उदय प्रकाश अरोड़ा

वर्ष 1927 में जब कैथरीन मेयो द्वारा लिखी पुस्तक-मदर इंडिया प्रकाशित हुई तब भारत के विषय में यूरोप और दूसरे बाहरी मुल्कों में यह राय बनने लगी कि वहां जाति प्रथा, बाल विवाह, बहुविवाह और दहेज प्रथा जैसी अनेक सामाजिक कुप्रथाएं हैं। इसके अलावा विधवाओं की दुर्दशा है और स्त्रियों को बहुत दबाकर रखा जाता है। मेयो ने लिखा था कि आम तौर पर ये बुराइयां हिंदू समाज में हैं, मुसलमानों में नहीं, लेकिन जो भारत के मुस्लिम समाज को करीब से जानता था उसे मेयो का यह कथन आश्चर्यजनक लगा। सच यह है कि कोई भी सामाजिक कुप्रथा जो हिंदुओं में है वह मुसलमानों में भी है। भारतीय मुसलमानों में जाति प्रथा, दहेज और विधवा दुर्दशा आदि सभी बुराइयां हैं, भले ही वे हिंदुओं से आई हों। मुस्लिम समाज में हिंदुओं की ही सभी सामाजिक कुप्रथाएं नहीं हैं, बल्कि उनके अतिरिक्त भी हैं। उदाहरण के लिए पर्दा प्रथा। जिस भीषण रूप से वह मुसलमानों में मौजूद है वह किसी से छिपी नहीं।
राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, स्वामी दयानंद, ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी और डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों ने हिंदू समाज की बुराइयों की ओर ध्यान आकर्षित किया। समय के साथ उन्हें धर्म विरुद्ध घोषित किया गया, जबकि मुस्लिम समाज में ऐसा कुछ नहीं हुआ। वहां विपरीत दिशा में कार्य हुआ। यह दुख की बात है कि मुस्लिम समाज में सामाजिक सुधार और विशेष रूप से महिलाओं की दशा में सुधार के लिए कभी कोई आंदोलन नहीं हुआ। मुस्लिम संगठनों से यह आशा थी कि वे कौम की तरक्की के लिए कुछ सुधार कार्यक्रम चलाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। उनका एक मात्र विषय अब तक यही रहा कि इस्लाम का अनुसरण कैसे हो। धर्म से बाहर हटकर उन्होंने कभी नहीं सोचा। परिणामत: जब भी सामाजिक सुधार की बात होती है, वे धर्म के नाम पर विरोध करने खड़े हो जाते हैं। उनके आंदोलन पर्सनल लॉ के नाम पर दकियानूसी रीति-रिवाजों को रोकने के लिए होते हैं, कौम की सामाजिक-आर्थिक तरक्की के लिए नहीं। 1930 में जब केंद्रीय असेंबली के सामने बाल विवाह से संबंधित एक बिल लाया गया तो बिल में विवाह की आयु कन्या के लिए कम से कम 14 वर्ष और लड़के के लिए 18 रखी गई। मुस्लिम नेताओं ने बिल का विरोध किया, क्योंकि उनके अनुसार यह बिल इस्लाम धर्म के विरुद्ध था। बिल ने जब कानून का रूप ले लिया तब उसके विरुद्ध कुछ मुस्लिम नेताओं ने आंदोलन छेड़ दिया। बाल विवाह कुप्रथा को बनाए रखने के लिए उपरोक्त आंदोलन को बीते आज 87 वर्ष हो गए हैं। तब आंदोलन बाल विवाह के लिए था, अब तीन तलाक की कुप्रथा के लिए है। इस सबके पीछे एक ही तर्क दिया जाता है और वह है धर्म। दरअसल अपने समाज की कुरीतियों के विरुद्ध मुस्लिम समाज को स्वयं मुखर होना चाहिए था। कम से कम खुले दिमाग वाले युवा मुसलमानों को तो आगे आना ही चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है? हिंदू समाज सुधारकों की तरह मुस्लिम समाज में प्रगतिशील सामाजिक सुधारकों का वर्ग क्यों नहीं पैदा हुआ? गरीबी बनाम अमीरी, पूंजी बनाम श्रम, जमींदार बनाम किसान, मुल्ला-मौलवी बनाम मुस्लिम समाज, वैज्ञानिकता बनाम रूढ़िवादिता जैसे प्रश्न मुस्लिम नेताओं की चिंता का विषय क्यों नहीं बने? इस बारे में यही सामान्य उत्तर दिया जाता है कि एक बार जो नियम कानून पैगंबर मोहम्मद के समय बन गए वे सदैव के लिए हैं और उनमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। यह सत्य नहीं है। भारत के बाहर तमाम मुस्लिम देशों की जनता ने पुरानी परंपरा का परित्याग किया है। ऐसे देशों में अभी भी परिवर्तन के प्रति ललक दिखती है।
आज दुनिया के तमाम मुस्लिम नौजवानों में तर्क और विवेक ने प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को जन्म दे दिया है। इन देशों में परिवर्तन और सुधार के प्रति गहरी इच्छा मुस्लिम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। तुर्की में जो सुधार कार्यक्रम हुआ वह क्रांतिकारी था। दुनिया का सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला देश इंडोनेशिया सहिष्णुता और उदारवादी नीति का पूरी तरह पालन करने के कारण विख्यात है। जब तुर्की, इंडोनेशिया और मलेशिया में इस्लाम प्रगति में बाधक नहीं बना तब भारत में क्यों बन रहा है? भारतीय मुसलमानों में परिवर्तन की प्रवृत्ति का अभाव दिखता है। वह ऐसे सामाजिक वातावरण में रहता है जो मुख्यत: हिंदू है। इस वातावरण में रहते हुए अनजाने में ही उसने तमाम हिंदू रीति-रिवाजों को अपना लिया है। अब उसे यह लगता है कि हिंदू वातावरण चुपचाप उस पर हावी होता जा रहा है और यह सामाजिक वातावरण मुसलमानों का गैर इस्लामीकरण कर रहा है। यह भ्रम ही उसे बदलाव से रोक रहा है। आम तौर पर वह अपनी हर उस चीज को बचाना चाहता है जिसे वह इस्लामी मानता है। भले ही वह अच्छी हो या बुरी और उसके विकास में सहायक हो अथवा हानिकारक।
आजादी के बाद के 70 वर्षों ने दिखा दिया है कि आंदोलन, नारेबाजी, सत्ता को ज्ञापन पत्र देने, अदालतों में अपील, संवैधानिक अधिकारों की मांग करने आदि से मुस्लिम समाज को कुछ भी नहीं मिला। विरोध के इन सभी रास्तों ने उन्हें नुकसान ही पहुंचाया। अल्पसंख्यक आयोग और उर्दू अकादमी जैसी संस्थाओं से भी मुसलमानों की वास्तविक स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। आज जरूरत इस बात की है कि परिवर्तन की आवाज खुद मुस्लिम समाज के भीतर से उठे। मुसलमानों को राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा से जुड़ना होगा। मुख्यधारा से जुड़ने से क्या लाभ है, इसे मुसलमानों को समझना होगा। मुसलमानों के पिछड़ेपन की समस्या पर मौलाना वहीदुद्दीन ने यह सही ही लिखा है कि सत्ता से शिकायत करने के बजाय मुसलमान राष्ट्र निर्माण में क्रियाशील सहभागी बनें। अल्पसंख्यक पारसी कौम का उदाहरण उनके सामने है। सत्ता से किसी प्रकार की शिकायत किए बिना स्वयं अपनी क्रियाशीलता के कारण आज वह देश की सबसे अधिक समृद्धशाली कौम बन गई है। मुस्लिम समाज में भी हुनर है। बस जरूरत है उन्हें सही नेतृत्व की। ऐसे नेतृत्व की जो उनके सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को उठाए न कि धार्मिक मसले।
[ लेखक जेएनयू में ग्रीक चेयर प्रोफेसर रहे हैं ]