों न हों। यही उसकी कुरुचि होती है।
इसी तरह से जो कुरुचि वृत्ति वाला युवक होता है वह शिक्षा-प्राप्ति के प्रति नितांत रूप से लापरवाह होता और उसके मन में किसी के प्रति भी आदरभाव नहीं होता। फिर चाहे उसे शिक्षा देने वाले उसके गुरुजन ही क्यों न हों। यही नहीं ऐसे स्वभाव वाला युवक अपने सहपाठियों के प्रति निर्मम और युवतियों का अपमान करने में गौरव का अनुभव करने वाला होता है। जब कोई कुरुचिपूर्ण विचारों वाला होता है तो वह अपने धन, विद्या, व्यवसाय आदि को लेकर इतना अहंकारी होता है कि वह किसी को भी अपने बराबर नहीं समझता। सभी को अपने से छोटा मान कर सभी के साथ तिरस्कार भरा व्यवहार करता है। अपने परिवारजनों के प्रति उसके मन में अपनत्व का भाव नहीं होता। पड़ोसियों के सुख-दुख में कभी सम्मिलित नहीं होता और सबसे स्वयं को अधिक बुद्धिमान मानकर ऐंठा-ऐंठा सा बना रहता है। कभी-कभी तो सुबुद्ध कहे जाने वाले और कथित शिक्षित भी अपने ज्ञान का घमंड लेकर दूसरों से तर्क-कुतर्क करता है और दूसरे को नीचा दिखाकर गौरवान्वित होता है। वह यह भूल जाता है कि दूसरे का अपमान करने वाला स्वयं ही समाज की नजरों में गिर जाता है। इसलिए कुरुचिपूर्ण स्वभाव से बचें। ऐसे व्यवहार से व्यक्ति अंत में पतन की ओर ही उन्मुख होता है।
[ डॉ. गदाधर त्रिपाठी ]