महात्मा गांधी और रवींद्र नाथ टैगोर के बीच एक संवाद हुआ था। दीनबंधु सी एफ एंड्रूज उस संवाद के साक्षी थे। गांधी को पहली बार महात्मा कहने वाले टैगोर संग गांधी के बीच बातचीत का वह दौर मुख्य रूप से दो मुद्दों पर आधारित था। उसमें पहला मसला मूर्ति पूजा से जुड़ा था तो दूसरे मुद्दे का संबंध राष्ट्रवाद से था। दोनों ही मुद्दों पर इन महान विभूतियों के विचार खासे भिन्न थे। गांधी की सोच थी कि जब तक भारतीय समाज तार्किक रूप से और सोच के स्तर पर परिपक्व नहीं हो जाता तब तक मूर्ति पूजा की परंपरा यथावत जारी रहनी चाहिए। वहीं टैगोर का मानना था कि इस समाज को शाश्वत रूप से अबोध मानना गलत है लिहाजा मूर्ति पूजा खत्म होनी चाहिए। इसी तरह राष्ट्रवाद पर गांधी की राय थी कि विश्ववाद के लिए राष्ट्रवाद प्रथम सोपान है बिलकुल उसी तरह जैसे युद्ध के बिना हम शांति की महत्ता नहीं समझ पाते। हालांकि यह बात अलग है कि गांधी का राष्ट्रवाद यूरोपीय राष्ट्रवाद की अवधारणा के एकदम उलट था। बहरहाल इस घटना का जिक्र रोम्या रोलां की किताब ‘रोम्या रोलां और गांधी पत्राचार’ में विस्तार से किया गया है। शायद हम मौजूदा दौर में राष्ट्रवाद के अलंबरदारों को गलत तो मान रहे हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि चेतना के कई स्तर होते हैं और प्रत्येक स्तर पर सोच की गुणवत्ता भी बदलती रहती है। जो हाथ झारखंड और छत्तीसगढ़ में आए दिन मानसिक बीमारी से पीड़ित औरतों को डायन बताकर पत्थरों से मार देते हैं उन लोगों से ‘भारत माता की जय’ का जयकारा तो बुलवाया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि जय-जयकार के लिए हाथ उठाने वाले उस शख्स में वास्तविक राष्ट्र चेतना का बोध भी हो। असल में गांधी या पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने जिस राष्ट्रभावना को लेकर टैगोर से मत-वैभिन्य प्रकट किया था वह गिरिराज सिंह और साध्वी निरंजन ज्योति वाली राष्ट्रभावना से कोसों दूर है।
गांधी की इसी परिकल्पना को आगे बढ़ाते हुए दीनदयाल ने भारतीय जनसंघ के प्रथम कानपुर अधिवेशन में अपने बीज वक्तव्य में कहा था, ‘हिंदू समाज का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है कि भारतीय जनजीवन और अपने उन अंगों के भारतीयकरण का महान कार्य अपने हाथ में ले जो विदेशियों द्वारा विदेशाभिमुख बना दिए गए हैं। हिंदू समाज को चाहिए कि उन्हें स्नेहपूर्वक आत्मसात करे। केवल इसी प्रकार सांप्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र का एकीकरण और दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है।’ दीनदयाल के 23 अप्रैल, 1965 को जनसंघ कार्यकर्ताओं को दिए गए अपने उद्बोधन (एकात्म मानववाद दर्शन के चार बीज वक्तव्यों में से दूसरा) में कहा था, ‘विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में प्रकटीकरण ही भारतीय संस्कृति का केंद्रीय विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का या संस्कृति का द्योतक नहीं, बल्कि विकृति का द्योतक है.... देखने को तो जीवन में भाई-भाई में प्रेम और बैर दोनों हीं मिलते हैं, किंतु हम प्रेम को अच्छा मानते हैं। बंधु-भाव का विस्तार हमारा लक्ष्य रहता है। बैर को मानव व्यवहार का आधार बना कर यदि इतिहास का विश्लेषण किया जाए और फिर उसमें एक आदर्श जीवन का स्वप्न देखा जाए यह आश्चर्य की ही बात होगी।’
