दरअसल परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अपने जीवन को सांसारिक बंधनों से अलग करना पड़ता है, ताकि हमारी आंखों और कानों में संसार प्रवेश न कर सके। मंदिरों में जोर-जोर से मंत्र पाठ किया जाता है। घंटा, झाल, मृदंग, शंख और नगाड़े जोर से बजाए जाते हैं। इसका गहरा अर्थ है। इसका अर्थ है कि जब मंदिर में मंत्र पाठ होता हो, तो मंदिर के बाहर जो शोर-शराबा हो रहा है, उनकी आवाज मंदिर तक न पहुंचे, अगर पहुंचे भी तो नगाड़े की आवाज के नीचे दब जाए। मंत्र पाठ में कोई विघ्न न पड़े इसलिए शंख, मृदंग आदि बजाया जाता है। जब आप मौन पाठ करते हैं, तो किसी के पैर की ध्वनि से भी आपका ध्यान भंग हो जाता है, लेकिन जब आप स्वयं जोर-जोर से मंत्र पाठ करते हैं, तो किसी के आने-जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जोर से बोलकर प्रभु का नाम लेते हैं, जिससे आपका ध्यान केवल ईश्वर पर लग सके। आप पर बाहर का कोई प्रभाव न पड़ सके। सच पूछा जाए, तो स्मरण का मतलब है प्रभु से एकाकार हो जाना। प्रभु के नाम का स्मरण करते समय हमारा मन विचलित न हो, कहीं भागे नहीं, इसीलिए राम नाम का जाप किया जाता है ताकि काम, क्रोध का कोई प्रभाव हम पर न पड़े। जब बाहर का प्रभाव हमारे मन पर नहींपड़ता है, तभी हमारा मन परमात्मा पर केंद्रित हो पाता है। मूल प्रश्न है कि अगर साधक का संयमपूर्वक परमात्मा पर ध्यान हो, तो किसी नाम के स्मरण का बहुत महत्व नहीं है। नाम स्मरण तो आपको प्रभु से जोड़ता है। प्रभु तक पहुंचाकर वह पीछे हट जाता है।
आप मूर्ति पूजा करते हैं। मूर्ति पत्थर की बनी है। यह जो मूर्ति खड़ी है, वहां जाते ही हम अपने बाहर के विकारों को छोड़कर मूर्ति पर ध्यान लगाते हैं और वह मूर्ति अमूर्त बनकर हमें परमात्मा की अनुभूति करा देती है। मूर्ति परमात्मा की अनुभूति कराने का साधन है। ऐसा इसलिए, क्योंकि परमात्मा तो अमूर्त है। उस अमूर्त परमात्मा तक जाने के पहले हमें खुद अमूर्त बन जाना पड़ता है। यहां सारे विकारों को छोड़ देना पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि आप तो स्थूल हैं, परमात्मा सूक्ष्म है। स्थूल का सूक्ष्म से मिलन कैसे हो सकता है? इसलिए अपनी सारी स्थूलता को छोड़ना होगा। नाम का स्मरण परमात्मा तक पहुंचाता है। नाम उंगली पकड़कर परमात्मा के दरवाजे तक पहुंचा देता है। अब आप परमात्मा की अनुभूति करें, लेकिन उसके पहले व्रत, कीर्तन, भजन जो नाम-स्मरण की प्रक्रिया हैं, करके पहले अपने विकारों को नष्ट करें। क्योंकि परमात्मा को निर्मलता पसंद है।
[ आचार्य सुदर्शन ]