मानव जीवन में तीन अपेक्षाएं हैं- आत्महित, परहित और राष्ट्रहित। भौतिकता की चकाचौंध में व्यक्ति स्वहित में ही लगा रहता है। स्वहित भी क्या? उसे स्वार्थ ही कहेंगे। स्वार्थ में भी इस सीमा तक चला जाता है कि दूसरे की हानि करने में भी उसे संकोच नहीं होता। अन्यथा आत्महित तो अपनी आत्मा के कल्याणार्थ किए जाने वाले कार्य हैं। यह तो जीवन साधना है जिसमें व्यक्ति एक उत्तरदायित्वपूर्ण कर्तव्यनिष्ठ जीवन जीता है। इसलिए आत्महित साधना जीवन का उत्कर्षमय पथ है। कर्मयोगी की भांति अपने कार्र्यों का श्रेष्ठतम ढंग से निष्पादन करते हुए व्यक्ति निरंतर अग्रसर रहता है। परहित से तात्पर्य परोपकार से है। समाज सेवा भी इसी का रूप है। जो विस्तृत समाज को आत्मरूप से देखते हैं अथवा समाज को परमात्मा का ही विस्तार मानते हैं, उनके लिए समाज सेवा जीवन का अनिवार्य अंग बन जाती है। वैसे भी परहित को महान धर्म कहा गया है। अपनी कोई हानि न हो, अन्य लोगों को भी हानि न हो, इस प्रकार की कल्याण कामना परहित ही है। दूसरों का कल्याण हो, हमारे कार्य उनके लिए शुभ हो, वही हितभाव है। इससे भी ऊपर उठकर राष्ट्रभाव है जिसमें राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है।
राष्ट्रहित के विचार के अभाव में ही उग्रवाद, आतंकवाद, अराजकता का विस्तार होता है। इसलिए अपेक्षित है कि देशहित का भाव स्वयं में और समाज में जाग्रत रहे। स्वदेश चिंतन महापुरुषों का लक्षण है। महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद और ऐसे ही अन्य महापुरुषों ने हमें राष्ट्र चिंतन के माध्यम से ही युगबोध कराया है। ‘राष्ट्र से बढ़कर न कोई’ ऐसा विचार ही राष्ट्र चिंतन का आधार है। यह विचार ही हमें क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठाकर समग्र विचार के विस्तृत आयाम देता है। हम राष्ट्र विकास में सहयोग बनते हैं। आज की परिस्थितियों में स्व की अपेक्षा समग्र चिंतन अधिक आवश्यक है। ‘देश विकसित हो’ यह धारणा अपेक्षित है। समाज और संस्कृति के उत्थान के कार्य भी इस धारणा में ही निहित हैं। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अवधारणा में राष्ट्र ही सर्वोपरि है। श्रेष्ठ जन ही उन्नत समाज का निर्माण करते हैं और उन्नत समाज ही विकसित राष्ट्र का स्वरूप है। राष्ट्र विकसित हो, इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भूमिका निर्धारित करना अपेक्षित है। हमारे कार्य स्वहित, समाजहित और राष्ट्रहित में हों, यही अपेक्षित है। राष्ट्रहित, राष्ट्रीय चिंतन और राष्ट्र विकास में हम अपनी भूमिका सुनिश्चित करें।
[ डॉ. विजय नारायण गुप्त ]