सदाचार राष्ट्रीय अभिलाषा है, लेकिन भ्रष्टाचार हमारा यथार्थ। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र ' में लिखा, जैसे जीभ पर रखे शहद का स्वाद न लेना असंभव है वैसे ही सरकारी अधिकारी के लिए राजस्व का अंश न खाना भी असंभव है। उन्होंने 'अर्थशास्त्र ' में अनेक तरह के भ्रष्टाचार बताए हैं। अंग्रेजी राज का भ्रष्टाचार शीर्ष पर भी व्याप्त था। भारत के वायसराय (1945) लार्ड वेवेल ने बेटी विवाह के निमंत्रण पत्रों के साथ भेंट में ली जानी वाली महंगी वस्तुओं की सूची संलग्न की थी। स्वतंत्र भारत का राजनीतिक नेतृत्व शुरुआती चरण में ही भ्रष्टाचार के आरोपों में आ गया था। लोक शिकायतों के अंबार थे, गांव के सिपाही से लेकर मंत्रिपरिषद तक। विभागीय जांचें पहले से ही हैं, अब भी जारी हैं। भारतीय दंड संहिता (धारा 161) में भ्रष्टाचार की व्यापक परिभाषा है। कड़ी सजा भी है। के. संथानम की अध्यक्षता में 1964 में भ्रष्टाचार निवारण समिति बनी थी। 1958 से 62 के चार बरस में ही करोड़ों का भ्रष्टाचार पाया गया। भ्रष्टाचार निरोधक अनेक संस्थाएं हैं। विधि स्थापित सरकारें हैं। सामान्य प्रशासन के साथ सतर्कता आयोग और सीबीआइ हैं। न्यायपालिका है ही। 19 राज्यों में लोकायुक्त भी हैं, लेकिन कर्नाटक के लोकायुक्त के पुत्र और टीम पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। यूपी में 'सरकारी मन' का लोकायुक्त बनाने का विवाद है। पहरेदार भी विवादित हैं। प्रश्न है पहरेदारों पर कौन दे पहरा?

भारत में विधि अनुरूप शासन के लिए अनेक संस्थाएं हैं। भ्रष्टाचार रोकने पर सारी संस्थाएं असफल होती गईं। लोकव्यथा बढ़ती गई। उपलब्ध संस्थाओं और प्रक्रियाओं की असफलता के चलते ही स्कैंडेनियाई देशों में ओम्बड्समैन नामक संस्था का विकास हुआ था। इसे स्वीडन ने 1809 में और इसके बाद फिनलैंड, डेनमार्क और नार्वे ने भी अपनाया। न्यूजीलैंड ने 1962 में और ब्रिटेन ने 1966 में यह प्रणाली विकसित की। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में ओम्बड्समैन को नौकरशाही की शक्तियों के दुरुपयोग के संबंध में नागरिक शिकायतों को दूर करने वाला आयुक्त कहा गया है। ओम्बड्समैन का विचार भारत में भी चल निकला। प्रशासनिक सुधार आयोग ने लोक शिकायतों को दूर करने के लिए लोकपाल, लोकायुक्त की सिफारिश की। 1968 से लेकर 2013 तक संसद में 11 विधेयक आए। इसी संस्था के गठन की मांग को लेकर अन्ना हजारे का राष्ट्रव्यापी आंदोलन हम सबको याद है। अन्ना-केजरीवाल की जनलोकपाल धारणा को व्यापक राष्ट्रीय समर्थन मिला था। यही केजरीवाल अब भारी बहुमत से दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। वह लोकायुक्त बनाने से दूर हैं।