वर्तमान चिंतकों का एक बड़ा वर्ग खासकर वामपंथी चिंतक आज राष्ट्रवाद को गलत मानते हैं और उसे दक्षिणपंथी दुराग्रही सोच की परिणति मानकर उसका पुरजोर विरोध भी करते हैं। शायद इसमें उनकी गलती कम और उस वर्ग की ज्यादा है जो राष्ट्रवाद को सरस्वती वंदना या गोहत्या के विरोध तक सीमित करना चाहता है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किसी नीति को गलत कहने वाले पर या भारत माता की जय का नारा लगाने से इन्कार करने वालों पर राष्ट्रविरोधी होने का मुलम्मा चढ़ा रहा है और उन्हें ‘पाकिस्तान’ जाने की सलाह दे रहा है। इस प्रसंग में प्रश्न यह है कि क्या यह जिम्मेदारी उन निरपेक्ष चिंतकों की नहीं है कि वे राष्ट्रवाद की अवधारणा को वामपंथी या दक्षिणपंथी सांचे से निकालकर सही परिप्रेक्ष्य में सामने रखें? वास्तव में राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा और मूल भारतीय राष्ट्रवाद में जमीन-आसमान का अंतर है। यूरोपीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति ही चेतना के क्रमिक आध्यात्मिक विकास से न होकर चर्च के तानाशाही रवैये के खिलाफ और औपनिवेशिक शक्तियों को उखाड़ फेंकने की प्रक्रिया के रूप में हुई थी। अमेरिकी क्रांति इसका उदार चेहरा थी, जबकि यूरोप के पुनर्जागरण और फ्रांसीसी क्रांति और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप जर्मन राष्ट्रवाद इस किस्म के राष्ट्रवाद का उद्गम स्रोत रहे। राष्ट्रवाद की यूरोपीय परिभाषा के अनुसार राष्ट्र ऐसे लोगों के समूह से बनता है जो समान भाषा, समान पंथ या समान इतिहास के हों और साथ ही उनमें एक गृहक्षेत्र और शासक के लिए समर्पण और एकता का भाव हो। इस आधार पर तो भारत कभी राष्ट्र की उस परिभाषा पर खरा ही नहीं उतर सकता, मगर भारत उस प्राचीन काल से ही राष्ट्र के रूप में अवस्थित है जब यूरोप में आदिम सभ्यता अपने चरम पर थी। प्लेटो या संत ऑगस्टाइन ने नारी मुक्ति या दास प्रथा खत्म करने के बारे में सोचा भी नहीं था, जबकि भारत में अशोक ने इसे राज्य की नीति का प्रमुख हिस्सा बनाया। भारत दुनिया से जो कुछ साझा करता है वह है दस हजार साल से ज्यादा की समान वेद-उदभूत सोच, जीवन पद्धति, समान जीवन दर्शन, दक्षिण के शंकराचार्य का पूरे भारतवर्ष के चारों कोनों में पीठ की सर्वमान्य संस्था।
गांधी की परिकल्पना का भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक उत्थान की सीढ़ी का पर्याय है और शायद टैगोर भी इस बात को समझ नहीं पाए। आध्यात्मिक उत्थान के बिना लाया जाने वाला यूरोपीय सोच वाला राष्ट्रवाद आखिरकार फासीवाद की ओर ही ले जाता है। गांधी और पंडित दीनदयाल दोनों ही इससे अलग नजरिये वाले राष्ट्रवाद की हिमायत करते थे जो व्यष्टि से समष्टि तक जाता है। इसके मुताबिक आत्म-उत्थान के विभिन्न चरणों में राष्ट्रवाद भी एक पड़ाव भर है जिसकी परिणति अंत में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के रूप में होती है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि आज हम वसुधैव कुटुंबकम की बात कम और उस सेक्युलरिज्म की ज्यादा करते हैं जो भारत से सर्वथा भिन्न परिस्थितियों में यूरोप में उपजी। यदि हमने वसुधैव कुटुंबकम या फिर सर्वधर्म समभाव को अच्छे से आत्मसात किया होता तो शायद आज भारत दुनिया को दिशा दिखा रहा होता और कौन सेक्युलर और कौन नहीं की बहस में नहीं उलझा होता। आज यह जिम्मेदारी उन निरपेक्ष बुद्धिजीवियों पर आ पड़ी है कि वे राष्ट्रवाद की गांधीवादी अवधारणा और पंडित दीनदयाल के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दोनों तरह के अतिवादियों से बचाएं। जितनी जरूरत गिरिराज सिंह सरीखे लोगों से बचने की है उतनी है खुद को जेएनयू ब्रांड सेक्युलर बुद्धिजीवी कहने वालों से भी। दोनों ही किसी न किसी स्तर पर भारतीय समाज को कमजोर कर रहे हैं। जबकि आज जरूरत इसकी है कि भारतीय समाज कैसे हर तरह से सशक्त हो।
[ लेखक एन के सिंह , राजनीतिक विश्लेषक एवं ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव हैं ]