मृत्यु शब्द से साधारणतया समझा जाता है- शरीर का नष्ट होना। इस कारण संसार में मनुष्य सबसे ज्यादा भयभीत मृत्यु से ही रहता है। हर मनुष्य का संसार उसकी सोच और उसका 'मैं होता है और यह 'मैं इस संसार में लालसा, स्वामित्व, दंभ, विश्वास, ईष्र्या, स्वार्थ, घृणा और अवधारणाओं से भरा होता है। 'मैं का केंद्र मन होता है जो भूत और भविष्य के विचारों में डूबा रहता है और इन सबकी निरंतरता चाहता है। मृत्यु मन की निरंतरता और 'मैं को समाप्त करके मनुष्य रूपी जीव का नवीनीकरण कर देती है। एक साधारण मनुष्य मन के शरीर रूपी वाहन के नष्ट होने और मृत्यु के बाद के अनजाने रहस्य को नहींजानने के कारण और भयभीत रहता है। भगवान ने गीता में भी कहा है कि जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण कर लेती है। यानी पुराने शरीर का मन और 'मैं की समाप्ति के बाद आत्मा एक नई जीवनयात्रा पर निकल पड़ती है। इनसे साफ होता है कि मृत्यु जीवन की निरंतरता को समाप्त करके नवीनीकरण का नाम है। मनुष्य इसी जीवन में निरंतरता को समाप्त करने की विधि समझ ले, तो उसका रोज नवीनीकरण होगा यानी एक प्रकार से रोज मृत्यु और वह मृत्यु के बाद का अनुभव इसी संसार में कर सकता है।

विचारों की निरंतरता समाप्त करने के लिए क्रमबद्ध तरीके से जीवन में मन के विकारों जैसे पूर्वाग्रहों, लोभ, मोह, भय, कामना को त्याग करके अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह (धन का संग्रह न करना) के मार्ग पर चलकर स्वाध्याय करते हुए परमात्मा से एकाकार करने का प्रयास करना चाहिए। मन के विकारों का मुख्य स्रोत ज्ञानेंंद्रियां आंख, कान, नाक, त्वचा और मन होते हैं। योग साधना में ज्ञानेंद्रियों पर संयम और अनुशासन रखना भी उतना ही आवश्यक होता है, जितना योग। इस प्रकार की नियमित दिनचर्या से मनुष्य सम की स्थिति में पहुंचकर भूतकाल के विचारों और भविष्य की कल्पनाओं से मुक्त होकर सहज अनुभव करता है। ऐसे मनुष्य की आत्मा उसी प्रकार शरीर को त्यागकर परमात्मा में विलीन हो जाती है, जिस प्रकार एक पका फल पेड़ की डाल से अलग हो जाता है। सनातन धर्म के महामृत्युंजय मंत्र का भी भाव यही है। सम स्थिति में मनुष्य के लिए मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है और मृत्यु भय समाप्त होने का तात्पर्य अमरता होती है।

[कर्नल (रिटायर्ड) शिवदान सिंह]