लोकपाल और लोकायुक्त आकर्षक संस्थाएं हैं। ब्रिटेन सहित तमाम देशों में सफल भी हैं। प्रशासनिक सुधार आयोग और अन्य संगठनों ने इसीलिए लोकपाल और लोकायुक्त की सिफारिश की थी। यों भ्रष्टाचार की जांच के लिए अनेक संस्थाएं पहले से ही थीं। एंटी करप्शन, सतर्कता आयोग, आयकर विभाग और सभी विभागों के अपने वरिष्ठ पदधारक। जब पहरेदार ही माल उड़ाने लगे तो एक और पहरेदार की बात सबको अच्छी लगी। सबसे पहले महाराष्ट्र ने लोकायुक्त अधिनियम बनाया। शक्ति और साधन में यह कमजोर था। कर्नाटक की लोकायुक्त संस्था सर्वाधिक शक्ति संपन्न है। कर्नाटक के लोकायुक्त वी. भास्कर राव के पुत्र अश्विनी राव और संयुक्त कमिश्नर सईद रियाज भ्रष्टाचार की जद में आए। आरोप हैं कि वे एक इंजीनियर से एक करोड़ मांग रहे थे। गिरफ्तारियां हुईं। विपक्षी भाजपा सहित अनेक दलों ने हंगामा किया। वे स्वयं पद छोडऩे को तैयार नहीं। सुस्थापित विधि के चलते लोकायुक्त का हटाना आसान नहीं होता। लोकायुक्त की बर्खास्तगी असाधारण कार्यवाही होती है। कर्नाटक विधानसभा ने लोकायुक्त हटाने संबंधी कानूनों में संशोधन विधेयक पारित किया। असाधारण नियुक्ति के लिए असाधारण विधायन की आवश्यकता हुई। भ्रष्टाचार रोकने के लिए संस्थाएं बनीं। हजारों कानूनों से प्रतिबद्ध इस देश में भ्रष्टाचार कण-कण व्यापी ब्रह्म हो गया। प्रशासनिक विलंब, भाई- भतीजावाद, अनियमितता और जन-उत्पीडऩ बढ़ते गए। संस्थाएं असफल होती रहीं। वे स्वयं भी कदाचार के घेरे में आईं। तब लोकपाल या लोकायुक्त को भ्रष्ट आचरण की राष्ट्रव्यापी समस्या का समाधान मान लिया गया। तमाम राज्यों में लोकायुक्त हैं। सबके अलग अधिकार हैं। सबकी अपनी कार्यशैली है, लेकिन सभी राज्यों के लिए एक समान लोकायुक्त कानून नहीं हैं। भ्रष्टाचार राष्ट्रीय समस्या है, लेकिन राज्य अपने मन का लोकायुक्त चाहते हैं। सरकारें शक्तिशाली लोकायुक्त नहीं पसंद करतीं। लेकिन आम-जन ईमानदार लोकायुक्त चाहते हैं। दुर्भावना से मुक्त संस्था का गठन आसान नहीं। लोकायुक्त भी गड़बड़ करे तो कौन जांचे? क्या फिर से एक और नई संस्था गढ़ी जाएं?

उत्तर प्रदेश और कर्नाटक विधानमंडल ने लोकायुक्त की बाबत संशोधन अधिनियम पारित किया है। फर्क इतना है कि कर्नाटक ने प्रथम दृष्टया आरोपी लोकायुक्त को हटाने के लिए विधानसभा में अधिनियम पारित किया तो उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने मन का लोकायुक्त बनाने के लिए सत्र के अंतिम दिन संशोधन विधेयक रखा। उत्तर प्रदेश की मूल विधि में लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए सरकार के साथ नेता प्रतिपक्ष और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का परामर्श जरूरी था। न्यायालय ने तत्काल नियुक्ति का निर्देश दिया था। सरकारी नियुक्ति प्रस्ताव में मुख्य न्यायाधीश के परामर्श का अभाव था। प्रस्ताव राजभवन ने रोक लिया। सरकार बौखला गई। उसने दोनों सदनों में राज्यपाल की असंसदीय निंदा की और मुख्य न्यायाधीश के परामर्श वाला भाग हटा दिया। संशोधन में सेवानिवृत्त न्यायाधीश और राज्य विधानसभा के अध्यक्ष जोड़े गए। विधानसभा में सरकार का बहुमत था। परिषद में सरकार ने बसपा से तकनीकी समर्थन पाया। विधेयक आनन-फानन में पारित हो गया। ऐसी विधिक संस्थाएं भरोसा नहीं जगातीं।

लोकायुक्तों की नियुक्ति पद्धति में झोल हैं। संसदीय जनतंत्र में दलतंत्र और प्रशासनतंत्र की ही मुख्य भूमिका है। दलतंत्र स्वेच्छाचारी है। प्रशासनतंत्र और दलतंत्र के अवैध संबंध हैं। अधिकांश राज्यों के प्रशासन तंत्र सत्तादल के एजेंट जैसे हैं। यूपी के संशोधित लोकायुक्त अधिनियम में लोकायुक्त को भी अपना एजेंट बनाने की कवायद की गई है। ऐसे लोकायुक्त कैसे न्याय देंगे। उन्हें पदच्युत करना आसान नहीं। सरकार अपने लोकायुक्त को साधारणतया पदच्युत करेगी भी नहीं। न्यायपालिका बेशक सरकारों की कान खिंचाई करती है, लेकिन उसकी भी सीमा है। वह उपलब्ध कानून के भीतर ही न्याय देती हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि यही संसदीय जनतंत्र और ओम्बड्समैन/लोकपाल लेकर ब्रिटिश शासक अपना राजकाज सुगमता से चला रहे हैं, हम भारत के लोग वैसी ही संसदीय प्रणाली, कैग और अन्य संस्थाओं के बावजूद अपना काम संतोषजनक ढंग से भी क्यों नहीं चला पाते? खामी संस्थाओं में नहीं कार्य संचालन में है। पूरी व्यवस्था को समग्रता में जांचने और राष्ट्र हितैषी बदलाव लाने की आवश्यकता है।

[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं]